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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15486
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियों का विस्तृत विवेचन

षट्चक्र-शक्ति


षट्‌चक्रों का नाम अध्यात्म-विद्या के प्रेमियों ने सुना होगा। मेरुदण्ड के आदि से लेकर अंतिम सिरे तक पहुँचते-पहुँचते छ: स्थानों पर छ: शक्ति संस्थान पाये जाते हैं। इसमें ऐसी विद्युत् धाराओं का तारतम्य है, जो निखिल आकाश में व्याप्त प्रचण्ड शक्तियों के साथ अपना संबंध बनाये रखती हैं। यह षट्‌चक्र-शक्ति संस्थान जब जाग्रत् होते हैं, तो उनकी सक्रियता बढ़ जाती है और वह बड़ी हुई सक्रियता प्रकृति-प्रवाह में से अपने काम की धाराओं को पकड़कर अभीष्ट प्रयोजन के लिए अपने समीप खींच लेती है। जिस प्रकार अजगर अपने नेत्रों की विद्युत् धारा से छोटे-मोटे जीवों को अपनी ओर खींचता है और वे बेचारे अनायास हो घिसटते हुए उसके मुख में चले जाते हैं, उसी प्रकार षट्‌चक्रों के जाग्रत् शक्ति संस्थान निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त एक से एक बड़ी-चढ़ी विभूतियों को अपनी ओर आकर्षित करके उनके अधिपति बन जाते हैं। सिद्ध पुरुषों में ऐसी कितनी ही विशेषताएं विभूतियों पायी जाती हैं, जिनसे वे सामान्य व्यक्तियों के स्तर की तुलना में कहीं अधिक सार्थ्यवान् एवं सुविकसित सिद्ध होते हैं। अष्ट सिद्ध, नव निधि का वर्णन योग शास्त्रों में मिलता है। साधना मार्ग पर चलने वाले कितने ही व्यक्तियों में कुछ अलौकिक विशेषताएँ देखी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक आधार यही है कि साधना द्वारा उस साधक ने अपने शरीर में सन्निहित शक्ति संस्थानों को जगाया और उनसे ब्रह्माण्ड-व्यापी विभूतियों के आदान-प्रदान का संबंध जोड़ लिया।

षट्‌चक्र प्रख्यात हैं। उनके अतिरिक्त २४ विशिष्ट और ८४ सामान्य शक्ति केन्द्र भी इस शरीर में विद्यमान हैं। इन्हें उपत्यिकाएँ और विभेदिकाएँ कहते हैं। २४ उपत्यिकाएँ छोटे-छोटे षट्‌चक्रों जैसे शक्ति संस्थान ही है। ये शरीर के विभिन्न स्थानों पर विद्यमान हैं। गायत्री महामंत्र में २४ अक्षर जब स्पन्दित होते हैं, तब मुख में उत्पन्न हुई गतिविधियों का सूक्ष्म प्रभाव उन उपत्यिकाओं पर पड़ता है और वे स्वसंचालित हलचल बनकर उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जाग्रत् स्थिति में परिणत करने का कार्य आरंभ कर देती हैं। अधिक जप करने की निरन्तर चल रही प्रक्रिया पत्थर पर घिसने वाली रस्सी की तरह प्रभाव डालती रहती है और वे संस्थान जैसे-जैसे अपनी मूर्छा दूर करके चेतन भूमिका में आते-जाते हैं, वैसे-वैसे इस उपासना में संलग्न अपने आप को अलौकिक शक्तियों से सुसंपन्न अनुभव करता हुआ आत्मविकास की ओर बढ़ता चला जाता है।

शरीर के किस स्थान पर कौन उपत्यिका उपस्थित है और गायत्री मंत्र का कौन सा अक्षर उसे प्रभावित करने का प्रयोजन पूर्ण करता है, इसका दिग्दर्शन अगले पृष्ठ पर छपे चित्र में दिय। गया है। जिस प्रकार टाइपराइटर की कुंजिया पर उँगली दबाने से उसकी जुड़ी हुई तीली उठती है और कागज पर टकराकर अपना अक्षर छाप देती है, इसी प्रकार मुख से स्पन्दित हुए गायत्री मंत्र के २४ अक्षर एक-एक उपत्यिकाओं पर प्रभाव डालते हैं और वे वैज्ञानिक व्यवस्था के आधार पर सूक्ष्म होने लग जाते हैं।

आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों ने नवीनतम शोधों के आधार पर मानव शरीर में अवस्थित कुछ विलक्षण ग्रंथियों की खोज की हैं। ये छोटी-छोटी गाँठें शरीर के विभिन्न स्थानों पर पड़ी हुई निरर्थक जैसी दीखती है। उनमें पसीना जैसा एकरस स्रवित होता रहता है उसे 'हारमोन' कहते हैं। यह हारमोन जब रक्त में मिलते हैं, तो विभिन्न प्रकार की विलक्षणताएँ पैदा करते हैं। सामान्यतया सभी शरीर हाड़-माँस की दृष्टि से लगभग एक ही तरह के हैं। जीवनयापन और आहार-विहार के तौर-तरीकों में थोड़ा बहुत ही अंतर होता है। फिर एक से दूसरे में जो जमीन-आसमान जैसा अंतर पाया जाता है उसका क्या कारण है? इस प्रश्न का उत्तर शरीरशास्त्री उन हारमोनों की विचित्रता और विलक्षणता बताते हैं।! उनका कहना है कि अवयव एवं आहार-विहार का क्रम भले ही एक-सा हो-मनुष्यों में यह सूक्ष्म ग्रंथियाँ असामान्य स्तर की होती हैं और उनसे स्रवित होने वाले हार्मोन, न्यूनाधिक होने के कारण मनुष्यों में विलक्षणता पैदा कर देते हैं। शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक एवं आत्मिक विशेषताओं।। का उत्तरदायित्व वे इन हार्मोन ग्रंथियों पर आरोपित करते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि इन शक्ति संस्थानों पर औषीध या शल्यक्रिया कोई काम नहीं करती, इनकी गतिविधियों को घटना-बढ़ाना यदि किसी माध्यम से संभव हो सकता है, तो उसमें मानवीय विद्युत् विज्ञान के विज्ञानी ही सफल हो सकते हैं, शरीरशास्त्री नहीं।

मानवीय विद्युत् विज्ञान ही वस्तुत: योग साधना का प्रमुख प्रयोजन। है। हाड़-मास नहीं-मानवीय व्यक्तित्व एवं वर्चस्व का आधार उसमें प्रवाहित विद्युत् धाराएँ ही होती हैं। मेरुदण्ड में प्रवाहित होने वाला इड़ा और पिंगला का परिचय साधारण से साधारण साधक को भी होता है। यह दोनों निगेटिव और पोजेटिव-ऋण और धन विद्युत् धाराएँ हैं। इनसे मिलने से चैतना-सुषुम्ना पैदा होती है। इन तीनों में समुचित साधन करके शरीर के दो ध्रवों को-मूलाधार और सहस्र कमल को सचेतन बनाया जा सकता है। सुषुप्तावस्था में पड़ी हुई जीवन शक्ति-कुण्डलिनी को जगाने के बाद कोई साधक सूक्ष्म प्रकृति के साथ अपना इतना अधिक संपर्क बना सकता है कि उसे इच्छानुसार दिशा में मनचाहे ढंग से मोड़ सके।

