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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगांतरीय चेतना

गायत्री की युगांतरीय चेतना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15483
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना के समाज पर प्रभाव

युग शक्ति के रूप में गायत्री चेतना का अरुणोदय


यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थों की कमी नहीं है और उनका सदुपयोग करके वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ करता है किन्तु उसकी असीम सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा। व्यक्ति की महिमा को बाहर भी देखा जा सकता है पर गरिमा का पतां लगाना हो तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा। इस अन्तरंग को समझने, उसे परिणत एवं समर्थ बना, जागृत अन्त-क्षमता का सदुपयोग कर सकने के विज्ञान को ही ब्रह्मविद्या कहते हैं। ब्रह्मविद्या के कलेवर का बीज-सूत्र गायत्री को समझा जा सकता है। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के अन्तराल में प्रवेश पा सकने वाली और बही जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में उखाड़ लाने की सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं। नवयुग के सृजन में सर्वोपरि उपयोग इसी दिव्य शक्ति का होगा।

मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त है पर व सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता, शिक्षा, प्रतिभा, पदवी, अधिकार जैसे साधन ही बैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं। इतने पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जातीं वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है। यदि बाहरी अवरोध उठ खड़े ही परिस्थितियाँ प्रतिकूलता की दिशा में उलट पड़ें तो साधन और कौशल अपंग बनकर रह जाते है और असफलता का मुँह देखना पड़ता है। आत्मशक्ति के साथ जुड़ा हुआ वर्चश् भौतिक साधनों की तुलना में अत्यधिक होना सुनिश्चित है उसमें न तो असीमता का बन्धन है न ही स्वल्पता का असन्तोष। उस क्षेत्र में प्रचुरता असीम है। आत्मा का सम्बन्ध सूत्र परमात्मा के साथ जुड़ा होने के कारण आवश्यकतानुसार उस सोत से बहुत कुछ, सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

कुएँ में सीमित पानी भरा रहता है पर खींचने पर जो कमी पड़ती है उसे भूमिगत जलसोत सहज ही पूरी करते रहते हैं। चिनगारी छोटी होती है, पर ईधंन जैसे साधन मिलते ही उसे दावानल का विकराल रूप धारण करने में देर नहीं लगती। व्यापक अग्नि तत्वों का सहयोग मिलने का ही चमत्कार है। नदी की धारा सीमित होती है, उसमें थोड़ा-सा जल बहता है पर हिमालय जैसे विशाल जलश्रोत के साथ तारतम्य जुड़ा होने के कारण वह अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित ही बनी रहती है जबकि पोखर का पानी अपने तक ही सीमित रहने के कारण उपयोग कर्त्ताओं का, धूप-हवा का दबाव सह नहीं पाता और जल्दी ही सूखकर समाप्त हो जाता है। भौतिक सामर्थ्य की तुलना पोखर के पानी से की जा सकती है और आत्मिक शक्तियों को हिमालय से निकलने वाली नदियों के समतुल्य समझा जा सकता है।

भौतिक पदार्थ परिवर्तनशील हैं। इस जगत का सारा क्रम ही उतार-बढ़ाव के गतिचक्र पर परिप्रमण करता है। यहाँ अणु से लेकर सूर्य तक सभी गतिशील हैं वे चलते, बढ़ते और बदलते हैं। स्थिरता दीखती भर है, वस्तुतः है नहीं। पदार्थ का स्वभाव ही परिवर्तन है। जन्म और मरण से कोई बच नहीं सकता। इसी प्रकार स्थिरता के लिए भी कहीं कोई गुञ्जायश नहीं है। शरीर शैशव से यौवन तक बढ़ता तो है पर वृद्धता और मरण भी उतने ही सुनिश्चित है। शिक्षा और अनुभव के सहारे बुद्धि-वैभव बढ़ता है, परन्तु यह भी निश्चित है कि आयु आधिक्य के साथ-साथ स्मरण शक्ति से लेकर कल्पना और निर्णय के काम आने वाले बुद्धि संस्थान के सभी घटक अशक्त होते चले जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब एक समय का बुद्धिमान दूसरे समय गतिहीन माना जाता है और 'सठियाने' से तिरस्कार का भाजन बनता है। वृद्धावस्था की आवश्यकता और रुग्णता से तो सभी परिचित हैं। बुद्धिबल की तरह इन्द्रियबल भी ढलान के दिन आने पर क्रमश: घटता ही चला जाता है। विभूतियाँ दुर्बल का साथ छोड़ देती हैं, तब पदाधिकार को हस्तगत किये रहना तो दूर गृहपति का पद भी नाम मात्र के लिए ही रह जाता है।

