नई पुस्तकें >> गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रिया गायत्री और उसकी प्राण प्रक्रियाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री का तत्त्वज्ञान और अवगाहन
गायत्री उपासना का बड़ा महत्त्व एवं महात्म्य है। उसे आत्मकल्याण और बाह्य जीवन में अपरिमित-विभूतियाँ प्राप्त करने का आधार बताया गया है। आत्म-शक्ति बढ़ाने से मनुष्य की भौतिक प्रतिभा का बढ़ना स्वाभाविक है। आत्म-शक्ति बढ़ाने के लिए उच्चतम चरित्र और व्यवस्थित जीवन-क्रम की तो आवश्यकता है ही, साथ ही गायत्री उपासना जैसी तपश्चर्याओं को भी इस सन्दर्भ में अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझना चाहिए। आत्म-बल अभिवर्धन के लिए जिन उपासनाओं का प्रतिपादन किया गया है उनमें गायत्री सर्वश्रेष्ठ है।
उपासना से पूर्व गायत्री का तात्त्विक स्वरूप जानना आवश्यक है। वस्तुस्थिति को जाने बिना कार्य करने लगना एक प्रवंचना मात्र है, उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसलिए साधना मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने मार्ग की दिशा एवं तात्त्विकता को भी समझना चाहिए अनजान रहने पर न तो पूरा विश्वास होता और न पक्की श्रद्धा जमती है। अज्ञान एक अन्धकार है जिसमें पग-पग पर आशंका की सम्भावना बनी रहती है। ऐसी मन:स्थिति में आध्यात्मिक सफलता का पथ कण्टकाकीर्ण ही बना रहता है।
रामायण में कहा गया है-
जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ किमि प्रीती।।
प्रीति बिना किमि भक्ति दृढ़ाई। जिहि खगेश जल की चिकनाई।।
आवश्यक जानकारी के बिना प्रतीति अर्थात् विश्वास में दृढ़ता नहीं आती। जब प्रतीति (विश्वास) ही परिपक्व नहीं तो प्रेम, लगन, निष्ठा, तत्परता कैसे उत्पन्न हो। जब सच्ची प्रीति ही नहीं तो भक्ति किस बात की। पानी में थोड़ी सी चिकनाई (तेल) डालने पर वे परस्पर मिलते नहीं। तेल ऊपर ही तैरता रहता है, उसी प्रकार वस्तुस्थिति का सम्यक ज्ञान हुए बिना उपासना क्रम अन्त:करण में गहरा प्रवेश नहीं हो पाता। अस्थिर मति और भक्ति-रहित अन्त:स्थिति से किया हुआ पूजा-पाठ कोई विशेषु फलप्रद नहीं होता, इसलिए मनीषियों ने साधना के लिए जितना बल दिया है उतना ही उसका तत्त्वज्ञान जानने के लिए भी कहा गया है। ज्ञान की उपेक्षा कर केवल कर्मकाण्ड करते रहने से अभीष्ट प्रयोजन पूरा नहीं होता।
इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये ‘शतपथ ब्राह्मण’ में एक मार्मिक उपाख्यान का उल्लेख मिलता है। राजा जनक तो गायत्री उपासना से पूर्णता को प्राप्त कर सके, पर उनका पुरोहित जो उनसे भी अधिक पूजा-पाठ में संलग्न रहता था उसे कुछ भी फल प्राप्त न हुआ वरन् पशु की योनि में चला गया।
कण्डिका इस प्रकार है-
एतद्धवै तजनकोवैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो तद् गायत्री विदब्रूथा अथ कथऽ हस्तीभूतो वहसीति मुखऽह्यस्याः सम्राण्न। विदाञ्चकारेति होवाच वस्या अग्निरेव मुखं यदि हवाऽअपि बह्वि। वाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्सन्दहत्येवं हैवैवं विद्यद्यपि बह्निव पापं कुरुते सर्वमेव तत् संप्साय शुद्धः पूतोऽजरोमृतः संभवति।
