आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री प्रार्थना गायत्री प्रार्थनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री प्रार्थना
युगऋषि परम पूज्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
हिमालय पिता ने गुरुदेव का व्यक्तित्व विनिर्मित किया। गुण, कर्म और स्वभाव की उत्कृष्टता उसी की देन है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन उन्हें पिता का दिया हुआ है। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता, लक्ष्य की ऊँचाई, सर्वतोमुखी प्रतिभा, अविचल साहस और अटूट धैर्य जैसी दिव्य संपदाओं को लेकर ही वे ऊँचे उठे और महामानव के स्तर तक पहुँचे। यदि ऊपर से यह अनुग्रह न मिला होता, तो अपने बलबूते इतना उपार्जन करना तो दूर, इतनी सफलता मिलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था।
साधनों की दृष्टि से उन्हें असमर्थ और असहाय ही कहना चाहिए। पैसे की दृष्टि से हाथ खाली, माँगने में इतना संकोच, जिससे किसी को आवश्यकता का पता भी न चले। भरपूर विज्ञापन न करने के कारण धनी लोगों की उपेक्षा आदि अनेक बाधक कारणों के रहते हुए भी उनकी योजनाएँ धन के अभाव में रुकी नहीं। इसे उनके मार्गदर्शक की प्रत्यक्ष अनुकंपा ही कहना चाहिए। बोलने में उन्हें रुकावट होती, पर जब भाषण देने खड़े होते, तो जिह्वा पर सरस्वती आ विराजती। लेखनी का जादू भरा संपादन रहता। लेखनी मस्ती पैदा करती और उसमें स्फुरणा जाग पड़ती। उनका लिखा जिसने पढ़ा, प्रभावित हुए। बिना न रहा। इस लेखनी का ही चमत्कार है, जिसने करोड़ों को उनके प्रवाह में बहने और साथ उड़ने के लिए विवश कर दिया। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के नए प्रतिपादन ने संसार भर में हलचल पैदा कर दी। संगठन की क्षमता, रचनात्मक कार्यक्रमों की योजना, भावी महाभारत की व्यूह रचना जिस दूरदर्शिता के साथ की जाती रही है और सफलता की प्रतिक्रिया तत्काल परिलक्षित होती है, उसके पीछे गुरुदेव की अपनी प्रतिभा नहीं, वरन् निश्चित रूप से उनके महान् मार्गदर्शक का अनुदान ही मूल कारण है। युग निर्माण अभियान की जो कुछ भी सफलता दृष्टिगोचर होती है, उसे उनके मार्गदर्शक का अनुदान माना जाए। यह अनुदान गुरुदेव ने कीमत चुका कर पाया था, पात्रता सिद्ध करने पर मिला था।
ब्रह्मवर्चस, आत्मबल और ऋषितत्त्व उन्हें गायत्री माता से ही प्यार-उपहार में मिला था। वे धनी नहीं थे, पर उनकी दिव्य संपदा का पारावार नहीं था। अपने निकट आने वाले किसी को खाली हाथ नहीं जाने देते। जो भी समीप आया, माता जैसी उदार अंतरात्मा ने पहले उसकी व्यक्तिगत व्यथा, चिंता और कठिनाई को समझने की कोशिश की और अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहायता में कोई कंजूसी नहीं की। किसी पर अहसान करने के लिए नहीं, चमत्कार दिखाकर और फिर उससे कुछ काम निकालने की बात कभी स्वप्न में भी नहीं सूझी। रोते हुए आने वाले हँसते हुए लौटे।
