आचार्य श्रीराम शर्मा >> दर्शन तो करें पर इस तरह दर्शन तो करें पर इस तरहश्रीराम शर्मा आचार्य
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देव अनुग्रह की उपयुक्त पात्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति केवल देवदर्शन अथवा दक्षिणा-प्रदक्षिणा द्वारा मनोरथ को सिद्ध नहीं कर सकता
दर्शन तो करें, पर इस तरह
दर्शन करने की हमारे समाज में बड़ी महिमा मानी जाती है। देव मदिरों के एवं तीर्थों के दर्शन करने लोग बहुत कष्ट उठाकर, बहुत पैसा लगाकर जाते हैं और दर्शन करने के उपरातं बहुत संतोष अनुभव करते हैं। कहते हैं, हमारे भाग्य में ऐसा सुअवसर लिखा था जिसके अनुसार अमुक तीर्थ या देव-प्रतिमा के दर्शन हो सके। इसी प्रकार किसी संत, महात्मा, विद्वान या महापुरुष को देखने के लिए भी लोग दौड़-दौड़कर जाते हैं और समझते हैं कि दर्शन का पुण्यफल उन्हें प्राप्त हो गया। हमारे देश में यह मान्यता बहुत गहराई तक जड़ जमाए बैठी है। दर्शन के लाभ के सबंध में लोगों की मान्यता चरम-सीमा तक पहुँच गई है। कितने ही लोग तो कल्याण का एकमात्र उपाय दर्शन को ही मान लेते हैं। कुंभ के मेले में लाखों व्यक्ति इसलिए जाते हैं कि वहाँ जाने पर तीर्थ-स्नान के अतिरिक्त संत-महात्माओं के भी दर्शन होंगे, जिससे उनके पाप कट जाएँगे और पुण्य लाभ मिल जाएगा।
अति न की जाए
महात्मा गाँधी के दर्शनों के लिए लाखों व्यक्ति पहुँचते थे। जिधर से वे निकलते थे, उधर के स्टेशनो पर भारी भीड़ जमा होती थी और दर्शन के लिए आग्रह करती थी। दिनभर के कठोर श्रम से थके होने पर रात को वे गाड़ी में सो रहे होते थे तो भी लोग उन्हें जगाने और दर्शन देने का आग्रह करते थे। उन्हें विश्राम न मिलने से कष्ट होगा, बीमार पड़ जाएँगे, जैसी बातों की उन्हें परवाह नहीं होती थी, हर हालत में उन्हें दर्शन चाहिए ही। बेशक लोगों के दिल में महात्मा गाँधी के प्रति श्रद्धा भावना भी थी, पर साथ ही दर्शन से पुण्य मिलने का लोभ भी कम न था। यदि श्रद्धा मात्र ही रही होती और उसके साथ विवेक का नियंत्रण भी रहता तो कठोर काम से थके हुए एक वयोवृद्ध परमार्थी सत्पुरुष को रात्रि में जगाने का आग्रह क्यों किया जाता? ऐसी दशा में लोग अपनी श्रद्धा को अंतःकरण तक भी सीमित रख सकते थे और बिना दर्शन पाए भी उसका काम चला सकते थे, पर जब दर्शनों का पुण्यलाभ ही लेना ठहरा तो किसी को कष्ट होगा, बीमार पड़ जाने का खतरा रहेगा, इसकी चिंता करने की क्या आवश्यकता समझी जाए?
यह दर्शन के पुण्य फल संबंधी मान्यता की अति है। अति की सीमा पर पहुँचकर अमृत भी विष बन जाता है। श्रद्धा जब विवेक की सीमाओं का उल्लंघन करती है, तब वह अंध-श्रद्धा कहलाती है और उससे लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। श्रद्धा जहाँ आत्मा को ऊँचा उठाती है ईश्वर तक ले पहुँचती है, वहाँ अंध-श्रद्धा मनुष्य को अविवेक अनाचार एवं अधःपतन के गर्त में धकेल देती है। अंध-श्रद्धा का शोषण करके अगणित धूर्त लोग बेचारी भोली जनता का बुरी तरह शोषण करते रहते हैं। यह शोषण दोनों पक्षों के लिए अहितकर है। शोषक अधिकाधिक दुष्टता पर उतारू होता है और शोषित दिन-दिन दीन-हीन बनता चला जाता है। इसलिए शास्त्रों में जहाँ श्रद्धा की प्रशंसा है, वहाँ अंध-श्रद्धा की भर्त्सना भी कम नहीं की गई है। दर्शनों का लाभ बहुत है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता, पर जब उसके संबंध में इतना अति उत्साह बरता जाए जो अंध-श्रद्धा तक जा पहुँचे तो यही मानना चाहिए कि अब इससे लाभ कम और हानि अधिक होने की संभावना है।
दर्शन वह प्रथम प्रयास है जिससे किसी विषय की जानकारी मिलती है। जानकारी से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से उसका तथ्य समझने के लिए उत्साह बढ़ता है। तथ्य को अपनाने का प्रयत्न करने पर वह अभ्यास में आता है। अभ्यास परिपक्य होने पर उस विशेषता के कारण अभीष्ट लाभ मिलता है। दर्शन का लाभ इतनी मंजिलें पार करने पर फलित होता है। यह सोचना सही नहीं है कि देखने भर से अभीष्ट उद्देश्य प्राप्त हो जाएगा।
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