आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगांतरीय चेतना गायत्री की युगांतरीय चेतनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री साधना के समाज पर प्रभाव
युग परिवर्तन के उपयुक्त वातावरण बनाना होगा
एकाकी प्रयत्न और पुरुषार्थ का महत्व है और उसे सम्मानित प्रोत्साहित किया ही जाना चाहिए। कई बार तो एकाकी प्रयत्न भी इतने प्रचण्ड होते हैं कि वे भी न केवल व्यष्टि सत्ता को वरन् समष्टि सत्ता तक को प्रभावित करने और उलटने तक में बहुत हद तक सफल हो जाते हैं। यों ऐसा यदाकदा ही अपवाद रूप में होता है पर इससे यह तो पता चलता ही है कि ईश्वर का अंश राजकुमार अपने पिता की समस्त विभूतियों साथ लेकर आता है और यदि वह चाहे तो अपनी प्रसुप्ति को जागृति में बदलकर प्रखरता को अपना कर समष्टि क्षेत्र में भी इतना कुछ कर सकता है, जिसे चमत्कारी कहा जा सके। तेजस्वी, मनस्वी, तपस्वी स्तर के व्यक्ति ऐसा ही कुछ कर गुजरते हैं। ऐसी प्रतिभायें महामानवों के रूप में प्रतिष्ठा पाती हैं और अपने असाधारण कर्तृत्व से सामयिक समस्याओं का समाधान करती हैं। अवतारी आत्माएँ इसी स्तर की होती हैं। युग नेतृत्व कर सकने की विलक्षणता ही उन्हें भगवान स्तर का श्रेय सम्मान प्रदान करती है। यह व्यक्ति के चरम उत्कर्ष का उल्लेख होगा।
इतने पर भी वातावरण की महत्ता अपने स्थान पर यथावत् ही बनी रहती है। उसके प्रभाव की प्रचण्डता पग-पग पर परिलषित होती रहती है और आबभ्यकता यह भी बनी रहती है कि किसी प्रकार समूचे वातावरण का अनुकूलन सम्भव बनाया जाये। इसके लिए सुनिश्चित उपचार सामूहिक साधना ही जाना और माना जाता रहा है। इन दिनों इन प्रश्नों को युग शक्ति के उदय-उद्भव का उद्देश्य पूरा करने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है।
वातावरण का प्रभाव मनुष्यों की आकृति एवं प्रकृति में पाये जाने वाले अन्तर को देखकर जाना जाता है। काले, पीले, सफेद और लाल रंगों की चमड़ी में वातावरण का प्रभाव ही मुख्य है। यह विशेषताएं रक्तगत मानी जाती हैं किन्तु यह भी स्पष्ट है कि चमड़ी को प्रभावित करने वाली रक्तगत विशेषता अन्तत: विभिन्न देशों और क्षेत्रों में पाई जाने वाली जलवायु की भिन्नता से ही सम्बन्धित है। मनुष्यों के छोटे-बड़े आकार देश और क्षेत्रों के हिसाब से होते हैं। पंजाबी और बंगाली के बीच शरीरों की सुदृढ़ता में जो कमीवेशी रहती है उसमें वातावरण के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। रूस के उजबेकिस्तान प्रान्त में अधिकांश व्यक्ति शतायु होते है। उनके आहार-विहार में सुविधा-साधनों में कोई खास विशेषता नहीं होती। अन्यत्र रहने वालों की तरह वे भी मोटा-झोटा खाते और औसत जिन्दगी जीते हैं। फिर सारे क्षेत्र में दीर्घायु की परम्परा किस कारण चली आ रही है? इसका उत्तर वातावरण की विशेषता को समझने से ही मिल सकता है।
न केवल शरीरों में वरन् स्वभावों में भी विशेष अन्तर देखा जाता है। यह सूक्ष्म या स्थूल वातावरण का ही प्रभाव है। संस्कृति-सभ्यता आदि की भिन्नताएँ इसी आधार पर विभाजित होती हैं कि किस क्षेत्र के लोगों की मान्यता, अभिरुचि एवं आदत किस ढाँचे में ढल गई हैं और उन लोगों की विचारणा एवं गतिविधि किस दिशा में प्रवाहित हो रही हैं? यह प्रवाह सहज ही बदलते भी नहीं, इसलिए उन्हें संस्कृति की भिन्नता के रूप में मान्यता दे दी जाती है और उसका परिपोषण भी होता है। यह विशेषताएँ न केवल स्वभावों में वरन् चरित्रों और आदर्शो में भी छलकती दीख पड़ती हैं।