गुरुदेव की आत्मीयता का विकास ही है, जिसने लाखों व्यक्तियों को मजबूत रस्सी के साथ जकड़कर उनके साथ बाँध दिया। विद्वत्ता, प्रतिभा, भाषण, लेखन, संगठन और आंदोलन आदि बहुत छोटे आधार हैं। यह कला दूसरों को भी अच्छी तरह आती है, पर वे इतना सघन कुटुंब कहाँ बना पाते हैं। उनकी कला केवल आकर्षण का केंद्र बनी रहती है। ऐसे व्यक्तित्व किसी को घनिष्ठ आत्मीयता से बाँध लेने और उनसे साहसपूर्ण कार्य करा सकने में समर्थ नहीं होते। पूज्य गुरुदेव ने हिमालय के वातावरण में अंतर्मुखी होकर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त दिव्यता को पढ़ा, समझा और वे तत्त्वदर्शी के स्तर तक पहुँचे।
कष्ट-पीड़ितों और अभावग्रस्तों को उनका अनुदान सदा मिलता रहा। रोते को हँसाने में उन्हें मजा आता। यह उनका सबसे बड़ा विनोद-व्यसन कहा जा सकता है। जिन्हें वे कुछ ऊँचा उठा देखते, उनकी कामनाओं और तृष्णाओं को तृप्त नहीं, वरन् समाप्त करते और उन्हें बड़प्पन से छुड़ा कर महानता में संलग्न करते। जिन्हें और भी ऊँचा समझते उन्हें और भी ऊँचा उपहार देते। अहंता और तृष्णा छोड़े बिना ब्रह्मवर्चस् मिलता नहीं। जिसे सबसे अधिक प्यार करते, उसकी तृष्णा और अहंता छीनकर अपने सदृश बनाने का प्रयास करते। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न उन्होंने इसी आधार पर देखा। स्वर्ग की ज्ञान-गंगा को धरती पर लाने के प्रयास में भगीरथ की तरह जूझते रहे और गायत्री माता की दिव्य सत्ता उन्हें मुक्त हस्त से सहायता प्रदान करती रही।
गुरुदेव की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने आस्तिकता की गरिमा को अपने जीवन की प्रयोगशाला में यथार्थ सिद्ध किया और उन लोगों का मुँह बंद किया जो इसे भ्रम या छद्म कहते रहे। गुरुदेव ने अपने लेखों और प्रवचनों में ही नहीं, आचरण की भाषा में भी यह कहा कि यदि देवसान्निध्य, ईश्वरीय अनुग्रह और आत्मबल अभीष्ट है, तो सबसे प्रथम चरण दृष्टिकोण के परिष्कार का उठाया जाना चाहिए। अपने को मात्र शरीर और मन से बना मांसपिंड मानकर वासनातृष्णा के, पेट-प्रजनन के तुच्छ प्रयोजनों में ही संलग्न नहीं रहना चाहिए, वरन् कुछ आत्मकल्याण की, मानवीय गरिमा की और जीवनोद्देश्य की बात भी सोचनी चाहिए और उसके लिए कुछ कारगर प्रयत्न भी करने चाहिए।
पूज्य गुरुदेव के संकल्प के साथ गुरु का बल और महाकाल का आश्वासन था कि वे किसी से भी बिना सहायता माँगे विचार क्रांति का माहौल तैयार करेंगे। उन्होंने सब कुछ दाँव पर लगा दिया। कुछ धनपति वित्तीय समूहों ने उनके शुभ संकल्प को सुनकर धनराशि देने की बात कही, तो उन्होंने अस्वीकार कर दी। यह उनके ब्राह्मणत्व को एक चुनौती थी।। यदि युग निर्माण परिवार के सदस्य ऐसे ही लोभ-मोह में ग्रस्त, पेट और प्रजनन में व्यस्त और वासना-तृष्णा का पशु जीवन जीकर मर जाते हैं, तो यह गुरुदेव के लिए भी लज्जा की बात है और इस परिवार के लिए भी कलंक की। हाथी के बच्चे बकरों की शक्ल में दीखें, इसमें उपहास हाथी का भी है और बच्चों का भी। परिवार जब बन ही गया है, तो शोभा इसी में है कि उसका स्तर भी कुलपति के अनुरूप रहे। हर अभिभावक की अपनी संतान के प्रति ऐसी ही इच्छा रहती है। युग निर्माण परिवार का प्रत्येक सदस्य महामानवों की ऐतिहासिक भूमिका निभा सके, वे इसी उधेड़-बुन में लगे रहे। पूज्य गुरुदेव अपना तप और पुण्य देकर आत्मिक लालच भी इसीलिए पूरा करते रहे कि आगे चलकर संभवतः हम बालक उनके आदर्शों को अपनाने का साहस करें।
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