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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15485
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की गुप्त शक्तियों का तार्किक विश्लेेषण

चौबीस गायत्री


गायत्री के २४ अक्षर यथार्थ में २४ शक्ति-बीज हैं। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश यह पाँच तत्त्व तो प्रधान हैं ही, इनके अतिरिक्त २४ तत्त्व हैं, जिनका वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। इस सृष्टि के २४ तत्वों का गुम्फन करके एक सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति का आविर्भाव किया गया है, जिसका नाम गायत्री रखा गया है।

गायत्री के २४ अक्षर चौबीस मातृकाओं की महाशक्तियों के प्रतीक हैं। उनका पारस्परिक गुन्थन ऐसे वैज्ञानिक क्रम से हुआ है कि इस महामंत्र का उच्चारण करने मात्र से शरीर के विभिन्न भागों में अवस्थित चौबीस बड़ी ही महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं।

मार्कण्डेय पुराण में शक्ति के अवतार की कथा इस प्रकार है कि सब देवताओं ने अपना-अपना तेज एकत्रित किया और वह एकत्रित तेज-केन्द्र 'शक्ति' के रूप में अवतीर्ण हुआ। देवता उन तत्त्व शक्तियों का नाम है, जो सृष्टि के निर्माण, पोषण एवं संहार का मूल कारण है। रसायन विज्ञान का नियम है कि क्रियाशील पदार्थों के सम्मिलन से नये पदार्थ बनते हैं। रज और वीर्य के सजीव परमाणु जब मिलते हैं, तो एक मूर्तिमान् गर्भ का आविर्भाव होता है। गन्धक और पारा मिलकर कजली बन जाती है, दूध और खटाई मिलकर दही बनता है। ऋण और धन परमाणु मिलकर बिजली की शक्तिशाली धारा के रूप में परिणत हो जाते हैं। २४ सूक्ष्म तत्वों के- २४ सूक्ष्म शक्तियों के सम्मिलन से एक ऐसी अद्भुत विद्युत् धारा उत्पन्न होती है, जिसकी सामथ्र्यों का वर्णन करना कठिन है। मारकण्डेय पुराण का शक्ति अवतार और उस अवतार की आश्चर्यजनक क्रियाशीलता इसी तथ्य पर प्रकाश डालती है।

एक विशेष पर्वतीय प्रदेश की भूमि, वहाँ की वायु, वहाँकी वनस्पतियाँ रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण के कारण गंगोत्री से आरम्भ होने वाला जल एक विशेष प्रकार के अद्भुत गुणों वाला बन गया है। इसी प्रकार चौबीस अक्षरों से उपयोगी तत्वों का कारणवश सम्मिश्रण हो जाने से अन्तरिक्ष आकाश में एक विद्युन्मयी सूक्ष्म सरिता बह निकली। इस आध्यात्मिक-गंगा का नाम 'गायत्री' रखा गया। जिस प्रकार गंगा नदी में स्नान करने से शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है, उसी प्रकार उस आकाशवाहिनी विद्युन्मयी गायत्री शक्ति की समीपता से आन्तरिक एवं बाह्य बल तथा वैभवों की उपलब्धि होती है।

सृष्टि के उत्पादक तत्त्व चैतन्यता रहित कहे जाते हैं, यह अचैतन्य उसका स्थूल रूप है। पर अचेतना के पीछे भी एक प्रेरणा रहती है, क्योंकि, बिना प्रेरणा के कोई अचेतन वस्तुकार्य नहीं कर सकती। रेल, मोटर, जहाज, तार, बम, तोप, आदि को चलाने वाला कोई न कोई होता है। ये इतने शक्तिशाली होते हुए भी कुछ कार्य स्वयं नहीं कर सकते। इन यन्त्रों को चलाने के लिए यह आवश्यक है कि कोई चैतन्य प्राणी इनका संचालन करे। इसी प्रकार तत्त्वों को क्रियाशील रहने के लिए यह आवश्यक है कि उनके पीछे कोई चैतन्य शक्ति कार्य करती हो। अध्यात्म विद्या के भारतीय वैज्ञानिक सदा से यह मानते आये हैं कि प्रत्येक तत्त्व के पीछे एक चैतन्य शक्ति, प्रेरित सत्ता के रूप में विद्यमान है। उस प्रेरक शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके उन पदार्थों का लाभ उठाया जा सकता है, जिन पर उस शक्ति का आधिपत्य है। इन प्रेरित शक्तियों को भारतीय विज्ञानवेत्तओं ने देवता नाम दिया है।

पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल आदि की पूजा के लिए वेदोक्त और पुराणोक्त प्रक्रियायें मिलती हैं। क्या यह लोहा, लकड़ी, पानी, आग, हवा आदि की पूजा है? क्या हमारे ऋषि-मुनि इतने मुख थे, जो यह भी नहीं जानते थे कि इन निर्जीव वस्तुओं के पूजन से लाभ होना असम्भव है? ऐसा सोचने से काम न चलेगा। भारतीय वैज्ञानिकों ने बहुत ऊँची शोध की थी। आज के भौतिक विज्ञानी जहाँ अपने विज्ञान की अन्तिम सीमा समझते हैं, वहाँ से भारतीय ऋषियों की शोधों का आरम्भ होता है, उनको मिट्टी, पत्थर पूजने वाला मूर्ख समझने की गलती हमें नहीं करनी चाहिए। वस्तु:स्थिति यह है कि एक प्रकार के गुण, शक्ति, स्वभाव, प्रवृत्ति एवं स्थिति के परमाणु समूह तत्तवों में रहते हैं और तत्त्व के पीछे एक प्रेरक शक्ति काम करती है, जो ईश्वरीय अनुशासन के नाम से पुकारी जाती है। एक प्रेरक, नियामक, उत्पादक, संचालक एवं विध्वंसक सत्ता अपने क्षेत्र की अधिपति है। उसका आधिपत्य अपने क्षेत्र में अक्षुण्ण है। उसी का नाम देवता है।

इन देवताओं की अपनी-अपनी कार्य-प्रणाली, अपनी-अपनी मर्यादा होती है। जहाँ उनके पदार्थ एवं परमाणुओं सम्बन्धी क्रियायें होती हैं, वहाँ गुण और स्वभाव सम्बन्धी शक्तियाँ भी हैं, इन देवतओं का अपना एक गुण और स्वभाव भी है। जिस देवता से उपासना विधि द्वारा सम्बन्ध स्थापित, किया जाता है, उसके गुण और स्वभाव के साथ भी सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। इस प्रकार वह देव उपासक, अपने उपास्य देव के गुण और स्वभाव को प्राप्त करता है। साथ ही जिन पदार्थों पर उस देवशक्ति का आधिपत्य है, वे भी उसे किसी न किसी मार्ग से अधिक मात्रा में उपलब्ध होने लगते हैं।

इन देव-शक्तियों तक पहुँचने के लिए, उन्हें पकड़ने के लिए, उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए साधना-विज्ञान के आचार्यों ने समाधि अवस्था में पहुँचकर अपनी ध्यान चेतना को अन्तरिक्ष लोक में फेंका। उनकी अन्त:चेतना ने देव-शक्तियों से सम्बद्ध होते हुए जो अनुभव किये उन अनुभवों को योगीजनों ने देवता का रूप घोषित कर दिया। मनुष्य के मस्तिष्क का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि उससे कोई भी वस्तु टकराये तो उसका रूप अवश्य ध्यान में आयेगा। कोई वस्तु साकार हो या निराकार, पर यदि मस्तिष्क से उसके सम्बन्ध में कुछ सोचना पड़ा, तो वह उसका कोई न कोई रूप निर्धारित करेगा। बिना रूप की स्थापना हुए मस्तिष्क उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार के विचार या धारणा करने में असमर्थ होता है। साकार वस्तुओं को देखने या सुनने के आधार पर उनका कोई रूप मस्तिष्क में बन जाता है। वह निराकार वस्तुओं का आकार अपनी कल्पना के आधार पर गढ़ता है, परन्तु यह कल्पना भी किसी न किसी आधार पर चलती है। देवताओं का आकार निर्धारित करने का कार्य योग के आचार्यों ने किया है, उनके मस्तिष्क ने अन्तरिक्ष लोक में फैली हुई देव-शक्तियों से सम्बद्ध होते समय जो रूप बनते देखा उसे ही देव रूप माना।