परिवार का संचालन कमाऊ लोगों के हाथ में चला जाता है। किसी समय का गृहपति इन परिस्थितियों में मूकदर्शक और कुछ करने बदलने में अपने को असहाय ही अनुभव करता है। राजनैतिक क्षेत्र में बूढ़े नेताओं को हटाने का जो आन्दोलन चल रहा है उसके पीछे यह अशक्तता के तत्व ही काम करते दिखाई पड़ते हैं।

साधनों का भी यही हाल है। धन उपार्जन से मिलने बाली सफलताएं बड़े हुए खर्च के छेद से होकर टपकती रहती है और संग्रह का भण्डार अपूर्ण ही बना रहता है फिर उपार्जन की कमी एब खर्च की वृद्धि के असंतुलन भी आते रहते है। न तो अमीरी स्थिर है न गरीबी। ऐसी दशा में धन के आधार पर बनने वाली योजनाएँ भी अस्त-व्यस्त बनी रहती हैं। अर्थ साधनों के उपयोग कर्त्ता यदि प्रमादी या दुर्बुद्धिग्रस्त हुए तो सम्पत्ति का दुरुपयोग होता है और उससे उलट कर विग्रह-संकट ही उठ खड़ा होता है।

प्रत्यक्ष सब कुछ दीखने वाले भौतिक साधनों की समीपता, अस्थिरता, अनिश्चितता को देखते हुए उनके द्वारा जो सफलताएं मिलती हैं उन्हें भाग्योदय जैसी आकस्मिकता ही माना जाता है। सांसारिक सफलताओं तक के सम्बन्ध में उनके सहारे अभीष्ट मनोरथ पूरा हो सकने की आशा भर लगाई जा सकती है। बिश्वास नहीं किया जा सकता। जब सामान्य प्रयोजनों तक के सम्बन्ध में इतना असमंजस है तो युग परिवर्तन जैसे कल्पनातीत विस्तार वाले असीम शक्ति-साधनों की आनस्पकता वाले महान कार्य को उस आधार पर कैसे सम्पन्न किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि हर दृष्टि से समर्थ समझी अल्प, वाली सत्ताएँ अपने सखदाय को व्यापक बनाने जैसा छोटा मनोरथ पूरा न कर सकीं।

इस्लाम और फिस्वियेनिटी के बिस्तार के लिए आतुर सत्ताधारी हर सम्भव उपाय अपनाने पर भी बहुत थोड़ी सफलता पा सके हैं। ऐसी दशा में यह सोचना हास्यास्पद ही होगा कि भौतिक साधनों के बलबूते शालीनता का विश्वव्यापी वातावरण बनाया जा सकना शक्य है। अधिनायक वादियों ने अपने देशों की समूची शक्ति सामर्थ्य मुट्‌ठी में करके परिवर्तन के जो सपने देखे थे, उनकी आंशिक पूर्ति भी नहीं हो पाई है। जर्मनी, इटली, स्तर, चीन आदि में साधनों के आधार पर परिवर्तन के प्रयोग बड़े पैमाने पर हुए हैं। उचित से लेकर अनुचित तक सब कुछ उस महत्वाकांक्षा के लिए बरता गया है। पर्यवेक्षक जानते हैं कि इन प्रयत्नों में कितनी सफलता मिली। जो मिली वह कितनी देर ठहर सकी। जो ठहरी हुई है वह कितने समय टिक सकेगी और प्रयोजनों का मनोरथ कितना पूरा कर सकेगी इसमें अभी भी पूरा-पूरा सन्देह है।

