आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री पंचमुखी और एकमुखी गायत्री पंचमुखी और एकमुखीश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की पंचमुखी और एकमुखी स्वरूप का निरूपण
(२) प्राणमय कोश
'प्राण' शक्ति एवं सामथ्र्य का प्रतीक है। मानव शरीरों के बीच जो अन्तर पाया जाता है, वह बहुत साधारण है। एक मनुष्य जितना आहार करता है, जितना श्रम करता है, जितना लम्बा, मोटा, भारी है, दूसरा भी उससे थोड़ा-बहुत न्यूनाधिक होगा। परन्तु मनुष्यों के बीच जो जमीन-आसमान का अन्तर पाया जाता है, उसका कारण उनकी आन्तरिक शक्ति है।
विद्या, चतुराई, अनुभव, दूरदर्शिता, साहस, लगन, धैर्य, जीवन शक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरुषार्थ, महानता आदि नामों से इस आन्तरिक शक्ति का परिचय मिलता है। आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राण शक्ति कहते हैं।
प्राण नेत्रों में होकर चमकता है, चेहरे पर बिखरता फिरता है, हावभाव में उसकी तरंगें बहती हैं। प्राण की गन्ध में एक ऐसी विलक्षण मादकता होती है, जो दूसरों को विभोर कर देती है। प्राणवान् स्त्री-पुरुष मन को ऐसे भाते हैं, कि उन्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता।
प्राण वाणी में घुला होता है, उसे सुनकर सुनने वाले की मानसिक दीवारें हिल जाती हैं। मौत के दाँत उखाड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जब मनुष्य चाहता है, तो उसके पास प्राण शक्ति ही ढाल-तलवार होती है। चारों ओर निराशाजनक घनघोर अन्धकार छाया होने पर भी प्राण-शक्ति आशा की प्रकाश रेखा बनकर चमकती है। बालू से तेल निकालने की, मरुभूमि में उपवन लगाने की, असम्भव को सम्भव बनाने की, राई को पर्वत करने की सामथ्र्य केवल प्राणवान् में ही होती है। जिसमें स्वल्प प्राण है, उसे जीवित मृत कहा जाता है। शरीर से हाथी के समान स्थूल होने पर भी उसे पराधीन, पर-मुखापेक्षी ही रहना पड़ता है। अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों पर थोपकर किसी प्रकार मन को सन्तोष देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा के लिए वह अपनी सामथ्र्य पर विश्वास नहीं करता। किसी सबल व्यक्ति की, नेता की, अफसर की, धनी की, सिद्ध पुरुष की, देवी-देवता की सहायता ही उनकी आशाओं का केन्द्र होती है। ऐसे लोग सदा ही अपने दुर्भाग्य का रोना रोते हैं।
प्राण द्वारा ही वह श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है, जो भव बन्धनों को काट कर आत्मा को परमात्मा से मिलाती है। 'मुक्ति' को परम पुरुषार्थ माना गया है। संसार के अन्य सुख साधनों को प्राप्त करने के लिए जितने विवेक, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है, मुक्ति के लिए उससे कम की नहीं वरन् अधिक की आवश्यकता होती है।
मुक्ति विजय का उपहार है, जिसे साहसी शूरवीर ही प्राप्त करते हैं। भगवान् अपनी ओर से न किसी को बन्धन देते हैं न मुक्ति, दूसरा न कोई स्वर्ग में ले जा सकता है न नरक में। हम स्वयं ही अपनी आन्तरिक स्थिति के आधार पर जिस दिशा में चलते हैं, उसी लक्ष्य पर जा पहुँचते हैं।
उपनिषद् का वचन है कि "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः'' वह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होता। निस्तेज व्यक्ति जब अपने घर वालों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों, मित्रों को प्रभावित नहीं कर सकते, तो भला परम आत्मा (परमात्मा) पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा? तेजस्वी व्यक्ति ही आत्म-लाभ भी कर सकते हैं। इसलिए प्राण संचय के लिए योग शास्त्रों में अधिक बल दिया गया है। प्राणायाम की महिमा से सारा अध्यात्म शास्त्र भरा पड़ा है।
जैसे सर्वत्र ईश्वर की महिमामयी गायत्री शक्ति व्याप्त है, वैसे ही निखिल विश्व में प्राण का चैतन्य समुद्र भी भरा पड़ा है। जैसे श्रद्धा और साधना से गायत्री शक्ति को खींचकर अपने में धारण किया जाता है, वैसे ही अपने प्राणमय कोष को संतेज और चेतन करके विश्वव्यापी प्राण से यथेष्ट मात्रा में प्राण तत्व खींचा जा सकता है। यह भण्डार जितना अधिक होगा, उतने ही हम प्राणवान् बनेंगे और उसी अनुपात से सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्तियाँ प्राप्त करने के अधिकारी हो जाएँगें।