यह देव रूप एक माध्यम है जिसको पकड़ कर आसानी के साथ उन देवशक्तियों से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। देवशक्तियों से सम्बन्ध होने पर जो चित्र मन में आता है यदि आरम्भ में ही उस चित्र को मन में धारण कर लिया जाए, तो उस शक्ति से सम्बद्ध होने का कार्य भी सुविधापूर्वक पूरा किया जा सकता है। देवताओं के रूप का ध्यान करना इस दिशा में प्रधान साधना है। इसलिए आचार्यों ने प्रत्येक देवता का रूप अपनी अनुभव साधना के आधार पर निर्धारित कर दिया है।

यहाँ यह भी भली भाँति ध्यान रखना चाहिए कि देवता कोई स्वतंत्री सत्ता नहीं है। एक ही परमात्मा की विविध शक्तियों का नाम ही देवता है। जैसे सूर्य का विविध गुणों वाली किरणें अल्ट्रा वायलेट, अल्फा, पारदर्शी, मृत्यु किरण आदि अनेक नामों से पुकारी जाती है, उसी प्रकार अनेक कार्य और गुणों के कारण ईश्वरीय शक्तियाँ भी देव नामों से पुकारी जाती हैं। सूर्य की प्रात:कालीन, मध्याह्वकालीन, संध्याकालीन किरणों के गुण भिन्न-भिन्न हैं, इसी प्रकार गर्मी, वर्षा और शीतकाल में किरणों के गुणों में अन्तर पड़ जाता है। सूर्य एक ही है पर प्रदेश, ऋतु और काल के भेद से उसका गुण भिन्न-भिन्न हो जाता है। ईश्वर की शक्तियों में उसी प्रकार की विभिन्नताओं के होने के कारण उनके नाम विभिन्न प्रकार के रखे गये हैं।

गायत्री में २४ शक्तियाँ गुम्फित हैं। साधारणतः गायत्री की उपासना करने से उन २४ शक्तियों का यथोचित मात्रा में लाभ मिलता है। दूध में सभी पोषक तत्व होते हैं, दूध पीने वाले को उन सभी तत्वों का यथोचित मात्रा में लाभ मिलता जाता है, परन्तु यदि किसी को किसी विशेष तत्व की आवश्यकता होती है, तो वह उसके किसी विशेष भाग का ही खासतौर से सेवन करता है। किसी को दूध के चिकनाई वाले भाग की आवश्यकता होती है, तो वह 'घी' निकाल कर उसका सेवन करता है और बाकी अंश को छोड़ देता है। किसी को छाछ की अधिक आवश्यकता है, तो वह दूध के छाछ वाले अंश को लेकर अन्य भागों को छोड़ देता है। रोगियों को दूध फाड़कर उसका पानी मात्र देते हैं। इसी प्रकार किसी विशेष व्यक्ति को गायत्री में रहने वाली अनेक देव शक्तियों में से किसी विशेष की आवश्यकता होती है, तो वह उसी की आराधना करता है। अपनी प्रमुख आवश्यकता की वस्तु के लिए अधिक श्रम करता है।

