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आचार्य श्रीराम शर्मा >> भाव बंधनों से मुक्त हों

भाव बंधनों से मुक्त हों

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15475
आईएसबीएन :00000

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सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति की आवश्यकता और उपाय

वासना : इन्द्रिय शक्ति के साथ खिलवाड़

 

आग की उपयोगिता सर्वविदित है। उसके अनेकानेक उपयोग हैं। यदि वह न हो तो रसोई बनाना, शीत निवारण, प्रकाश जैसी आवश्यकताएँ भी पूरी न हो सकें और जो अनेक प्रकार के रसायन बनते हैं, धातु शोधन जैसे कार्य होते हैं उनमें से एक भी न बन पड़े और जीवन दुर्लभ हो जाय। बिजली भी अब जीवन की महती उपयोगिताओं में, आवश्यकताओं में सम्मिलित हो गयी है। घरों में बत्ती, पंखा, हीटर कूलर, स्त्री आदि उसी के सहारे चलते हैं। वही पम्प चलाती और खेतों को सींचती है। यदि बिजली गुम हो जाय तो दैनिक काम निपटाना कठिन हो जाता है।

आग और बिजली की तरह ही ज्ञानेन्द्रियों की उपयोगिता है। हमारी समस्त गतिविधियाँ उन्हीं के सहारे चलती हैं। आंखें न हों तो? कान न हों तो? जीभ न हो तो? - देखना, सुनना और बोलना कठिन हो जाय और मनुष्य अंधा, गूँगा, बहरा बनकर मिट्टी के ढेले की तरह किसी प्रकार जीवित भर रह सकेगा। हाथ-पैर न हों, तो वह गोबर के चोथ जैसा बैठा रहेगा और साँस भर लेता रहेगा। आग और बिजली की तरह भगवान ने इन्द्रियाँ भी इसीलिये दी हैं कि उनसे कठिनाइयों का हल निकाला जाय और प्रगति का द्वार खोला जाय। सुसम्पन्न और प्रगतिशील बनने में इन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं। आग और बिजली की तरह उनकी क्षमता भी असाधारण है। केंचुए और इन्सान में यही फर्क है कि केंचुए को इन्द्रियाँ नहीं मिली हैं पर मनुष्य को उन विभूतियों से सुसम्पन्न होने का सुयोग मिला है। सृष्टि का मुकुटमणि मनुष्य को कहा गया है, पर यह स्तर कैसे प्राप्त हुआ? इस प्रश्न का उत्तर इसी प्रकार मिलता है कि उसे इन्द्रियों की विशिष्ट क्षमता उपलब्ध है। चिन्तन में समर्थ मस्तिष्क की महत्ता अनुपम है। वह भी ग्यारहवीं इन्द्रिय ही है। जीवन की सरसता और समर्थता इन्हीं के सहारे बन पड़ती है। इन्हें सर्वोपयोगी सर्वसमर्थ उपकरण भी कहा जाता है, जो निरन्तर साथ रहते और अपने-अपने काम में जुटे रहते हैं। जीवन रथ इन्हीं के आधार पर गतिशील रहता है।

आग को कोई मनोरंजन के काम भी ला सकता है। बच्चे दियासलाई जलाने-बुझाने का खेल अवसर पाते ही खेलने लगते हैं। फुलझड़ी, अनार पटाखे जैसे अतिशबाजी के खेल भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार मनोरंजन तो हो जाता है, पर साथ ही खतरा भी रहता है कि तनिक-सी असावधानी हुई कि जान जोखिम हो सकती है। चिन्गारी उड़कर छप्पर को जलाये, तो सारा घर स्वाहा हो सकता हैं, जीवन भर की कमाई नष्ट हो सकती हैं और उसकी चपेट में फँसे हुए मनुष्य या पशु-पक्षी भी जल सकते हैं। इस प्रकार आग का खेल या उनका असावधानी के साथ किया गया प्रयोग भयंकर काण्ड खड़े कर सकता है। इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनका लाभ तभी तक है, जब तक कि उनका सत्प्रयोजनों में योजनाबद्ध रूप से सतर्कतापूर्वक उपयोग किया जाय। यदि इसमें व्यतिरेक उत्पन्न किया जाय, तो समझना चाहिये कि अनर्थ को ही आमंत्रित किया जा रहा है।