पशुओं, वनस्पतियों और खनिज पदार्थों तक में वातावरण की भिन्नता के आधार पर उनके स्तर का परिचय मिलता है। एक देश के पशुओं की दूसरे देश के पशुओं से तुलना में न केवल आकृति में अन्तर पड़ जाता है वरन् उनकी श्रमशक्ति दूध देने आदि की क्षमताओं में भी अन्तर होता है। भेड़ों की ऊन में पाई जाने वाली भिन्नताएँ उन क्षेत्रों के वातावरण से सम्बन्धित होती है। पहाड़ी कुत्ते और देशी कुत्तों में काफी प्रकृति भिन्नता आ जाती है। यतु प्रभाव सहन करने की क्षमता भी उस क्षेत्र पर छाई रहने वाली सूक्ष्म विशेषताओं से ही सम्बन्धित होती है। सर्दी वाले इलाकों में जन्मे प्राणी सर्दी की और गर्म देशों के निवासी गर्मी की अधिकता को भी शांतिपूर्वक सहन कर लेते हैं जबकि भिन्न परिस्थितियों में जन्म लेने वालों के लिए परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाना कठिन पड़ता है। तेज वाहनों पर सफर करने वाले अक्सर स्वास्थ्य में गड़बड़ी पड़ने की शिकायत करते रहते हैं। इसका कारण वातावरण में परिवर्तन की तीव्रता का शरीर कीं सहन-शक्ति के साथ ठीक तरह तालमेल न बैठ सकना ही होता है।
जड़ी-बूटियों, घास-वनस्पतियाँ, फल-फूल आदि के आकार गद्य, स्वाद आदि में अन्तर पाया जाता है। विभिन्न क्षेत्र में उत्पन्न हुई औषधियों का नाम-रूप एक होने पर भी उनके रसायनों और गुणों में असाधारण अन्तर दीख पड़ता है। पक्षियों से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक की आकृति-प्रकृति में अन्तर देखा गया है। साँप, बिच्छू छिपकली मकड़ी आदि के विषों में पाया जाने वाला अन्तर यों दीखता तो जातिगत है पर वे जातिगत विशेषताएं भी मूलतया वातावरण की ही प्रतिक्रिया होती हैं।
अनेक देशों की परिस्थितियों, प्रथायें, और मान्यता, रुचियाँ और संस्कृतियों भिन्न-भिन्न होती हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति और प्रकृति अपनाते चले जाते है। उनके चिंतन, स्वभाव और क्रिया-कलाप लगभग वैसे ही होते हैं जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगों के। बहुमत का दबाब पड़ता है तो अल्पमत अनायास ही बहुतों का अनुकरण करने लगता है। समय का प्रभाव, युग का प्रवाह इसी को कहते हैं। सर्दी-गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के वनस्पतियों के तथा पदार्थो के रंग-ढंग ही बदल जाते है। गतिविधियों में बहुत के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।
विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पूब्दी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन-उपलब्ध होता है वह सब अनायास ही नहीं है और न उस सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहाँ ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जिसमें मनुष्य का नहीं वरन् सुशक्तियों. का हाथ होता है सूर्य पर दीखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते है, उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेरफेर होते हैं। विकिरण, चुम्बकीय तूफान-अन्धढुर च्छवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं-यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्धा से कई बार धरती पर हिमयुग आये हैं। जलप्लावन, सही परिवर्तन और खण्ड प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं भविष्य में पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों की स्थिति में कोई असाधारण परिवर्तन हुआ तो उसका निमित्त कारण सामान्य घटनाक्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जायेगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शीताधिक्य, महामारी आदि आधिदैविक विपत्तियों में मनुष्य अपने आपको निर्दोष एर्ब असहाय ही अनुभव करता है।