भौतिक प्रगति के लिए जो प्रयत्न और प्रयोग चलते रहते हैं जो सरंजाम खड़े होते है उनमें प्रचुर परिमाण में शक्ति लगानी पड़ी। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, चिकित्सा, शांति, सुरक्षा, धर्म-धारणा जैसे कार्यों में कितनी साधन-शक्ति लगती है उसका परिमाण और विस्तार देखते हुए हतप्रभ रह जाना पड़ता है। इतने पर भी शान्ति और प्रगति की समस्या का आंशिक हल ही हो पाता है। साधनों के अभाव का असमंजस सदा ही बना रहता है। योजनाएँ स्थगित होती रहती है। जब बाह्य सुविधा संवर्धन का उद्‌देश्य प्रस्तुत शक्ति-साधनों के सहारे पूरा होने में इतनी कठिनाई है तो जनमानस का परिष्कार और वातावरण के परिवर्तन जैसा विशाल कार्य इतने भर से किस प्रकार पूरा हो सकेगा? यह ठीक है कि नवनिर्माण के लिए भौतिक साधनों की भी आवश्यकता है और उन्हें जुटाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करने होगे, पर उन्हें आधार मानकर नहीं चला जा सकता। कोई भौतिक योजना चाहे वह कितनी ही बड़ी और कितने ही अधिक साधनों पर अवलम्बित क्यों न हो इतने महान, इतने व्यापक उद्‌देश्य को पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो सकेगी।

परिवर्तन व्यक्ति के अन्तराल का होना है दृष्टिकोण बदला जाना है आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांक्षाओं का प्रवाह मोड़ा जाना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है, आत्मज्ञान कराना और आत्म-गौरव जगाना है-यही है युग परिवर्तन का मूलभूत आधार। आंतरिक परिष्कार की प्रक्रिया ही व्यक्ति को उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारे प्रयास-पुरुषार्थ अन्तर्जगत से सम्बन्धित हैं, इसीलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त सिद्ध हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्म शक्ति का ही है, उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाता है। युग निर्माण के लिए इसी ऊर्जा का उपार्जन आधारभूत काम' समझा जा सकता है। ऐसा काम जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्हीं दिनों है।

आत्मशक्ति का उत्पादन जिन यन्त्रों द्वारा जिन कारखानों में किया जाता है उसे व्यक्ति-चेतना ही नाम दिया जा सकता है। मानवी अन्तःकरण को अथ ऊर्जा उत्पादन केन्द्र के समतुल्य माना जा सकता है। शरीर तो अवतरण मात्र है इसकी तुलना आयुध, औजार, वाहन आदि से ही की जाती है। उसमें कितना कुछ हो सकता है? इसे श्रमिक से लेकर पहलवान तक की तुच्छ सफलताओं को देखते हुए जाना जा सकता है। बुद्धिपटल इससे ऊँचा है। वह भी तथाकथित व्यवहार कुशल बुद्धिमानों से लेकर शोधकर्त्ताओं की सीमा तक पहुँचकर समाप्त हो जाता है। उस आधार पर व्यक्ति की उन्नति और समाज की सुविधा कुछ न कुछ तो बढ़ती ही है, पर उतने भर से व्यापक परिवर्तनों की आशा नहीं की जा सकती। पैसा महाशय तो जैसे कुछ हैं वैसे ही है उसके सहारे लम्बी योजनाएँ बनाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि वे जिनके हाथ में रहेगे, उन्हें नैतिक दृष्टि से जीवित भी छोड़ेगे या नहीं। सार्वजनिक उपयोग में आने से पहले वे प्रयोगकर्त्ताओं को भी लुभाते और उन्हीं में अटक कर रह जाते हैं। लोकमंगल के लिए बनी सरकारी योजनाओं के लिए निश्चित की गई धनराशि का कितना अंश अभीष्ट प्रयोजन में लगता है और कितना बिचौलिए हड़प जाते हैं, यह कौतुक हर किसी को पग-पग पर देखने के लिए मिलता रहता है। ऐसी दशा में युग निर्माण के लिए उस शक्ति का संचय कर लेने पर भी क्या कुछ प्रयोजन पूरा हो सकेगा? इसमें पूरा सचेत है।