सृष्टा ने इन्द्रियों में दुहरी विशेषतायें भरी हैं। वे जीवनचर्या के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों का भी वहन करती हैं, साथ ही सरसता का पुट भी है, जिसके सहारे कहीं बाहर न जाकर इन्हीं के सहारे मनोरंजन का भरपूर लाभ उठाया जा सकता है। यह कृत्य जब तक सीमाबद्ध रहता है, तब तक उनका उभय पक्षीय लाभ भी है, पर जब स्वाद की सरसता नशेबाजी की तरह व्यसन बन जाती है और मर्यादाओं का उल्लंघन करतीं है, तो उससे होने वाली हानि भी असाधारण हो जाती है, अनर्थ की सीमा जा छूती है।

आँख का उपयोग वस्तुओं को देखना और उनका सदुपयोग करना है। अध्ययन-अध्यापन में भी उन्हीं की प्रधानता रहती है। शिल्प व्यवसाय में आंखों की ही प्रमुखतापूर्ण भूमिका रहती हे। यह उसका क्रिया पक्ष हुआ। मनोरंजन पक्ष वह है जब प्रकृति के सौन्दर्य को निहारते हुए उल्लास भरा आनन्द लिया जाता है। सौन्दर्य बोध उन्हीं के सहारे होता है। सिनेमा, अभिनय नृत्य सर्कस आदि उन्हीं के माध्यम से देखे जाते हैं। यह सरसता पक्ष की प्रक्रिया हुई, पर इसकी छभी एक सीमा है। सीमा के बाहर जाने पर टकटकी लगाकर घन्टों देखते रहना आंखों की क्षमता नष्ट करता है और कितने दृष्टिदोष, नेत्र रोग उठ खड़े होते हैं। कई बार तो इसी कुचक्र में आंखें भी गँवानी पड़ कती हैं। यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है।

अति को सर्वत्र वर्जनीय माना गया है। इन्द्रियों से उपयोगी कामों में भी अत्यधिक श्रम किया जाय; तो वे थककर चूर हो जाती हैं और अधिक भारवहन से इन्कार कर देती हैं। आगे के लिये उनकी कार्यक्षमता नष्ट हो जाती हैं। यही बात उनके द्वारा किये जाने वाले रसास्वादन के सम्बन्ध में भी है। यदि उसमें अति बरती गयी, इस लोलुपता को व्यसन बना लिया गया तो इसका प्रभाव उनकी निजी क्षमता का दिवाला पिट जाना तो होता ही है, उस हानि से सहज शरीर और जीवन भी प्रभावित होता हैं। इसी रसास्वादन में अति बरतने की आदत को वासना कहते हैं। शास्त्रकारों ने वासना की अतिशय निन्दा की है और उसे आत्मघाती बताया है।

