नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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इस पार भी, उस पार भी
इस पार भी, उस पार भी,
तुम प्यार से करते रहे इनकार भी इक़रार भी।
कुढ़ता रहा यह वृद्ध जग,
इस हाथ से वह हाथ ठग;
लेकिन नहीं रोके रुके -
जो बढ़ चले इस राह पग;
फिर बाद में होता रहा निर्माण भी, संहार भी !
मैं ने तुम्हें कुछ मान कर;
अपना समीपी जान कर;
थी ज़िन्दगी ही सौंप दी -
बस एक क्षण पहचान कर;
लेकिन न तुम ठुकरा सके, कब कर सके स्वीकार भी!
अपनी व्यथा मैं क्यों कहूँ,
चुपचाप ही सहता रहूँ;
अनुकूल हो सकता नहीं -
प्रतिकूल हो दहता रहूँ;
खुद आप ही मैं नाव भी अपनी बनूँ , पतवार भी !
यह चार दिन की ज़िन्दगी,
मुझ को बहुत शर्मिन्दगी;
मैं कर न पाया पाप इस में -
हो न पाई बन्दगी;
उपयोग उन का क्या हुआ, जो थे मिले अधिकार भी !
यदि साथ तुम रहते नहीं,
तो साफ़ क्यों कहते नहीं;
मैं ही नहीं, इस शूल का -
क्या दर्द तुम सहते नहीं ?
इस चाँदनी में जल रहे हैं फूल भी, अंगार भी !
इस पार भी, उस पार भी !
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