आत्मिक क्षेत्र की योजनाएँ आत्मशक्ति के उपार्जन और नियोजन से ही सम्भव हो सकेगी। मनुष्य के अन्तराल में सन्निहित ज्ञात और अविज्ञात शक्तियों की समर्थता और संभावना असीम है, उसे अनन्त कहा जाये तो भी अत्युक्ति न होगी। मनःशास्त्री बताते हैं कि मानवी मस्तिष्क अद्‌भुत है उसकी सुविस्तृत क्षमता में से अभी तक मात्र सात प्रतिशत को ही जाना जा सका है। इसमें से जो लोग मात्र एक या दो प्रतिशत का उपयोग कर लेते हैं वे मनीषियों और तत्वदर्शियों में गिने जाते हैं, पर

मनोविज्ञान द्वारा अतीन्द्रिय क्षमताओं की जो जानकारी मिल रही है उससे पता चलता है कि मानवी मस्तिष्क सचमुच ही जादुई तिलस्म है उसे भानुमती का पिटारा, विलक्षणताओं का भण्डार बताया जाता रहा है। बात वैसी ही है, मस्तिष्क की मात्र सचेतन परत को उभारने और उपयोग कर सकने में समर्थ व्यक्ति कालिदास-वरदराजाचार्य जैसी भूमिकाएँ निभा सकते है। अचेतन परतों का कहना ही क्या? वे ही व्यक्तित्वों के निर्माण और विकास के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं। वर्तमान और भविष्य की ढलाई इसी टकसाल के अन्तर्गत होती है। कर्मलेख, भाग्य विधान, विधि के अंक, चित्रगुप्त का आलेखन कहाँ होता है? इसका स्पष्ट संकेत मस्तिष्क के सुनियोजित दफ्तर की ओर हीं होता है।

अतीन्द्रिय क्षमताओं को ही ऋद्धियों और सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। यह कहीं आसमान से नहीं उतरतीं और न किसी देवी-देवता द्वारा उपहार में दी जाती है वे निश्चित रूप से अपने ही अन्तराल की उत्पत्ति होती हैं। धरती की परतें खोजते जाने और गहरे उतरते जाने पर बहुमूल्य खनिज सम्पदा प्राप्त होती है। समुद्र में गहरी डुबकी लगाकर गोताखोर मोती समेट कर लाते हैं। मानवी अन्तराल भी भक्तिसिद्धियों का अनूठा भण्डार है। परमात्मा का अंश होने के कारण आत्मा में उसकी सभी क्षमताएँ और विशेषताएँ बीज रूप में विद्यमान हैं। अन्तर आकार भर का है। सौर मण्डल और ब्रह्माण्ड परिवार की संरचना और गति व्यवस्था में मात्र आकार का हो अन्तर है। तत्व और तथ्य दोनों में एक ही स्तर के है। समूचा मनुष्य छोटे से शुक्राथ में छिपा बैठा होता है। वृक्ष की विशालता और विशेषता बीज के छोटे से कलेवर में भी पाई जाती है। परमात्मा में जो कुछ है वह सब प्रसुप्त रूप से आत्मा की छोटी सत्ता में उसी प्रकार विद्यमान है, जैसे विशाल ग्रन्ध के सहसों पृष्ठ छोटी-सी माइक्रो-फिल्म पर अंकित कर लिए गये हों।

सर्व समर्थ परमात्मा के छोटे घटक आत्मा की मूर्छना को जागृति में बदल देने की प्रक्रिया अध्यात्म साधना है और अध्यात्म साधना के विभिन्न विधि-विधानों में गायत्री उपासना को ही सर्वश्रेष्ठ और सुलभ माना गया है। आदिकाल से लेकर अद्यावधि में उस महाविज्ञान के सम्बन्ध में अनुभवों और प्रयोगों की विशालकाय सृंखला जुडती चली आई है। प्रत्येक शोध में उसकी नित्य नित्य नूतन विशेषताएँ उभरती चली आई हैं। प्रत्येक प्रयोग में उसके अभिनव शक्ति श्रोत प्रकट होते रहते हैं।