जिस प्रकार चेतन परमात्मा की इच्छा से प्रभावित होकर विश्व की विधि-व्यवस्था, सूक्ष्म प्रकृति, मोड़-तोड़ लेती रहती है, उसी प्रकार आत्मबल से सुसंपन्न आत्मा भी अपनी चेतन सत्ता का प्रभाव प्रकृति के अंतराल में फैला सकती है और सूक्ष्म वातावरण को मनमानी दिशा में मोड़ सकती है। इस सामर्थ्य का नाम सिद्धावस्था है। सिद्ध पुरुषों में जो अगणित अलौकिकताएँ पायी जाती हैं-उनके द्वारा असंभव कार्य करके दिखाये जाते हैं, इसका कारण यही है कि उनने अपनी अंतःचेतना को इतना बलवान् बना लिया होता है कि प्रकृति की धाराओं को वे मनचाही दिशा में मोड़ सकें। सामान्य मनुष्य प्रकृति की व्यवस्था से अनुबंधित रहते हैं। उन्हें उधर ही चलना पड़ता है, जिधर प्रकृति की विधि-व्यवस्था चलाती है; किन्तु सिद्ध पुरुष प्रकृति की धारा को अपनी भावना के अनुरूप मुड़ने को विवश कर सकते हैं। वे समय, युग, परिस्थिति, विधान और व्यवस्था को बदल सकते हैं-ऐसे प्रमाण योग विज्ञान के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं। आज भी वैसे उदाहरण शोधकर्त्ताओं को मिल सकते हैं।

यह आत्मिक समर्थता, अलौकिकता किसी को उपहार में नहीं मिलती, वरन् प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने भीतर उत्पन्न करनी पड़ती है। इसी उपार्जन-उत्पादन का नाम साधना अथवा तपश्चर्या है। यह अंधविश्वास नहीं, वरन् एक विशुद्ध विज्ञान है, जिसकी सत्यता प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर कसी जा सकती है। गायत्री उपासना इस मार्ग पर चलने की ही एक पूर्ण सुव्यवस्थित एवं पग-पग पर परीक्षित क्रिया पद्धति है। उसका वास्तविक शुभारंभ २४ अक्षरों को बार-बार दुहराने से, जप करने से ही होता है। क्रमबद्ध रूप से बार-बार किसी शब्द गुच्छक-मंत्र का उच्चारण पुनरावृत्ति करते रहने से एक विशिष्ट प्रकार का वर्तुल बन जाता है और उस आधार पर एक स्वसंचालित शक्ति प्रवाह प्रादुर्भूत होने लगता है। यह वर्तुल प्रवाह बाह्य जगत् में अभीष्ट स्तर की हलचल पैदा करता! है और शरीर के भीतर की प्रसुप्त उपत्यिकाओं को एक ऐसी क्रमबद्ध प्रक्रिया के साथ शनै: शनै: सजग करने लगता है, जिसमें कोई अवांछनीय गड़बड़ी उत्पन्न न हो; क्योंकि तांत्रिक उपासनाएं तीव्र और तीक्ष्ण होती हैं। उनसे शक्ति केन्द्रों के जागरण मैं शीघ्रता तो होती है, पर साथ ही यह खतरा बना रहता है कि द्रुतगामी हलचल आत्मिक क्षेत्र में गड़बड़ी पैदा न कर दे और साधक को किसी अप्रत्याशित जोखिम का सामना करना!पड़े। दक्षिण-मार्गी उपासनाओं में सफलता कुछ देर से मिलती है, पर किसी प्रकार का खतरा प्रस्तुत होने की आशंका नहीं रहती। जप ऐसा ही प्रारंभिक प्रयोग है। उसका सहारा लेकर आत्म शक्ति के अक्षय भण्डार से पूर्ण उपत्यिकाओं को शान्ति एवं सुव्यवस्था के साथ जगाया जा सकता है। जप के द्वारा जो शक्ति की वर्तुल प्रवाह-धारा प्रादुर्भूत होती है, वह अपना काम करती रहती है और समयानुसार उसका आशाजनक प्रतिफल उत्पन्न होता है।