व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतंत्र और आक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गलिालि हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता, मौत और बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों से वह अपना यत्किंचित बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं। कपड़े लादकर, आग ताप कर आत्म-रक्षा भर में आशिक सफलता पा लेता है।
स्पष्ट है कि वातावरण से मनुष्य प्रभावित होता है। अलग-अलग देशों के निवासी अपनी-अपनी परम्पराओं से प्रभावित होते, प्रचिलत ढर्रे के अन्तर्गत सोचते और जीवनयापन करते हैं। उसमें उनकी भौतिक प्रतिभा का नहीं वातावरण का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है।
मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन ही नहीं सामाजिक व्यवस्था भी वातावरण से प्रभावित होती है। सर्दी-गर्मी की लहर की तरह कई बार भावनात्मक एवं विचारात्मक लहरें भी उठती हैं। जब कभी युद्धोन्माद आदि उभरते हैं उन दिनों अशिकांश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करते और उसके लिए उतारू से दीखते हैं। एक अजीव-सा आवेश छाया रहता है, न कहने की आवश्यकता पड़ती है न समझाने की। हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहन स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। बड़े युद्धोन्माद एवं स्थानीय दंगे-फसादों में वातावरण जिस प्रकार उत्तेजित-आतंकित होता है उसे जन मनोवृत्ति, शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते हैं। युद्धोन्माद की तरह ही समय-समय पर दूसरे सूस प्रवाह भी अपने-अपने समय पर उतरते रहे है और असंख्य मस्तिष्कों को अपने साथ बहा ले जाने में अंधी-तूफ़ान का काम करते रहे हैं।
प्रजातंत्र की लहर एक समय चली और उसने राजतन्त्र को संसार भर से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर जनवादी सरकार बनाने का चमत्कार ही उत्पन्न कर दिया। एक लहर साम्यवाद की उठी, उसने रूस के नेतृत्व में एशिया और योरोप के अनेक देशों को देखते-देखते अपना अनुचर बना लिया। इन दिनों संसार भर के मनुष्यों में से प्राय: आधे लोग साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में सोचते और उसको पूरा या अपूरा समर्थन देते हैं। इन प्रजातंत्र और साम्यवाद के विचार प्रवाहों को अपने युग की प्रचण्ड लहरों में गिन सकते हैं। अनुपयोगी लहरों में से अधिनायकवाद, जातिवाद, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद सामन्तवाद आदि भी समय-समय पर अपना सिर उठाते और विग्रह उत्पन्न करते रहे हैं। लहर तो लहर ही है। ज्वार-भाटा की भयंकरता समुद्र तटवासी समय-समय पर देखते रहते हैं। कई तरह के विचार प्रवाह भी कई बार ऐसे आते हैं जो अपने साथ असंख्यों को समेटकर-घसीटकर कहीं से कहीं उठाकर उड़ाकर ले जाते है।
भगवान बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं प्रवाह प्रधान था, साधनों ने प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था। प्रवाह ने साधन खड़े कर दिये थे। हर्षवर्धन-अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बुद्ध और धर्म प्रचारक नियुक्त नहीं किए थे। बुद्ध ने ही हवा गरम की थी और उसकी गर्मी से लाखों सुविज्ञ, सुयोग्य और सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवरधारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने समय में अपने ढंग से वातावरण को गरम करके अपने समर्थन कीं भाव-तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गये हैं। पराधीनता के पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण अनगढ़ ढंग से आन्दोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुँचकर रहे। अदम्य और मूल वातावरण