व्यक्ति का बहिरंग-भौतिक पक्ष सामान्य है। असामान्य तो उसका अन्तराल ही है। उस रहस्यमय क्षेत्र के विशिष्ट उपादनों में गायत्री का कृषि बिज्ञान आशाजनक सफलताएँ प्रस्तुत करता है। नवयुग के व्यक्ति को आत्मिक सम्हाओं से सुसम्पन्न बनाना है। धरती पर स्वर्ग के अवतरण में आत्मिक विभूतियों की ही सुसम्पन्नता का विस्तार होगा, भाव सवेदनाओं की उत्कृष्टता ही मनुष्य में देवत्व का उदय करेगी और इसी उत्पादन के बलबूते इस संसार में स्वर्गीय परिस्थितियों का बाहुल्य और दिव्य शक्तियों का वर्चस्व स्थापित हो सकेगा। इस कार्य में गायत्री के तत्वज्ञान और साधना विधान का अनुपम योगदान होगा। अस्तु उसे युग शक्ति गायत्री के रूप में समझा और अपनाया जाना उचित ही माना, जायेगा।

युग परिवर्तन अपने समय का सुनिश्चित तध्य है। इस विश्व उद्यान का सूजेता अपनी इस अनुपम कलाकृति को इस तरह नष्ट-अष्ट होने नहीं देना चाहता। जिस तरह वह इन दिनों विनाश के गर्त में गिरने के लिए हुत गति से बढ़ती जा रही है। मनुष्य उसके वर्चश् और वैभव का प्रतीक है। सारा कौशल एकत्रित करके उसे बड़े अरमानों के साथ बनाने वाले ने उसे बनाया है। सामूहिक आत्महत्या के लिए इन दिनों उसकी उतावली चल रही है। बुद्धि वैभव का भस्मासुर संस्कृति की पार्वती को हथियाने और शिव को मिटाने पर उतारू हो रहा हो तो ''यदा यदाहि धर्मस्य.....'' का आश्वासन अनेष्क्रियता नहीं अपनाये रह सकता। सन्तुलन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नियति को अपने नियमन का गतिचक्र चलाना ही था, सो वह इन्हीं दिनों हो रहा है। चर्मचक्षु ब्रह्ममुहूर्त के आगमन का आभास भले ही न लगा सकें किन्तु जिन्हें पूर्वाभास की स्वेदन शक्ति उपलब्ध है वे देखते हैं-निशा बीत गई और उषा की मुस्कान में अब बहुत देर नहीं है।

नवयुग के अवतरण का तथ्य विवादास्पद प्रसंग नहीं रहा। उसे अनिश्चित संभावना के रूप में लगभग प्रत्यक्ष ही अनुभव किया जा सकता है। खस की शक्तियों का सामना करने के लिए नव सृजन के कदम साहसपूर्वक उठ जायें तो सभी जानते है कि जीतेगा कौन? सत्य ही जीतता है असत्य नहीं। इस श्रुति वचन में सृष्टि की शास्वत परम्परा का समावेश है। अन्धकार का सामंजस्य तभी तक सघन बन रहा है जब तक प्रकाश की किरणें प्रकट नहीं होतीं। जब विश्व चेतना की पुकार तमसु के प्रति अस्वीकृति और ज्योत की ओर गमन करने की आतुरता व्यक्त कर रही हो तो फिर नव प्रभात का अवतरण सुनिश्चित तथ्य ही माना जाना चाहिए।