आकाश में आजकल जो राकेट, उपग्रह फेंके जा रहे हैं, पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के दायरे से बाहर निकलने पर सीधी आगे की दिशा में ऊपर की ओर नहीं चले जाते, वरन् प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप परिक्रमा करने जैसी कक्षा में घूमने लगते हैं। पृथ्वी की एक नियत मार्ग से परिक्रमा करके उस स्थान पर वापस आ जाते हैं, जहाँ से चले थे। फिर इसी अपनाये हुए मार्ग पर चलते और गोलाई में घूमकर वापस आते रहते हैं। जब तक कोई विशेष कारण न हो, तब तक उनकी यही क्रिया पद्धति चलती रहतीं है, जब तक इनका अस्तित्व रहता है। यही क्रिया पद्धति समस्त ग्रहों -उपग्रहों की है, वे अपनी एक नियत निर्धारित कक्षा में घूमते हुए एक गति वर्तुल बनाते रहते हैं। शब्द का क्रम भी यही है। वह मुख से निकलकर निखिल आकाश में भ्रमण करने निकल जाता है और एक विस्तृत कक्षा में भ्रमण करता हुआ अपने उद्‌गम स्थान पर लौट आता है। फिर आगे बढ़ना, उसी कक्षा में घूमना और फिर उद्‌गम स्थान पर वापिस आना, उस शब्द राकेट का क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उच्चारण करने वाले का अस्तित्व मौजूद है। गायत्री जप में उच्चारित किये गये शब्द निखिल आकाश में वर्तुल प्रवाह उत्पन्न कुरते हुए अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं और जिस कामना के साथ वे उद्‌भूत हुए थे, उसके अनुरूप प्रकृति के अंतराल में अभीष्ट वातावरण बनाते हैं। फलत: वांछाएँ पूर्ण होने की संभावनाओं का सृजन होने लगता है। उपासना से कामना पूर्ति का प्रयोजन इसी प्रकार पूर्ण होता है।

गायत्री जप द्वारा उत्पन्न हुआ शक्तिशाली वर्तुल-प्रवाह केवल निखिल ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण नहीं करता, वरन् पिण्ड में-शरीर के भीतर भी ऐसी ही हलचल उत्पन्न होती है। महामंत्र के २४ अक्षर शरीर के भीतर भी एक परिभ्रमण बनाते हैं और २४ उपत्यिकाओं को बार-बार स्पर्श करके उनमें हल्का-हल्का गुदगुदी जैसा स्पन्दन करते हैं। आतरिक जागृति का यह सुकोमल क्रियाकलाप स्वसंचालित रीति-नीति से गतिशील रहता है और कालान्तर में साधक को असाधारण आत्म-शक्ति से संपन्न कर देता है। दूसरे साधारण ढंग से व्यक्ति जब अपनी आतरिक प्रसुप्त अवस्था के साथ उस सजग, आत्मबल वाले साधक की तुलना करते हैं, तो सब यही कहते हैं-उसमें असाधारण अलौकिकता आ गई, यह व्यक्ति वह कार्य कर सकता है, जो हम नहीं कर सकते। यह अन्तर अनायास ही उत्पन्न नहीं हो जाता, इसके लिए व्यवस्थित रीति से गायत्री महामंत्र की साधना करनी होती है। कहना न होगा कि साधना का प्रथम साधन, जाप ही है। किसी भी मंत्र की शक्ति का लाभ लेना हो, तो उसका जाप करना अनिवार्य है। बार-बार दुहराये हुए शब्द अंतर प्रदेश में एक-गुंजन प्रतिध्वनि का रूप धारण करके हर छोटे-बड़े शक्ति संस्थान में व्याप्त हो जाते हैं। फलत: उस शरीर एवं अंतःकरण की प्रकृति प्रयुक्त मंत्र की सामर्थ्य के अनुरूप ढल जाती है। दीर्घकालीन सतत साधना वाला साधक एक प्रकार से मंत्र मूर्ति ही हो जाता है, उसके व्यक्तित्व में से मंत्र की सामर्थ्य झलकने लगती है। वही सिद्धि है। विनियोग में विश्वामित्र गायत्री के ऋषि कहे जाते हैं। जिन्होंने गायत्री को आत्मसात् किया था, वे गायत्री स्वरूप बन गये थे। उनने इस महातत्त्व का साक्षात्कार किया था, अपने व्यक्तित्व को इस योग्य बनाया था कि इस महामंत्र का अवतरण उसमें हो सके।

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