के तथ्य-रहस्य को जो लोग जानते हैं वे समझते हैं कि इसके प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तुलना संसार की अन्य शक्ति से नहीं हो सकती। रामायणकाल के वानरों द्वारा जान हथेली पर रखकर जलती आग में कूद पड़ना, जिस प्रवाह की प्रेरणा से सम्भव हुआ उसका स्वरूप और महत्व यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि जन-समुदाय को किसी दिशा विशेष में घसीट ले जाने की सामर्थ्य मूल वातावरण में भी इतनी है जिसे साधनों के सहारे खड़े किए गये आन्दोलनों से कम नहीं अधिक शक्तिवान ही माना जा सकता है।
जन-समर्थन और जन-सहयोग के लिए प्रचार साधनों पर उतना निर्भर नहीं रहा जा सकता जितना कि वातावरण के अनुकूलन पर। सूक्ष्म जगत का प्रवाह यदि सहयोगी बन रहा हो तो अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों-वायुयानों से लेकर पैदल यात्रा तक में कितनी सुविधा होती है और मार्ग कितनी जल्दी, कितनी सरलता से पूरा हो जाता है। वातावरण में विषाक्तता छा जाती है तो भयंकर महामारियों का प्रकोप होता है और देखते-देखते असंख्यों उससे आक्रांत होते, मरते देखे जाते है। वातावरण में सर्दी-गर्मी होने से प्राणियों को काँपते और आकुल-व्याकुल होते देखा जा सकता है। घर में शोक का वातावरण हो तो असंबद्ध लोग भी उससे प्रभावित होते है। मन्दिरों और कसाईघरों के वातावरण का अन्तर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
अध्यात्म विद्या में सूक्ष्म जगत का, सूक्ष्म वातावरण का महत्व इस संसार के समस्त साधनों से सर्वोपरि माना गया है। युग परिवर्तन के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए आध्यात्म विज्ञान के अनुरूप प्रचण्ड प्रयास करने होगे। वातावरण से मनुष्य प्रभावित होते हैं, यह सत्य है। इसके साथ यह भी सत्य है कि प्रखर व्यक्तित्व वातावरण को भी प्रभावित कर लेने की क्षमता रखते है। ओजस्वी, मनस्वी और तपस्वी स्तर की प्रतिभायें अपनी प्रचण्ड प्राण ऊर्जा से वातावरण को गरम करती है और गर्मी से परिस्थितियों के प्रवाह में असाधारण मोड़ आते और परिवर्तन होते देखे गये है। इस तथ्य से भिन्न प्रतीत होने वाला एक और भी सत्य है कि वातावरण से व्यक्ति प्रभावित होता है। समय के प्रभाव में तिनकों और पत्तों की तरह अगणित व्यक्ति बहते चले जाते है। आँधी के साथ भूलि से लेकर छत-छप्परों तक न जाने क्या-क्या उड़ता चला जाता है। आँधी का रुख जिधर होता है उधर ही पेड़ों की डालियाँ और पौधों की कमर झुकी दिखाई पड़ती है इसे प्रवाह का दबाव ही कह सकते हैं।
युग परिवर्तन के दोनों ही पक्ष हैं। तपस्वी व्यक्ति अपनी प्रचण्ड आत्मशक्ति से वातावरण को प्रभावित करते हैं और अभीष्ट परिवर्तन के लिए व्यापक अनुकूलता उत्पन्न करते हैं। दूसरा पक्ष यह है कि विशिष्ट उपायों के द्वारा वातावरण में गर्मी उत्पन्न की जाती है और उस व्यापक प्रखरता के दबाव से सब कुछ सहज ही बदलता चला जाता है। इन दोनों पक्षों में से कौन प्रधान है कौन गौण? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। हमें यही मानकर चलना होगा कि दोनों ही तथ्य अपने स्थान पर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और दोनों की ही उपयोगिता है। दोनों को परस्पर पूरक भी कह सकते हैं। युग सृजेताओं को इन दोनों ते ही परिपोषण में संलग्न रहना है।
युग परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व का निर्माण तपश्चर्या के माध्यम से हो हो सकता है। भौतिक प्रतिभाओं के धनी भी कई प्रकार की सफलताएं उत्पन्न करते देखे गये है किन्तु वे सभी होते पदार्थपरक ही है। मनुष्य की शारीरिक, बौद्धिक क्षमताऐं साधनों की सुविधा-सम्पदायें कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करती देखी गई हैं, पर