युग परिवर्तन में यों सदा ही विकृतियों का निराकरण और सतवृत्तियों का संस्थापन होता है पर रोग और उपचार की मित्रता प्रायः हर बार होती है। अतीत के पूर्व प्रसंगों में दुष्टता की उद्‌दण्डता ही विनाश के लिए उभरती रही है फलतः उसे निरस्त करने के लिए शासनधति भगवान अवतार ले रहे हैं। बाराह के दाँत नृसिंह के नख, परशुराम का फरसा, राम का धनुष कृष्ण का चक्र उस प्रसंग में सहज ही स्मरण हो आते है। इस बार दुष्टता का नहीं भ्रष्टता का उभार है, उसके लिए बुद्ध की परम्परा ही कारगर हो सकती है। अनय का निराकरण ज्ञान गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण के रूप में होगा। अगली बार का अवतार मतन्यरा प्रज्ञा के रूप में होगा। युग चण्डी का साक्षात्कार इन दिनों हम सब इसी रूप में करेगे। इस बार क्रियागत दुष्टता की जड़ कहीं अधिक गहरी है, वे विकार से भरकर आगे बढ़कर आस्थाओं के क्षेत्र तक को पकड़ चुकी हैं। उनकी जटिलता भ्रष्टता के रूप में प्रकटी है। इसका निराकरण अपेक्षाकृत अधिक कठिन है, इसलिए उपचार भी उतना हो प्रखर, उतना ही उच्चस्तरीय है। इस बार का अवतरण युग शक्ति गायत्री के रूप में है। दुष्टता से निपटने के लिए शस्त्र पर्याप्त हैं किन्तु प्रष्टता तो अदृश्य है। वह आकांक्षाओं और आस्थाओं की गहराई में जा घुसती है, उतनी ही गहरी डुबकी लगाकर छिपे चोर को ढूँढ निकालना और उलटकर निरस्त करना अपेक्षाकृत अधिक जटिल है। इतना व्यापक, इतना जटिल और इतना कठिन काम भगवती आद्यशक्ति ही कर सकती है। अज्ञानजन्य अनाचार प्रज्ञान प्रचण्ड आलोक का उदय हुए बिना और किसी तरह मिट नहीं सकता। इस बार महान् परिवर्तन को सम्पन्न करने के लिए ब्राह्मी शक्ति को स्वयं ही आना पड़ रहा है। पार्षदों से यह काम चलने वाला था नहीं।

हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए शक्ति चाहिए कोई भी छोटा-बड़ा यन्त्र शक्ति के बिना चलता नहीं। समष्टि तंत्र की तरह ही व्यक्ति तन्त्र का गतिशील रहना भी शक्ति को मात्रा पर ही निर्भर है। परिवर्तन कृत्यों में तो साधारण की अपेक्षा कहीं अधिक परिणाम में शक्ति की आबश्यकता पड़ती है। ध्वंस और निर्माण दोनों के लिए असाधारण साधन जुटाने होते हैं। संसार के महत्वपूर्ण परिवर्तनों के घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि उनके लिए प्रचुर परिमाण में साधन-शक्तिका, श्रम-शक्ति और चिंतन का उपयोग हुआ है। सामाजिक, आर्थिक एब राजनैतिक क्रांतियों को सबल बनाने के लिए समय-समय पर असाधारण सामर्थ्य का उपयोग होता रहा है। यदि वह साधन न जुटते तो लख की प्राप्ति हो ही नहीं सकती थी। इस बार की युग परिवर्तन रणस्थली जिस 'धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र की विस्तुत भूमि में फैली हुई है उसे लोकमानस कह सकते हैं। परिष्कार और परिवर्तन के सरंजाम उसी परिधि में खड़े किए जाने हैं। सेनापतियों के खेमे उसी भूमि में गढ़ रहे हैं। लक्ष्य जनमानस का परिष्कार है। प्रस्तुत समस्याएँ इतनी जटिल हैं कि उनका समाधान बाह्य उपचारों से किसी भी प्रकार सम्भव न होगा। चिन्तन का प्रदाह उलटे बिना विनाश की विभीषिका को विकास की संभावना में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। चिंतन की दिशाधारा को सुव्यवस्थित करने वाले दिव्य प्रकार को युगान्तर चेतना कहा जा सकता है। यही युग शक्ति गायत्री है। युग परिवर्तन का उद्‌गम श्रोत इसी को समझा जाना चाहिए। उसके क्रिया-कलाप अनेकों अवांछनीयताओं के लिए अंसात्मक और औचित्य के लिए सृजनात्मक क्रियाकलापों में देखे जा सकेगे।