अर्थात्- राजा जनक के पूर्व जन्म के पुरोहित ‘बुडिल' मरने के उपरान्त अनुचित दान लेने के पाप से हाथी बन गये, किन्तु राजा जनक ने विशिष्ट तप किया और उसके फल से पुनः राजा हुए। राजा ने हाथी को उसके पूर्व जन्म का स्मरण दिलाते हुए कहा- आप तो पूर्व जन्म में कहा करते थे कि- मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ ? फिर अब हाथी बनकर बोझ क्यों ढोते हैं।
हाथी ने कहा- मैं पूर्व जन्म में गायत्री का मुख नहीं समझ पाया था। इसलिए मेरे पाप नष्ट न हो सके।
गायत्री का प्रधान अङ्ग-मुख अग्नि है। उसमें जो ईंधन डाला जाता है, उसे अग्नि भस्म कर देती है। वैसे ही गायत्री का मुख जानने वाला-आत्मा-अग्निमुख होकर पापों से छुटकारा पाकर अजर-अमर हो जाता है।
मुख से तात्पर्य तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण में आवश्यक जानकारी से है। ज्ञान को मुख से कहा जाता है। गायत्री को 'गुरु मंत्र' कहते हैं। गुरु मंत्र से उस मंत्र का प्रयोजन है, जो विस्तारपूर्वक विवेचना के साथ शिष्य के मस्तिष्क एवं अन्त:करण में उतारा जाय। स्पष्ट है कि इस महाविद्या की उपासना करना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसका आवश्यक विवेचन, विश्लेषण भी हृदयङ्गम करना आवश्यक है।
गायत्री क्या है? इस संबंध में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ कहा है। विश्व-ब्रह्माण्ड के निर्माता, संचालक एवं नियामक परब्रह्म परमात्मा की चेतना एवं क्रिया-शक्ति का नाम 'गायत्री' है। उसके साथ जिस वैज्ञानिक विधि के साथ सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है उसका नाम 'उपासना' है। गायत्री उपासना-अर्थात् वह क्रिया जिसके द्वारा मनुष्य अपनी अन्त:चेतना को परा-शक्ति के साथ जोड़कर ब्रह्मवर्चस के अनुपम लाभ का अधिकारी बनता है।
गायत्री क्या है ? कैसे उत्पन्न हुई? उसका प्रयोजन तथा स्वरूप क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार मिलता है-
सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवि। साब्रवीदहं ब्रह्मरूपिणी, मत्तः प्रकृति पुरुषात्मकं जगदुत्पन्नम्।।
सब देवगण भगवतीं महाशक्ति के पास गये और उन्होंने पूछा- "हे भगवती आप कौन हैं? इस पर भगवती ने कहा-मैं ब्रह्मरूपिणी हूँ। मुझसे ही यह प्रकृति पुरुपात्मक संसार हुआ है।"
स वै नैव रेमे। तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमैच्छत्। स है तावानास यथा स्त्रीपुमासौ संपरिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः पतिश्च पली चाभवताम्।
वह रमण नहीं कर सका क्योंकि अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसने दूसरों की इच्छा की। वह ऐसा था जैसे स्त्री-पुरुष मिले हुए होते हैं। उसने अपने इस रूप के दो भाग किये, जो पति और पत्नी हो गये।
न हि क्षमस्तथात्मा च सृष्टिं स्रष्टुं तया बिना।
बिना तुम्हारी शक्ति के आत्मदेव सृष्टि की रचना नहीं कर सकते।