वे सभी होती जागतिक ही हैं। धन के आधार पर विशालकाय भवन और कल-कारखाने खड़े किए जा सकते हैं। सुविधा-साधन बढ़ाने के कितने ही अन्य आधारों का सरंजाम जुटाया जा सकता है। समस्याओं का सामयिक समाधान करने वाले दबाब भी शक्ति सामर्थ के सहारे उत्पन्न किये जाते हैं। विज्ञान, अर्थसाधन बुद्धि-कौशल एवं परिश्रम के सहारे सुविधा-सम्वर्धन की व्यवस्था बनती आई है और यह क्रम भविष्य में चलता रहने वाला है। इस दृष्टि से भौतिक साधनों और सामर्थों का महत्व सदा ही स्वीकार किया जाता रहेगा। इतने पर भी यह यथार्थता अपने स्थान पर अटल ही बनी रहेगी कि मनुष्य की अन्तःचेतना का स्पर्श करने, विशेषत: उसे उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने की आवश्यकता साधन-सामग्री के सहारे पूरी हो नहीं सकती। चेतना मात्र चेतना से ही प्रभावित होती है, उसे प्रशिक्षित और उल्लसित करने के लिए भावनात्मक आधार चाहिए। साधनों से तो मस्तिष्क को प्रभावित और शरीर को उत्तेजित भर किया जा सकता है।
इतिहास साक्षी है आंतरिक उत्कृष्टता के धनी व्यक्तियों ने अपनी अन्तःऊर्जा के सहारे अपने समय के अगणित मनुष्यों को प्रभावित किया है। ईसा, बुद्ध, शंकराचार्य, विवेकानन्द गाँधी जैसे महामानवों ने अपने अन्तकरणों को तोड़ा-मरोड़ा और ढाला-गलाया था। सामयिक विकृतियों को सुधारने में उन महान व्यक्तित्वों ने एक प्रकार से चमत्कार उपस्थित करके रख दिया था। एक अग्रगामी के पीछे अनुगामियों के जत्थे गतिशील होते रहे हैं। राणा प्रताप गुरु गोविन्दसिंह जैसी हस्तियाँ साधनहीन परिस्थितियों में भी साधन जुटाने में समर्थ होती रही है। यह व्यक्ति के अन्तराल में उभरने वाली अध्यशक्ति का वर्चस्व है। नवयुग के अवतरण में तपश्चर्या की ऐसी परम्परा को विकसित किया जाना है जिसके सहारे आत्मबल के धनी महामानवों की संख्या बढ़ सके। जनमानस को उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत कर सकना केवल ऐसे ही लोगों का काम है। स्वार्थों की पूर्ति के लिए उत्तेजित और प्रशिक्षित कर सकना तो भौतिक प्रतिभाओं के लिए भी सरल है किन्तु आदर्शवादिता को व्यवहार में उतारना और उसके लिए त्याग बलिदान के लिए प्रबल प्रेरणा दे सकना तपःपूत आत्माओं के लिए ही सम्भव हो सकता है। युग विकृतियों से जूझने के लिए इन्हीं ऊर्जा आयुधों की आवश्यकता पड़ेगी। अणुबमों के विस्फोट जैसी प्रचण्डता यदि सृजन प्रयोजनों के लिए अभीष्ट हो तो उसके लिए व्यक्तित्व की तपश्चर्या की शक्ति से सम्पन्न करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। सृजन के लिए भागीरथों की और ध्वंस के लिए दधीचियों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए गायत्री उपासना के सामान्य उपचारों से लेकर उच्चस्तरीय तप-साधना तक का विशालकाय आधार खड़ा किया जा रहा है।
तथ्यों के जानने वाले जानते हैं कि प्रस्तुत शताब्दी में रचे गये स्वतंत्रता संग्राम के लिए सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक रुचि उत्पन्न करने के लिए योगी अरविन्द जैसे तपस्वियों की कितनी बड़ी पृष्ठभूमि रही है। असहयोग, सत्याग्रह से लेकर 'करो या मरो' तक के संघर्षों के लिए अगणित लोगों को, प्राण हथेली पर रखकर बलिदानियों की सेनायें ला खड़े करना एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। हजार वर्ष से दवा-कुचला जनमानस एकाकी इतने आवेश के साथ आत्मगौरव की रक्षा के लिए आतुर हो उठे और संकल्प को पूरा करने के लिए बहुत कुछ कर गुजरे तो उसे अद्भुत ही कहा जायेगा। एक ही समय में अनेकों महामानवों का उदय एक साथ हुआ हो ऐसे उदाहरण अन्यत्र ईढू नहीं