यों मोटी दृष्टि से श्रम-साधन और प्रशिक्षण को ही सृजन और परिवर्तन का आधार समझा जाता है पर जो वास्तविकता को समझते हैं उन्हें ये मानने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि मानवी सत्ता का वास्तविक केन्द्र उनकी आस्था-आकांक्षाओं में है। आदर्शवादी परिवर्तनों के लिए इसी केद में उथल-पुथल करनी होती है अन्यथा बाहरी लीपापोती मुरझाये पत्तों पर जल छिड़कते फिरने की तरह उपहासास्पद ही बन जाती है। जड़ें सींचने से ही पत्ते की मुर्दनी दूर हो सकती है और जनमानस के गहरे अन्तराल में आदर्शवादी श्रद्धा का उपयोग करने से ही मनुष्य बदलता है और इस बदलने के फलस्वरूप ही गतिविधियों और परिस्थतियों में चिरस्थायी सुधार दृष्टिगोचर होता है। जिन्हें इस समस्या के समझने का अवसर मिल जायेगा उन्हें यह स्वीकार करते देर न लगेगी कि युग परिवर्तन में गायत्री तत्वज्ञान की असाधाण भूमिका किस प्रकार हो सकती है? युगदृष्टा-मनीघियों ने तध्य को देखा और सर्वसाधारण को सुझाया कि आस्था क्षेत्र से उपयोगी उभार उत्पन्न करने के लिए अवतरित हुई युग शक्ति गायत्री की प्रतिक्रिया को गम्भीरतापूर्वक समझें और श्रद्धापूर्वक अपनायें। समग्र परिवर्तन बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति तीन खण्डों में बँटा हुआ है इसे त्रिपदा की तीन धारायें कहा जा सकता है।

जनमानस का परिष्कार युग परिवर्तन का आधारभूत तथ्य है वह इसी रूप में परिलक्षित होगा। मनुष्य की आकृति तो यथावत बनी रहती है किन्तु प्रकृति बदल जाती है। अन्तरंग बदलना हो तो बहिरंग को उलटते देर नहीं लगती। युग शक्ति गायत्री का अवतरण और किया-कलाप इसी रूप में देखा-समझा जा सकता है। युग परिवर्तन में इस बार उसी की भूमिका सर्वोपरि होगी। ज्ञानयज्ञ और विचार क्रान्ति अभियान के रूप में उसी आद्यशक्ति की हलचलों को उभरते हुए देखा जा सकता है।

गायत्री मंत्र यों सामान्य दृष्टि से देखने पर पूजा-उपासना में प्रयुक्त होने वाला हिन्दू धर्म में प्रचलित एक मन्त्र मात्र प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से उसकी आकृति और परिधि छोटी मालूम पड़ती है किन्तु वास्तविकता इससे कहीं अधिक व्यापक है। गायत्री मन्त्र ही शक्ति है उसका प्रत्यक्ष रूप २४ अक्षरों के गुन्थन में देखा जा सकता है। भारतीय धर्म का उसे प्राण उद्‌गम एवं मेरुदण्ड कह सकते है! शिखा गायत्री है, यज्ञोपवीत गायत्री है। उसे वेदमाता, देवमाता कहा गया है। ब्रह्मविद्या का तत्वज्ञान और ब्रह्मवर्चस का तप विधान इसी उद्‌गम केन्द्र में गंगोत्री-यमुनोत्री की तरह प्रकट-प्रस्कुटित होता है। भारत का गौरवमय अतीत ऐसे देवमानवों का इतिहास है जो अपनी मातृभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाने के साथ-साथ समस्त विश्व वसुन्धरा को समृद्धियों और विभूतियों से सुसम्पन्न बनाने की ही भूमिका निभाते रहे। ऐसे देवमानवों के अन्तःकरण जिस साँचे में ढलते थे उसे निःसंकोच गायत्री तत्वज्ञान और तप विधान कहा जा सकता है।

गायत्री महाशक्ति का प्रथम अरुणोदय भारत भूमि पर हुआ। इसके लिए स्वभावत: इसी क्षेत्र में सर्वप्रथम और सर्वाधिक परिमाण में अपना वर्चस्व प्रकट कर सकना अनायास ही सम्भव हो गया, पर इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उसका सीमा-क्षेत्र उतना ही स्वल्प है। जापानी अपने देश में सर्वप्रथम सूर्य के उदय होने की मान्यता बनाये हुए है और अपने को सूर्य पुत्र कहते हैं। उनकी मान्यता को बिना आघात पहुँचाये हुए भी यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि भगवान सूर्य जापान तक सीमित नहीं है वे समस्त भू-खण्डों को समान रूप से अपने अग्रह से लाभान्वित करते हैं। गायत्री को इसी रूप में समझा जाना चाहिए। वेदमाता उसका आरम्भिक रूप है। उसकी व्यापकता देवमाता और विश्वमाता के रूप में देखी जा सकती है।

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