चैतन्य, स्फूर्ति, उत्साह, दृढ़ता, साहस, धैर्य, क्रियाशीलता, कष्टसहिष्णुता, बुद्धि की सूक्ष्मता, मनमोहकता आदि विशेषताएँ प्राणशक्ति रूपी फुलझड़ी की छोटी-छोटी चिनगारियाँ हैं।
भारतीय योगशास्त्र, षट्चक्रों में सूर्य चक्र को बहुत अधिक महत्त्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी सूर्य ग्रन्थि को सूक्ष्म तन्तुओं का केन्द्र स्वीकार किया है और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है।
कुछ वैज्ञानिकों ने इसे 'पेट का मस्तिष्क' नाम दिया है। यह सूर्य चक्र या 'सोलर प्लेक्सस' आमाशय के ऊपर हृदय धुकधुकी के ठीक पीछे मेरु-दण्ड के दोनों ओर स्थित है, यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गुद्दी से बना हुआ है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आन्तरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं, किन्तु सच बात यह है कि यह खोज अभी अपूर्ण है, सूर्य चक्र का कार्य और महत्त्व उससे अनेक गुना अधिक है, जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाए, तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है।
योगशास्त्र इस केन्द्र को प्राणकोश मानता है और कहता है कि यहीं से निकल कर एक प्रकार का मानवी विद्युत् प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इसी संस्थान में रहती है।
मेरुदण्ड के दाँये-बाँये नाड़ी गुच्छाकों की जो प्रथम श्रृंड़लायें चलती हैं, इन्हीं को योग में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वास क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचारित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छाकों के ऊपर प्रधान रूप से है। प्राणमय कोश की साधना में इन इड़ा, पिंगला नाड़ियों को नियत विधि के अनुसार बलवान् बनाया जाता है, जिससे उसके सम्बन्धित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनन्दमयी स्वास्थ्य प्राप्त हो सके।
आकाश में वायु तत्त्व के साथ धूल मिली प्राण शक्ति भरी पड़ी है। साधारणतया साँस लेने के साथ नासिका छिद्रों से इस प्राण तत्व का एक अंश ऑक्सीजन के रूप में हम ग्रहण करते हैं और उसी के आधार पर जीवन धारण किये रहते हैं। यह सामान्य प्राण शक्तियाँ हैं जो प्राणी मात्र के जीवन में स्वभावतया चलती रहती हैं। शुद्ध वायु, सही तरीके से लेते रहा जाए, तो आहार मिलता रहता है और जीवन प्रवाह बहता रहता है, इसमें किसी प्रकार का व्यवधान पड़ जाय, तो मृत्यु सामने आ खड़ी होती है, अन्न और जल के बिना कुछ दिन मनुष्य जीवित रह सकता है, पर वायु के बिना एक घण्टा भी जीवन सम्भव नहीं। इस पर भी यदि वायु में प्राण तत्त्व का अभाव हो, विषैली गैस में साँस लेनी पड़े, तो कुछ क्षण में ही मरण हो जाता है। यह है वायु में स्वल्प मात्रा में घुले हुए सामान्य से प्राण-तत्त्व का महत्त्व।
इस विश्वव्यापी सचेतन विद्युत् शक्ति प्राण को यदि वैज्ञानिक पद्धति से अधिक मात्रा में उपार्जित एवं धारण किया जाए तो इस आधार पर हाड़मांस का शरीर अत्यन्त शक्ति सम्पन्न ताकत केन्द्र बन सकता है। प्राणवान्। व्यक्ति साहस के पुतले होते हैं और जिस कार्य को सामान्य व्यक्ति कष्ट साध्य एवं असम्भव मानते हैं, उन कार्यों को वे अपनी प्रखर प्राणशक्ति के बल पर सरलतापूर्वक कर लेते हैं। अद्भुत प्रगति कर दिखाते हैं।
प्राण शक्ति लौकिक जीवन की सफलता में जितनी उपयोगी है, उतनी ही आध्यात्मिक उपलब्धियों में भी उसकी आवश्यकता है। षट्चक्रों का वेधन, ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि का विमोचन, कुण्डलिनी जागरण, तन्त्रोक्त वाममार्ग आदि उच्चस्तरीय साधनाएँ प्राणशक्ति की प्रचुरता होने पर ही सफल होती हैं।
प्राण शक्ति के अभिवर्द्धन के लिए ८४ प्रकार के प्राणायामों का तथा अन्यान्य साधनाक्रमों के विधान हैं। साधक की आन्तरिक स्थिति के अनुरूप अनुभवी मार्गदर्शक उनका अभ्यास कराते हैं। इस मार्ग पर जो जितना बढ़ता जाता है। उसका ओजस् उसकी प्रत्येक स्थिति में दृष्टिगोचर होने लगता है।
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