जिह्वा की लोलुपता को ही लिया जाय, तो वह दुर्व्यसनी होकर चटोरी हो जाती है। स्वादिष्ट पदार्थों को क्षण-क्षण में उदरस्थ करने की ललक उठती रहती है। पल-पल में कुछ जायकेदार, मजेदार खाने को जी चाहता है। नशेबाजों की तरह वासनाग्रस्त भी आवश्यकता से अधिक खाते रहते हैं। यदि पक्वान्न, मिष्ठान्न, मसालेदार पदार्थ मिलें, तो उन्हें इतनी मात्रा में उदरस्थ कर लिया जाता है, जो पेट की पाचन शक्ति से कहीं अधिक होते हैं। अधिक पका, गरिष्ठ एवं तामसिक भोजन पेट में सड़न पैदा करता है और वह धींमा विष समस्त शरीर में फैल कर अवयवों को क्षति पहुँचाता है। जहाँ-जहाँ विषाक्तता जमा हो जाती है, वहीं रोग फूट पड़ता है। इसी दशा में कष्ट सहन, परिचारकों के समय का अपव्यय तथा चिकित्सा के निमित्त होने वाला खर्च करना पड़ता है। आयुष्य घटती है, जीवनी शक्ति का हास होता है और दुर्बलता-रुग्णता के कुचक्र में फँसे हुए जिस-तिस प्रकार जीवन काटना पड़ता है। यह है वासना का दण्ड, जिसे भोगे बिना किसी प्रकार छुटकारा नहीं मिल सकता। प्रकृति की अदालत में कड़े दण्ड की भी व्यवस्था है, वह मात्र अनुदान देने में उदार ही नहीं है। अव्यवस्था फैलाने वालों के प्रति कठोर भी है, ताकि वे प्रताड़ना की भाषा समझ सकें और भविष्य में गलती न करने की शिक्षा ग्रहण कर सकें।

इन्द्रिय शक्ति सीमित है। वह इतनी ही है कि जीवनचर्या के आवश्यक कार्यों को क्रमबद्ध रूप से किया जा सके। अतिवाद सहन करने की स्थिति उनकी भी नहीं है। चटोरपन की वासना स्वास्थ्य को नष्ट करती और रोते-कराहते असमय में ही अकाल मृत्यु मरने के लिये बाधित करती है। वासना, उपभोग के समय तो अच्छी लगती है और उस स्वाद की अधिकाधिक ललक पूरी करने की तबियत होती है। जो इस लिप्सा के वशीभूत हो जाते हैं, वे कष्ट उठाते हैं। जो दूरदर्शी विवेक अपनाकर समय से पहले ही सतर्क हो जाते हैं, संयम अनुशासन बरतते हैं, वे ही बुद्धिमान कहलाते और उपलब्धियों का समुचित लाभ उठाते हैं।

इन्द्रियों में जिन्हें प्रबल और प्रमुख माना जाता है, उनमें स्वादेन्द्रिय के उपरान्त जननेन्द्रिय है। उसका प्रयोजन बहुत सीमित है। प्राय: वह मूत्र त्याग का दैनिक कर्म पूरा करती रही है। इसी के एक कोने में छोटा-सा अवयव हैं, जो प्रजनन के लिये काम आता है। प्रकृति की इच्छा है कि हर जीवधारी का वंश चलता रहे। उसकी प्रजाति धरातल पर स्थिर रहे। इसलिये मुत्रेन्द्रिय को ही यदा-कदा प्रजनन कार्य में जुटना पड़ता है। यह उसका प्रमुख नहीं गौण कृत्य है।

प्रजनन में नर और मादा दोनों को ही असाधारण झंझट, जोखिम और दायित्व उठाने पड़ते हैं। ऐसे घोरकर्म में कोई विवेकशील क्यों फंसे? और क्यों उसमें कोल्हू के बैल की तरह पिसते-घिसते रहना स्वीकार करे? इस विवेकशीलता से प्रकृति-प्रयोजन में बाधा पड़ती है, इसलिये उसने यह चतुरता की है कि रतिक्रिया में एक उन्मादी रस जोड़ दिया है, जिसकी ललक से प्रेरित होकर प्राणी उसमें बेतरह आकर्षित होता है और उन क्षणों के उस रस-स्खलन को अमरमूरि जैसी उपलब्धि मान बैठता है एवं मात्र प्रजनन के निमित्त कम और यौनाचार की उत्तेजना के लिये उस वासना में आतुरतापूर्वक प्रवृत होता है। देखा गया है कि प्रजनन का लक्ष्य भूलकर बहुसंख्यक लोग वासना के निमित्त ही इस इन्द्रिय शक्ति का अपव्यय करते हैं। बासना की ललक में इस संदर्भ की समस्त मर्यादाओं को उठाकर ताक मे रख देते हैं। जिह्वा के चटोरपन की तरह यौन-कार्य में भी अति बरतते हैं और प्रारब्धवश उसका कठोर दण्ड सहते हैं। जीवनी शक्ति के भण्डार को इस प्रकार नष्ट करने की उतावली बरतते हैं मानों इसमे लाभ-ही-लाभ हो। चासनी में बेतरह टूट पड़ने वाली मक्खी इसी प्रकार अपने पर उसमे फँसाती और बेमौत मरती है। यही दशा कामुकों की होती है।

