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आचार्य श्रीराम शर्मा >> भाव बंधनों से मुक्त हों

भाव बंधनों से मुक्त हों

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15475
आईएसबीएन :00000

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सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति की आवश्यकता और उपाय

आत्मोत्कर्ष के मार्ग में तीन प्रमुख बाधायें


आत्मा की महती आकांक्षा पुण्य परमार्थ की है। इसके बिना अन्तःकरण को न शान्ति मिलती है और न उसका समाधान होता है। इन दोनों कार्यों को करने की परिपूर्ण क्षमता हर व्यक्ति में है, पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि न उन दोनों का स्वरूप समझा जाता है और न उनके लिये वैसा ठोस प्रयत्न ही किया जाता है जैसा कि किया जाना चाहिये। इन दोनों के सम्बन्ध में गहरी भ्रान्ति रहने के कारण प्राय: जिस-तिस को पैसा या वस्तुयें दान कर देना ही सब कुछ मान लिया जाता है, पर जिसके पास पैसा नहीं है, वे क्या करें? इसका अर्थ यह हुआ कि परमार्थ लिये पैसा अनिवार्य हैं। इसलिये उसे सर्वप्रथम येन-केन-प्रकारेण संग्रह करना चाहिये। यह बड़ा असमंजस है कि एक ओर औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करने, अपरिग्रही बनने और दूसरी ओर पैसा खर्च करने पर ही परमार्थ सिद्ध होने की बात कही जाय। यह दोनों ही कथन एक-दूसरे के विपरीत पड़ते हैं। अपरिग्रही धन के आधार पर बन पड़ने वाले पुण्य-प्रयोजनों की सिद्धि किस प्रकार कर सकेगा?

वस्तुतः पुण्य का अर्थ है-आत्मशोधन और परमार्थ का तात्पर्य है- सेवा-साधना। यह दोनों ही हर स्थिति वाले व्यक्ति के लिये संभव है। भीतर के कषाय-कल्मषों को और बाहर के अनाचारों से निपट लेने में हर मनस्वी व्यक्ति सफल हो सकता है। ऐसी ही मनस्विता अर्जित करने के लिये इन्द्रिय दमन या मनो निग्रह से सम्बन्धित साधन-विधान अपनाने पड़ते है। मनोबल जहाँ प्रबल हुआ नहीं कि दुष्प्रवृत्तियों का वानर समूह एक जोरदार ललकार देते ही भाग खड़ा होता है।

आत्मोत्कर्ष के मार्ग में लोभ और मोह को सबसे बड़ा बाधक माना गया है। लालच के वशीभूत होकर व्यक्ति निरन्तर धन कमाने और उसके आधार पर गुलछर्रे उड़ाने की बात सोचता है। लोभाकर्षण इतना प्रबल है कि दुर्बल मनोभूमि के व्यक्ति के लिये उसे निरस्त करना नितान्त कठिन पड़ता है।

दूसरा है- मोह। छोटे बच्चे माँ की और समर्थ व्यक्ति पत्नी की घनिष्ठता के निमित्त लालायित रहते हैं। पत्नी बच्चे जनती है और यौन कर्म के दण्ड स्वरूप उस उत्पादन के परिपोषण का दायित्व कन्धों पर लाद देती है। कुछ अन्य कुटुम्बियों को मिलाकर एक परिवार बन जाता है और न्यूनाधिक मात्रा में इन सभी से लगाव चल पड़ता है। यदि यह औचित्य की मात्रा में सीमित रहता, तो भी बात बनती। तब औसत भारतीय स्तर का निर्वाह जुटाते हुए उस परिवार को स्वावलम्बी एवं सुसंस्कारी बनाने भर की जिम्मेदारी रहती, जिसे मिल-जुलकर पूरा करने में कोई विशेष बाधा सामने न आती; किन्तु जब मोह की अति हो जाती है, तो प्रियजनों को कुबेर जितनी सुविधाओं से लाद देने और उत्तराधिकार में विपुल सम्पदा छोड़ मरने को जी करता है। इसके साधन जुटाना भी अत्यधिक कठिन पड़ता है। लोभ और मोह का बना हुआ रस्सा इतना मजबूत होता है कि उनसे जकड़ जाने पर भव-बन्धनों से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं मिलता। निर्वाह एक बात है और लालच दूसरी। प्यार एक शब्द है और मोह उसी की छद्म छाया।

इसलिये ब्राह्मणत्व की दिशा में अग्रसर होने वाले पुण्य परमार्थ की बात सोचने वाले को इन दोनों पर औचित्य की मर्यादा में रहने का कड़ा अंकुश लगाना पड़ता है। इतना करने के उपरान्त ही अपना समय और साधन इतना बच पाता है कि उससे जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करा सकने वाले मार्ग पर कदम बड़ाने का सुयोग बन पड़े।