इस दृष्टि से काम करने के लिए पृथक्-पृथक् साधनायें बनाई गई हैं। इन पद्धितियों को 'चौबीस गायत्री साधना' कहते हैं। गायत्री मंत्र-ग्रन्थों में चौबीस देवताओं की चौबीस गायत्री लिखी हुई हैं। उनका संक्षित-सा साधन विधान भी है। उन सबके ऊपर सूक्ष्म दृष्टपात करने से स्पष्ट हो जाता, है कि विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए सृष्टि के प्रधान चौबीस तत्वों की प्रेरक शक्तियों का उपयोग करने का विधि विधान है।

भारतीय योग विज्ञान की क्रिया-पद्धति यह है कि वह परमाणुओं एवं तत्वों का ऊहापोह उस तरह नहीं करती, जिस प्रकार कि वर्तमान काल के भौतिक विज्ञानी करते हैं। वैज्ञानिक अगना अभीष्ट सिद्ध करने के लिए तत्वों और परमाणुओं को पकड़ते हैं। इस पकड़ के लिए उन्हें बहुत श्रम और धन से बनने वाली, बार-बार टूटने-फूटने वाली मशीनों की आवश्यकता होती है। योग-विज्ञान इस सतह से कहीं ऊँची सतह पर काम करता है। वह तत्वों और परमाणुओं की पीठ पर काम करने वाली प्रेरक एवं चैतन्य देव शक्ति को पकड़ता है और उससे अपना मनोरथ पूरा करता है। इस पकड़ के लिए उसे लोहे की मशीनों की आवश्यकता नहीं होती वरन् वह मानव शरीर, शक्तिशाली मशीन का उपयोग करता है। ईश्वर ने जितनी सर्वाङ्गपूर्ण मशीन 'मनुष्य देह' बनाई है, उतनी सम्पूर्ण सामथ्र्यों वाली, सम्पूर्ण प्रयोजनों में प्रयुक्त हो सकने वाली मशीनें आज तक किसी भी वैज्ञानिक द्वारा नहीं बनाई जा सकी हैं और न भविष्य में इस प्रकार की कोई सम्भावना ही है। भारतीय वैज्ञानिकों ने नई-नई मशीनें बनाने के झंझट से बचकर इस एक ही मशीन से सब सूक्ष्म प्रयोजनों को पूरा करने की क्रिया निकाली थी।

रेडियो यन्त्र की सुई घुमाने से उन विविध स्थानों की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं जो आपस में बहुत दूर और बहुत भिन्न हैं। सुई के घुमाने से यन्त्र के भीतर ऐसा परिवर्तन हो जाता है कि पहले उसके भीतर जो गतिविधि काम कर रही थी, वह बन्द हो जाती है और नये प्रकार की गतिविधि आरम्भ हो जाती है, इससे पहले जिस स्टेशन की ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही थीं, वे बन्द होकर नया स्टेशन सुनाई पड़ने लगता है। मनुष्य शरीर की स्थिति को भी साधनात्मक कर्मकाण्डों द्वारा इसी प्रकार परिवर्तित कर दिया जाता है कि वह कभी किसी देव शक्ति के और कभी अन्य देव शक्ति के अनुकूल बन जाता है। साधनाकाल में साधक के रहन-सहन, आचार-विचार, दिनचर्या, विचार, चिन्तन, ध्यान, संयम, कर्मकाण्ड आदि के ऐसे प्रबन्ध एवं नियंत्रण कायम किये जाते हैं, जिसके कारण उनकी मनोभूमि एक विशेष दिशा में काम करने योग्य बन जाती है। साधना काल के नियमोपनियमों का प्रतिबन्धों या नियंत्रणों का कोई साधक पूरी तरह पालन करे, तो उसकी मशीन इतनी सूक्ष्म हो जायेगी कि इच्छित देव-शक्ति से सम्बन्ध स्थापित कर सके। इसलिए अध्यात्म विद्या के पथ-प्रदर्शक अपने शिष्यों को साधनाकाल में आवश्यक संयम-प्रतिबन्धों का पालन करने के लिए विशेष रूप से सावधान करते रहते हैं।