मिलते। नेता और योद्धा तो एक साथ कितने ही हो सकते हैं, पर भारतमाता ने उन्हीं दिनों ढेरों महामानव उत्पन्न करके रख दिये। इस उत्पादन के पीछे किन्हीं जादूगरों की करामात काम करती देखी जा सकती है। निश्चय ही वह उत्पादन ज्ञात और अविज्ञात तप-साधनाओं का ही प्रतिफल था। ऊर्जा उत्पादन के वे झोत इन दिनों शिथिल हो गये तो राष्ट्र-निर्माण के कार्य में वैसी ही तत्परता का परिचय देने वाली विभूतियों का ढूँढ़ निकालना भी कठिन हो रहा है। तप शक्ति का, लोकचेतना को ऊंचा उछालने में कितना बड़ा योगदान हो सकता है उसे आज नहीं तो कल एक सुनिश्चित तथ्य की तरह समझ सकना हम सभी के लिए सम्भव हो जायेगा।
यह व्यक्ति की आत्म-ऊर्जा को विकसित करने और उसके द्वारा वातावरण को परिस्तृत करने का एक पक्ष हुआ। युग परिवर्तन के लिए इन प्रयत्नों में तत्परतापूर्वक संलग्न रहने की आवश्यकता रहेगी।
युग सृजेताओं को उस उपार्जन-उत्पादन के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्नरत रहना होगा। दूसरा पक्ष है वातावरण को सामूहिक प्रयत्नों से प्रभावित करना और उसके तूफानी प्रवाह में सामान्यजनों को भी असामान्य भूमिका सम्पादन करने के लिए उत्तेजित करना। यह पक्ष सामूहिक प्रयत्नों से ही सम्पन्न हो सकता है। एकाकी व्यक्तिगत प्रयत्नों से तो कार्य सीमित क्षेत्र में, सीमित मात्रा में और सीमित समय तक के लिए ही सम्पन्न हो सकता है। व्यापक परिमाण में बड़े प्रयत्न चिरस्थाई उद्देश्य के लिए करने हों तो उसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी जो आध्यात्मिकता की उमंगों से सूक्ष जगत को भर सकने में समर्थ हो सकें।
प्राचीन काल में यह प्रयोजन सप्त-भषियों की सुगठित मण्डली द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। उनके शरीर तो अलग-अलग थे, पर रहते साथ-साथ थे। जो सोचते थे, जो योजना बनाते थे और जो करते थे उसमें सघन एकता रहती थी। वैसे ही जैसी की सप्त-धातुओं के सम्मिलन से काय-कलेवर का ढाँचा खड़ा होता और गतिशील रहता है। अभी भी वे आकाश में एक मण्डली के रूप में चमकते और कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ चलते हैं। दिवंगत होने पर भी उनकी एकता में कोई शिथिलता नहीं आई है। सामूहिक सतयत्नों का मूल्य और महत्व वे भली प्रकार समझते हैं, इसमें किसी प्रकार का व्यतिरेक कभी न आने देने के लिए वे कृतसंकल्प हैं।
देवताओं का सहकार उनकी पूजा के लिए स्थापित की गई उपचार वेदियों को देखकर जाना जा सकता है। सर्वतोभद्र आदि स्थापनाओं में सहनिवास की उनकी मूल प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। एक ही जल कलश में उन सबका आहवान और प्रतिष्ठापन सम्पन्न हो जाता है। भगवती दुर्गा तो देवताओं की संधशक्ति का प्रतीक-परिचय ही मानी जाती है।
देव प्रयोजनों में सामूहिकता का ही प्रावधान है। यज्ञ प्रक्रिया सनातन है, देवाराधन के समस्त तत्वों का उसमें समावेश है। प्रत्यक्ष है कि यज्ञ का समूचा किया-कलाप सामूहिकता पर अवलम्बित है। ब्रह्मा, आचार्य अध्वर्यु, उद्गाता, यजमान, ऋत्वाक् आदि पदाधिकारियों की मण्डली उसका सूत्र संचालन करती है। आहुति देने वाले, परिक्रमा करने वाले, श्रमदानी, संयोजक, सहयोगी, व्यवस्थापक आदि का जितना बड़ा समुदाय होगा आयोजन की उतनी ही बड़ी सफलता मानी जाती है। राजनैतिक उद्देश्यों के लिए राजसूय यज्ञों और धार्मिक उद्देश्यों के लिए बाजपेय यज्ञों की परम्परा रही है। अस्वमेध जैसे आयोजन राजसूय और गायत्री यज्ञ जैसे आयोजन बाजपेय कहलाते रहे हैं। इनमें राजनेताओं एवं धमवित्ताओं को बड़ी संख्या में एकत्रित करके उनकी विचारणाओं एवं गतिविधियों में सामयिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में एकता, एकरूपता लाने का प्रयोजन पूरा किया जाता रहा है। नैमिषारण्य आदि आरण्यकों में सूत-शौनक कथा-प्रसंगों जैसे विशालकाय ज्ञान सत्र सम्पन्न होते थे और उनमें हजारों ऋषि आत्माएँ श्रद्धापूर्वक भाग लेती थीं।