आत्मानुशासन के उपरान्त ही आत्मोत्कर्ष का द्वार खुलता है। क्या करना है, इसका निर्धारण तो अपनी क्षमता और कार्यक्षेत्र की आवश्यकता को देखते हुए करना पड़ता है और परिस्थिति परिवर्तन के साथ-साथ उनमें हेर-फेर भी करना होता है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चतुर्विध क्रिया-कलापों को अपनाकर कोई भी आत्मिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ सकता है। भव-बन्धनों के प्रसंग में दो प्रत्यक्ष है और एक परोक्ष। प्रत्यक्ष में लोभ और मोह की गणना करायी जा चुकी है। तीसरा छद्म दुरात्मा है-अहंकार। अहंकार के विविध रूप हैं, पर उन सबका उद्देश्य एक ही है-अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करना, उन पर छाप छोड़ना और ऐसे प्रदर्शन करना, ताकि दर्शकों को बड़प्पन स्वीकार करना पड़े। शरीर की साज-सज्जा, घर की सजावट, नौकरों, वाहनों और कीमती उपकरणों की भरमार इसीलिये की जाती है कि देखने वाली को अपने तुलना में प्रदर्शन कर्त्ता कों-सरंजाम से भरा-पूरा अमीर और बड़ा मानना पड़े। वह बड़प्पन प्रदर्शित करने की बचकानी प्रवृत्ति हो स्त्रियों को चित्र-विचित्र फैशन बनाने और आभूषण धारण करने के लिये उकसाती है। पुरुष ठाठ-बाट के अनेकानेक सरंजाम जुटाते हैं। यह मानसिकता परोक्ष दुर्बलता है, जो विश्लेषण करने वाले की ही पकड़ में आती है अन्यथा इस दुर्बलता को पकड़ना और उसके कौतुक-कौतूहल से भरी-पूरी विडम्बना का पता भी नहीं चलता और समय और साधनों का पूरा अपव्यय उसके निमित्त होता रहता है। लोभ, मोह और अहंकार को ही आयुर्वेद की भाषा में त्रिदोष, सन्निपात कहा जाता है, जिसमें रोगी प्रलाप करता और भारी बेचैनी का परिचय देता है।

ब्राह्मण को इन तीनों से ही बचना पड़ता है अन्यथा इन समुद्र जितने गहरे खड्डों को पाटने में मनुष्य की शक्ति चुक जाती है और आदर्शों के परिपालन की बात मात्र कल्पना बनकर रह जाती है। ब्राह्मणत्व की दिशा में बढ़ने वाले लोभ-मोह को घटाने या हटाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं और इस त्याग बलिदान, शौर्य, पराक्रम एवं आदर्शवाद की चर्चा फैलने पर यश मिलता है और अपने को भी तनिक लीक से आगे बढ़कर महा मानवोंके मार्ग पर चलने की गरिमा का भान एवं संतोष होता है।

किन्तु अहंकार का भ्रमजंजाल ऐसा है, जिससे निकलना तो दूर, यह पता तक नहीं चलता कि क्षय विषाणुओं की तरह खोखला कर देने वाला अहंकार मन के किस कोने में, किस चतुरता से छिपा बैठा है और कैसे-कैसे विचित्र कौतुक प्रेत-पिशाच की तरह दिखा रहा है।

धन, यश और सम्मान छूटने के लिये साधु-ब्राह्मण वर्ग के लोग भी अपनी महानता का, साधना का, सिद्धि का ढिंढोरा पीटते रहते हैं और उस जाल में भोले-भावुकों को फँसाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। ऐसे सन्त-महन्त र्स्वत्र कितनी बड़ी संख्या में फैले पड़े हैं, इसे नजर उठाकर सहज ही देखा जा सकता है। आवश्यक कार्यों की उपेक्षा करके वे ऐसा धर्माडम्बर खड़े करते हैं जिनमें भले ही जनता की गाढ़ी कमाई बर्बाद होती रहे, पर उन्हें नेतृत्व करने का, संचालक संयोजक बनने का श्रेय मिल सके।

यह अहमन्यता साथियों को शत्रु बनाती है। दूसरों के हिस्से में श्रेय या पद न जाने देने के लिये उन्हें गिराने और बदनाम करने का कुचक्र चलाना पड़ता है और हर कीमत पर अपने को वरिष्ठ सिद्ध करने का ऐड़ी-चोटी पसीना बहाने जैसा प्रयत्न करना पड़ता है। यदि उसमें सफलता न मिले, तो जिस संस्था की छत्रछाया में पले थे, उसी को बर्बाद करने तक मंज नहीं चुका जाता, भले ही उससे अपना सींचा पौधा स्वयं ही काट गिराने जैसा अनर्थ बनता हो।

कितनी ही समर्थ संस्थाओं और संगठनों की दुर्गति इसी छद्म अनाचार-अहंकार के कारण हुई है। किसी समय के भले-भोले व्यक्तियों को अनुपयुक्त जाल-जंजाल रचने पड़े हैं। रामलीला के मेले में जाने वाले बच्चे प्राय: हनुमान और काली के मुखौटे खरीद लाते हैं और एक-दो दिन बड़े चावपूर्वक उन्हें पहनते हैं, ताकि हनुमान और काली जैसा दीखने का दर्प अपनाकर लोगों को अचंभे में डाल सकें और स्वयं अपनी चतुरता पर प्रसन्न हो सकें। अहंकार यों तो सभी के लिये बुरा है, पर ब्राह्मण के लिये तो वह सर्वाधिक अनर्थ मूलक है।

 

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