नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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आदमी और क्षितिज
कुछ धरा उठ गई, कुछ गगन झुक गया,
औ' क्षितिज पर मिले दो पिपासित अधर,
राह में ही भटक कर मगर रह गया,
आदमी से क्षितिज, सच, बहुत दूर है।
है किसी के दरद का पता कब किसे,
झूम उठता पवन, टूट गिरती कली;
लहरियाँ तो मिला आँख, आगे बढ़ीं -
पीर तट के हृदय में सदा को पली;
राह की रौंद छाती कठिन पैर से,
बढ़ गया है बटोही, पड़ी राह है;
हंस तिर कर गया एक उस पार भी -
जोहती बाट लेकिन खड़ी थाह है;
थाह भी, राह भी यों बिलख कह रहीं -
"है विरह तो निकट, पर मिलन दूर है।"
आदमी से क्षितिज, सच, बहुत दूर है।
जब कभी नाव मेरी किनारे लगी,
एक लम्बा सफ़र आ गया सामने;
मौत की मंज़िलों पर थकी साँस जब -
एक जीवन नया आ गया सामने;
वन्दना में झुका मंद कर जब नयन,
चित्र अपना सहज ध्यान में बस गया;
बन्धनों से तड़प जब कभी गा उठा
गीत मेरा मुझे और भी कस गया;
गीत का, ध्यान का बस यही राज़ है,
भक्ति के वह निकट, मुक्ति से दूर है।
आदमी से क्षितिज, सच, बहुत दूर है।
बोल दो ही कहे, कंठ रुँध-सा गया,
मौन सहमी पिकी, बाग़ उजड़ा पड़ा;
गंध की चादरें ओढ़ कंटक हँसे -
फूल का शव, मगर आज उघड़ा पड़ा;
मखमली अँगुलियाँ छेड़ कर वीण को,
हो गईं जब शिथिल, तान सिहरी बहुत;
कुछ अधर कँप गए, कुछ पलक झिप गईं -
थी कथा अधकही, किन्तु गहरी बहुत;
वह अधूरी कहानी यही कह उठी -
"वीण तो है निकट, किन्तु स्वर दूर है।"
आदमी से क्षितिज, सच, बहुत दूर है
धूल में लोटती रह गई चाँदनी,
चाँद की बाँह में, किन्तु सो कब सकी,
बादलों में तड़पती रही दामिनी -
रात की कालिमा, किन्तु धो कब सकी;
प्यास से तिलमिला रह गए होंठ हैं,
सिन्धु खारे मगर, बुझ सकी प्यास कब;
आस-परियाँ रहीं नाच स्वर-ताल में -
पर, मिला नेह का मौन विश्वास कब;
एक प्यासा पथिक यों चला जा रहा,
हाय, जल के निकट, तृप्ति से दूर है !
आदमी से क्षितिज, सच, बहुत दूर है।
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