कुम्भ जैसे महापर्वों के समय होने वाले विशालकाय धर्म सम्मेलनों का उद्देश्य भी एक ही था-श्रेष्ठ व्यक्तियों का सतयोजनों के लिए सघन सहकार और सामूहिक प्रयत्न। कथा-कीर्तन पर्व-संस्कार, सत्र-सत्संग, परिक्रमा, तीर्थयात्रा जैसे धर्मानुष्ठानों में अन्य उद्देश्यों के साथ-साथ एक अति महत्वपूर्ण प्रयोजन क्त भी सम्मिलित है कि सदाशयता को संघबद्ध होने और एक दिशाधारा में चल पड़ने की व्यवस्था बन सके।
ऋषियों ने रावणकालीन अनाचार से जूझने के लिए! सुअशक्ति उत्पन्न करने के लिए सामूहिक अध्यात्म उपचार किया था। सबने मिल-जुलकर अपना-अपना रक्त संचय किया और उसे एक घड़े में बन्द करके भूमि में गाड़ दिया, उसी से सीता उत्पन्न हुई और उनकी भूमिका के फलस्वरूप तत्कालीन अनाचारों का निराकरण सम्भव हो सका।
महत्व तो व्यक्तिगत उपासना का भी है और वैयक्तिक परिष्कार के लिए अलग-अलग एकान्त उपासना की भी आवश्यकता रहती ही है किन्तु समष्टिगत व्यापक प्रयोजनों के लिए सम्मिलित उपासना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति भौतिक साधनों से हो सकती है किन्तु सूस जगत को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म पुरूषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। वह एकाकी तो चलना ही चाहिए, पर उसे सामूहिक स्तर का भी बनाया जाना चाहिए।
आये दिन देखा जाता है कि एकाकी और सम्मिलित शक्ति में कितना अन्तर पड़ता है। बुहारी की अलग-अलग सीकें चाहें हजारों-लाखों ही क्यों न हों अलग-अलग रहकर किसी भवन को बुहार न सकेंगी। सीकें सम्मिलित हों तो समर्थ झाड़ू बनेगी। धागे परस्पर गुथे हों तो कपड़ा बनेगा और तन ढकेगा। अलग दीपक तो सदा ही जलते हैं, जब वे योजनाबद्ध रूप में नियत समय पर पंक्तिबद्ध प्रकाशित होते हैं तो दीपावली का उत्सब दृष्टिगोचर होता है। अलग-अलग रहकर शूरवीर योद्धा का कोई बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं होता है, उनका सम्मिलित स्वरूप-सेना का प्रदर्शन ही प्रभावशाली होता है और पराक्रम भी सफ्त होता है। सामूहिक और सुगठित उपासना के विशालकाय आयोजन वातावरण को बदलने और सुधारने का सुविस्तृत उद्देश्य पूरा करते हैं। युग परिवर्तन जैसे महान् कार्य में सूक्ष्म जगत का परिशोधन-वातावरण का अनुकूलन भी एक बड़ा तथ्य है इसके लिए युग शक्ति का उदय आवश्यक है-यह सामूहिक उपासना के सुनियोजित सुसंस्कारित साधना-अनुष्ठानों से ही सम्भव हो सकता है।
सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा कतिपय दिव्य उपचार समय-समय पर किए गये हैं। इसके प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। रावणकाल के विक्षुब्ध वातावरण को समाहित करने का कार्य लंका विजय के उपरान्त भी शेष रह गया था। भगवान राम ने दशाश्वमेघ घाट पर दश ख्यमेधों की संकल्प श्रृंखला पूरी की थी। कंस, दुर्योधन जरासन्ध जैसे असुरों के न रहने पर भी महाभारत काल के विक्षोभ वातावरण में भरे रहे। भगवान कृष्ण ने उनका समाधान आवश्यक समझा और पाण्डवों से राजसूय यज्ञ कराया। महर्षि विश्वामित्र अपने समय की असुरता को दुर्बल बनाने के लिए जो वृहद् यज्ञ रच रहे थे उसका पता असुरों को चल गया और वे ताड़का, सुबाहु, मारीच के नेतृत्व में उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करने लगे। राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रहा के लिए जाना पड़ा था। ऐसे समाधान-उपचारों में