स्थूल शरीर में दोनों हाथ इस प्रकार के अवयव हैं, जिनकी सहायता से वस्तुओं को पकड़ा जाता है। सूक्ष्म शरीर के भी इसी प्रकार दो हाथ हैं जिनके द्वारा परमाणु तत्वों की प्रकृति से ऊपरी सतह पर-परब्रह्म लोक में भ्रमण करने वाली देव शक्तियों को पकड़ा जाता है। इन सूक्ष्म हाथों का नाम है-श्रद्धा और विश्वास। श्रद्धा और विश्वास के कारण मानव अन्त:करण की बिखरी हुई शक्तियाँ एक स्थान पर एकत्रित हो जाती हैं। इस एकीकरण को जिस दिशा में प्रेरित किया जाता है, उसी में वह बड़ी द्रुतगति से दौड़ता है। थोड़ी-सी बारूद और सीसे की गोलियों की पुड़ियों (कारतूस) को बन्दूक की नाल में भरते हैं, इस पुड़िया को चिनगारी लगाकर एक बन्दूक की नली की सहायता से एक विशेष दिशा में उड़ाते हैं। निशाना सीधा होने पर वह गोली अभीष्ट स्थान पर प्रहार करती है और लक्ष्य को वेध देती है। योग साधना में भी यही होता है। आहार-विहार का, दिनचर्या का प्रतिबन्ध बन्दूक बनाना है, उसमें श्रद्धा और विश्वास का होना गोली व बारूद डाला जाना है। साधना विधि उसमें चिनगारी लगाना है। इस प्रकार जो लक्ष्य वेध किया जाता है, वह मनोवांछित परिणाम उपस्थित करता है। चन्द्रलोक और मंगल ग्रह की यात्रा करने की तैयारी में जो वैज्ञानिक लगे हुए हैं, वे ऐसी तोप तैयार कर रहे हैं जो अत्यन्त दूरी पर निशाना फेंक सकें। उस तोप में ऐसा गोला रखा जायगा जिसमें यात्री लोग बैठ सकें। यह गोला चन्द्र या मंगल तक उन्हें पहुँचा देगा, ऐसी उनकी मान्यता है। वह प्रयोग कहाँ तक सफल होगा, यह तो भविष्य बतायेगा पर भूतकाल में यह भली प्रकार, साबित हो चुका है कि योग साधना रूपी लक्ष्यवेध उपरोक्त विधि-विधान के आधार पर देव शक्तियों के साथ टकराता है, उन्हें पकड़ता है और उन्हें मनुष्य के लिए उसी प्रकार प्रस्तुत कर देता है, जिस प्रकार आज के वैज्ञानिकों ने बिजली, भाप आदि की शक्तियों को मनुष्य की सुख-साधना के लिए लगा दिया है। योग साधक अपनी देह की शक्ति को सुसंचालित करके देवशक्तियों तक पहुँचते हैं और उनसे वे लाभ, वरदान प्राप्त करते हैं, जिनकी उन्हें आवश्यकता होती है। हमारे इतिहास, पुराण पग-पग पर इस महासत्य की साक्षी देते हैं।

विज्ञान का मार्ग एक होते हुए भी उनके साधन मार्गों में अन्तर होता है तथा हो सकता है। रेडियो का विज्ञान एक है, पर रेडियो यन्त्रों की बनावट, हर बनाने वाला अलग-अलग रखता है। घड़ियों और मोटरों के पुर्जों में भी इसी प्रकार का हेर-फेर हुआ करता है। इस प्रकार के अन्तर होते हुए भी इन विविध आकृति के यन्त्रों से लाभ एक-सा ही मिलता है। योग साधना के अनेक मार्ग हैं, उनमें से एक मार्ग 'गायत्री मार्ग' भी है। गायत्री की साधना-पद्धति द्वारा भी उन सूक्ष्म देव शक्तियों से साधक अपने को सम्बद्ध कर सकता है और अभीष्ट लाभ उठा सकता है।

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