देवी ह्येकाग्र आसीत् सैव जगदण्डमसृजत् ...... तस्या एव ब्रह्मा अजीजनत्। विष्णुरजीजनत् ........ सर्वमजीजनत् .......... सैषाऽपराशक्तिः।।
सृष्टि के आरम्भ में वह एक ही दैवी शक्ति थी। उसी ने ब्रह्माण्ड बनाया, उसी में ब्रह्मा उपजे। उसी ने विष्णु रुद्र उत्पन्न किये। सब कुछ उसी से उत्पन्न हुआ। ऐसी है वह पराशक्ति।
कारणत्वेन चिच्छक्त्या रजस्सत्वतमोगुणैः।
यथैव वटबीजस्थः प्राकृतोऽयं महाद्रुमः।।
वटबीज में जिस प्रकार महावृक्ष सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहता है और उत्पन्न होकर एक महावृक्ष के रूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही प्राकृत ब्रह्माण्ड चित्-शक्ति से उत्पन्न होता है।
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत् किञ्चन मिषत्।
सृष्टि से पहले आत्म-शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ न था।
आसीदेवेदमग्र आसीत् तत्सम भवत्।।
सृष्टि से पहले चित्-शक्ति ही सूक्ष्म सत्ता से विराजमान रहती है।
निर्दोषो निरविष्ठेयो निरवद्यः सनातनः।
सर्वकार्यकरी साहं विष्णोरव्ययरूपिणः।।
वह ब्रह्म तो निर्विकार, निरविष्ठ, निरवद्य, सनातन एवं अव्यय है। उनकी सर्वकारिणी शक्ति तो मैं ही हूँ।
परमात्मनस्तु लोके या ब्रह्मशक्तिर्विराजते।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते॥
वह सब लोको में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं सतोगुणी प्रकृति में निवास करती है। वह चेतनशक्ति गायत्री हैं।
निर्दोषो निधिष्ठेयो निरवद्यस्सनातनः।
विष्णुर्नारायणः श्रीमान् परमात्मा सनातनः।।
षाड्गुण्यविग्रहो नित्यं परं ब्रह्माक्षरं परम्।
तस्य मां परमां शक्तिं नित्यां तद्धर्मधर्मिणीम्॥
सर्वभावानुगां विद्धि निर्दोपामनपायिनीम्।
सर्व कार्य करी साहं विष्णोरध्ययरूपिणः।।
व्यापारस्तस्य साहमस्मि न संशयः।
मयाकृतं हि यत्कर्म तेन तत्कृतमुच्यते।।
मैं नित्य, निर्दोष, निरवयव, परब्रह्म परमात्मा श्री मन्नारायण की शक्ति हूँ। उनके सब कार्य मैं ही करती हैं। इस सृष्टि का संचालन करने वाला जो ब्रह्म कहा जाता है उसकी परम शक्ति मैं ही सदैव उन कार्यों की पूर्ति किया करती हूँ, मैं उनकी व्यापार रूप हैं। अतएव मैं जो कार्य करती हैं। वह उन्हीं का किया हुआ कहा जाता है।
उपरोक्त प्रमाणों से यही प्रकट होता है कि अचिन्त्य निर्विकार परब्रह्म को जब विश्व रचना की क्रीड़ा करना अभीष्ट हुआ तो उनकी वह। आकांक्षा शक्ति के रूप में परिणत हो गई। वह शक्ति जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त होकर परा-अपरा प्रकृति कहलाई उसी का नाम गायत्री सावित्री पड़ा। यह महाशक्ति ही सृष्टि निर्माण के लिए सभी आवश्यक उपकरण जुटाती और उनका निर्माण, विकास एवं विनाश प्रस्तुत करती है। इस दृश्य जगत् में जो कुछ विद्यमान है वह उसी महाशक्ति का स्वरूप है। उसमें जो परिवर्तन हो रहे हैं उपक्रम चल रहे हैं उनके पीछे उसी महान् शक्ति की सामर्थ्य सक्रिय है। ब्रह्म तो साक्षी दृष्टा है। उसका समस्त क्रियाकलाप इस गायत्री महाशक्ति द्वारा ही परिचालित हो रहा है। प्रमाण देखिये-