यज्ञ प्रक्रिया का बहुत महत्व रहा है। यज्ञों में अग्निहोत्र की तरह ही जप-यज्ञ भी है। अग्निहोत्र में साधन चाहिए, पर जप यज्ञ व्यक्तिगत सामुना से भी सम्पन्न हो सकता है। यज्ञ तो सामूहिक होते हैं, उनमें होताओं की सम्मिलित साधना का चमत्कार देखने को मिलता है। जप-यज्ञ को जब अनेक जपकर्त्ता संकल्पपूर्वक समाहित होकर करते हैं तो उससे भी सम्मिलित शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी सामूहिक साधनाएँ पुरश्चरण कहलाती हैं। तपश्चर्यायुक्त सामूहिक संकल्पों के द्वारा विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किए गये पुरश्चरण भी वातावरण में अभीष्ट अनुकूलता उत्पन्न करते हैं।
तत्वदर्शी ऋषियों ने उपासना विज्ञान के निर्धारण में इस तथ्य का भी ध्यान रखा है कि नियत समय, नियत कम से नियत विधि-व्यवस्था और निर्धारित मनोभूमि की व्यवस्था बनाकर उपासना की जाये और उससे सूक्ष जगत का उद्देश्य पूरा होता रहे। सूर्योदय और सूर्यास्त काल को ही संध्यावन्दन के लिए क्यों निर्धारित किया गया? उसका एक ही उत्तर है कि इससे संयुक्त शक्ति की अत्यन्त प्रभावशाली प्रचण्ड धारा उत्पन्न होती है। किसी भारी वजन को उठाने के लिए मजदूरों की बड़ी संख्या भी अलग-अलग स्तर की खींचतान करतीं रहे तो बोझ उठाना, पहिया घुमाना कठिन पड़ता है, पर जब एक साथ, एक आवाज के साथ, एक प्रोत्साहन देकर एक जोश उत्पन्न करके ' जोर लगाओ हेईशा जैसे नारे लगाते हुए सबका बल एक ही समय, एक ही कार्य पर नियोजित कर दिया जाता है तो शक्ति का केन्द्रीकरण चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है और रुकी हुई गाड़ी सहज ही आगे बढ़ जाती है।
सामूहिक नियोजन के परिणाम पग-पग पर परिलक्षित होते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने से उत्पान ताल यों लगती तो साधारण- सी है पर उसका वास्तविक प्रभाव तब दिखाई पड़ता है जब वे सैनिक किसी पुल पर कदम मिलाकर चलें। उस पदचाप की आवाज में
संयुक्त ताल होने के कारण धनि तरंगों की प्रचण्डता असाधारण बन पड़ती है उससे पुलों के फट जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
संयुक्त उपासना की प्रचण्ड प्रतिक्रिया का तथ्य तत्वदर्शियों के ध्यान में सदा ही रहा है। विभिन्न धर्मों में प्रचलित उपासनाओं को सामूहिकता की श्रृंखला में बाँधा गया है। मुसलमानों की नमाज के समय यही नियम है और उसे कड़ाई के साथ पालन करने पर जोर दिया गया है। अन्यान्य धर्मो में भी यह व्यवस्था अपने-अपने ढंग से मौजूद है।
युग परिवर्तन के लिए गायत्री उपासना सामूहिक रूप में नियत नियंत्रण और समर्थ मार्गदर्शन में चल रही है, उसे युग शक्तिका प्रचण्ड उत्पादन समझा जा सकता है और उसके आधार पर सूक्ष्म जगत के अदम्य वातावरण के अनुकूलन की अपेक्षा की जा सकती है।
युग परिवर्तन संसार का सबसे बड़ा, सबसे भारी, सबसे व्यापक और सबसे अधिक महत्व का काम है। उसके लिए सामान्य और सीमित नहीं असामान्य और असीम शक्ति चाहिए। भौतिक साधनों को भी इसके लिए आवश्यकता पड़ेगी, पर शक्ति का मूल झोत आध्यात्मिक ही होगा। जनमानस का बदलना विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र का कार्य है इसलिए ऊर्जा भी उसी स्तर की चाहिए। वातावरण की उत्कृष्टता-निकृष्टता सामूहिक चिन्तन पर निर्भर करती है। उसका उत्पादन सामूहिक साधना के प्रचण्ड सामर्थ्य-सम्पन्न सामूहिक धर्मानुष्ठानों से ही सम्भव है। हम सब इन दिनों इसी के लिए प्रयत्नशील हैं। आशा की जा सकती है कि इन पुण्य प्रयत्नों की प्रतिक्रिया युग परिवर्तन के महान् प्रयोजन में अपनी असाधारण भूमिका प्रस्तुत करेगी।
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