मस्तिष्कीय कुशलता को, बलिष्ठता को बनाये रहने वाली जीवनी शक्ति का भण्डार शुक्र सम्पदा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हआ है। कामुक व्यक्ति कुछ क्षण के रसास्वादन को देखता है और यह भूल जाता है कि शरीर और मन का सार तत्व इस ललक लिप्सा के निमित्त किस प्रकार बर्वाद किया जा रहा है। इस बर्बादी का प्रतिफल जननेन्द्रिय रोगों से लेकर समूचे शरीर में दुर्बलता के रूप में परिलक्षित होते देर होती। कामुकता की अति जवानी में ही बुढ़ापे को लाद देती है।

पशु-पक्षियों की, अन्यान्य जीव-जन्तुओं की यौनाचार पद्धति पर दृष्टि डाली जाय, तो प्रतीत होता है कि मादा की गर्भधारण क्षमता जब उत्तेजित होती है, तभी उसका आभास पाकर नर, मादा की सहायता करता हैं, अन्यथा अपनी ओर से उसका कोई संकेत, कोई प्रयास इस निमित्त नहीं होता। वह सदा इस संदर्भ की उपेक्षा ही करता है, संयम ही अपनाता है। मादा के गर्भधारण करने के उपरान्त तो छेड़छाड़ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य स्तर के प्राणी प्रायः वर्ष में एक बार काम-सेवन करते हैं। इतने में गर्भाधान भी हो जाता है। इसके बाद मुद्दतों के लिये छुट्टी।

मनुष्य के लिये कामुकता का प्रसंग वर्ष में एक बार आये तो पर्याप्त है। अति अपनाने का परिणाम जीवनी शक्ति का अपव्यय तो प्रत्यक्ष ही है। जननेन्द्रिय की स्थानीय दुर्बलता और रुग्णता कम कष्ट नहीं देती। पुरुष की तुलना में स्त्री के प्रजनन अवयव कहीं अधिक कोमल हैं। वे अमर्यादित दबाव सहन नहीं कर सकते। टूट-फूट होने लगती है, तो उससे समूचा प्रजनन सस्थान शत-विक्षत होता है। समीपवर्ती अन्य अवयव भी उस टूट-फूट से प्रभावित होते हैं। मूत्राशय, गुर्दे, गर्भाशय, रीढ़, पेट, अति भी उस दबाव के कारण अपने ढंग के रोगों से आक्रांत होते हैं। इस स्थिति में जने गये बच्चे भी जन्मजात रुग्णता साथ लेकर आते हैं।

स्वादेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के वासना ग्रस्त होने पर असीम हानि उठाने की चर्चा ऊपर की पक्तियों में है। अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। वे अतिवाद की वासना के शिकार होकर अपनी-अपनी स्वस्थता और समर्थता को गँवाते चले जाते हे। इस अनर्थ से बचना ही अच्छा है।

नेत्रों से दिन के प्रकाश में ही काम करें। रात्रि में उन्हें विश्राम लेने दें। कानों को कोलाहल से बचायें। निरन्तर सुनते रहने की स्थिति से बचे। तीव्र सुगन्ध और दुर्गन्ध नाक पर बुरा असर डालती है और मस्तिष्क को अस्तव्यस्त करती है। शरीर पर चिपका हुआ मैल त्वचा की सवेदनशीलता को नष्ट करता है। इन्द्रियों के वासना के कुचक्र में फँसकर नष्ट होने के साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि उन्हें न निष्क्रिय रहने दिया जाय और न अतिवाद अपनाकर नष्ट-भष्ट ही किया जाय।

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