स्पन्दशक्तिस्तथेच्छेदं दृश्याभासं तनोति सा।
साकारस्य नरस्येच्छा यथा वै कल्पना पुरम्।।
"भगवान् की स्पन्द-शक्ति रूपी इच्छा उसी प्रकार इस दृश्य जगत् का प्रसार करती है जैसी कि मनुष्य की इच्छा कल्पना नगरी का निर्माण कर लेती है।
तत्सद् ब्रह्मस्वरूपा त्वं किंचित्सदसदात्मिका।
परात्परेशी गायत्री नमस्ते मातरम्बिके॥
इस संसार में जो कुछ सत्-असत् है, वह सब हे ब्रह्मस्वरूपा गायत्री! तुम्हीं हो, परा और अपरा शक्ति गायत्री माता आपको प्रणाम है।
गायत्री वा इदं सर्वं भूतं यदिदं किञ्च।
जो कुछ था और जो कुछ है अर्थात् यह समस्त विश्व गायत्री रूप है।
उपरोक्त वाक्य के सन्दर्भ में भगवान् शङ्कराचार्य ने लिखा है-
गायत्रीद्वारेण चोच्यते ब्रह्म, सर्वविशेषरहितस्य नेतिनेतीत्यादि विशेषप्रतिषेधगम्यस्य दुर्बोधत्वात्।
‘‘जाति गुणादि समस्त विशेषणों से रहित अर्थात् निर्विशेष होने के कारण ब्रह्म केवल निषेध मुख से ही सम्यग्रूपेण जाना जाता है, अत: वह दुर्विज्ञेय है। उसी को सर्व साधारण के लिए सुलभ करने की भगवती श्री गायत्री द्वारा संविशेष ब्रह्म का उपदेश करती है।"
अपरविद्यागोचरं सर्वं परिसमाप्य संसार व्याकृतविषयं साध्यसाधन लक्षणं अनित्यम्।
“पराविद्या से असाध्य विषय भी साध्य हो जाता है, अन्तरङ्ग का ज्ञान कराती है, अतीन्द्रिय विषयों को प्रत्यक्ष कर देती है, अविनाशी, अक्षर सत्य और भगवत् स्वरूप है।"
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते।
स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च।।
उसे परमेश्वर की पराशक्ति, ज्ञान, बल, क्रिया युक्त विभिन्न प्रकार की सुनी गई है।
विभिन्न स्तर की विभिन्न रूपों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए जो भी सक्रियता एवं सामर्थ्य दृष्टिगोचर होती है वह गायत्री का ही स्वरूप है। जो कुछ भी सिद्धियाँ, विभूतियाँ, समृद्धियाँ इस संसार में दृष्टिगोचर हो रही हैं वे सामर्थ्य का ही प्रतिफल है। यह समर्थता चेतन प्राणियों में तो है ही, जड़ कहे जाने वाले परमाणुओं में भी उतनी ही सक्रिय है। इलेक्ट्रोन, प्रोट्रोन, नाइट्रोन आदि अणु घटक अपनी धुरी तथा कक्ष में भ्रमण करते हैं। ग्रहनक्षत्र अपने यात्रा पथ पर भ्रमण करते हैं तथा पंच तत्त्वों से विनिर्मित विभिन्न पदार्थ अपनी परम्परा के अनुरूप विधि व्यवस्था में-क्रमबद्ध मर्यादाओं में बँधकर सृष्टि का निर्धारित क्रम चलाते रहते हैं। यह खेल उसी महत-तत्त्व का है जिसे ब्रह्म की स्फुरणा अथवा गायत्री के नाम से अध्यात्मवादी शब्दावली में स्थान दिया गया है।
इस महाशक्ति से हम जितने ही असम्बद्ध रहते हैं उतने ही दुर्बल होते जाते हैं। जितने-जितने उसके समीप पहुँचते हैं, सान्निध्य लाभ लेते हैं, उपासना करते हैं, उतना ही अपना लाभ होता है। अग्नि के जो जितने समीप पहुँचता है उसे उतनी ही अधिक गर्मी मिलती है, जो जितना दूर रहता है। उसे उतना ही उस लाभ से वंचित रहना पड़ता है। इसलिए उस महाशक्ति का सान्निध्य लेकर अधिक बल प्राप्त करें यही उचित है।
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