आचार्य श्रीराम शर्मा >> इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1 इक्कीसवीं सदी बनाम उज्जव भविष्य भाग-1श्रीराम शर्मा आचार्य
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विज्ञान वरदान या अभिशाप
वैज्ञानिक शोधें भी पूर्वाभास से उपजीं
अनेकानेक आविष्कारों पर दृष्टि डाली जाए, तो ज्ञात होगा कि इनका पूर्व स्वरूप एक खाके के रूप में मनीषीगणों के अंत:करण में उपज चुका था, उन्हें तत्संबंधी पूर्वाभास अंतःबोध हुआ। उसकी परिणति एक प्रारंभिक आविष्कार के रूप में हुई। क्रमशः संशोधन होते-होते आज वाली प्रगतिशील स्थिति में विज्ञान ने यह यात्रा पूरी कर ली है। कुछ आविष्कारों पर नजर डालें तो बात और भी साफ हो जाएगी।
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के सिद्धांत की जानकारी देकर विज्ञान जगत में क्रांति ला दी। सब जानते हैं कि वे चिंतन में निमग्न थे। एक सेब का फल टूटकर पृथ्वी पर गिरने की घटना ने ही उनकी अंत:प्रज्ञा में हलचल मचा दी, यह पृथ्वी पर ही क्यों गिरा? यह चिंतन करते-करते वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पृथ्वी के अंदर प्रचुर मात्रा में गुरुत्व बल विद्यमान है, जो वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है।
पतीली में उबलते पानी की भाप से उठते एवं गिरते ढक्कन ने किशोर जेम्सवाट की अंत:सामर्थ्य को उकसाया और भाप की शक्ति का सिद्धांत उत्पन्न कर, न केवल रेलें चलाई जा सकीं, अपितु औद्योगिक क्रांति का आधार खड़ा करने की स्थिति उत्पन्न हो ऐसी संभावनाएँ बन गईं।
श्री फ्रेंडरिक कैकुले भी बेंजीन के न्यूक्लियस की खोज करते-करते स्वप्नावस्था में चले गए। उनने देखा कि एक साँप कुंडली मारकर बैठा है अपनी ही पूँछ काट रहा है। तुरंत जागकर उनने इसका चित्र बनाया, तो आश्चर्यचकित देखते रह गए कि षटकोण के रूप में वे न्यूक्लियस की आकृति खींच चुके थे। आट्टोलेवी को भी इसी प्रकार स्नायु तंतुओं में काम करने वाले उस रस के समीकरणों का अंतर्बोध हुआ, जो स्नायु-संधि केंद्रकों (सिनेप्सों) पर विद्युतप्रवाह के लिए उत्तरदायी था। कागज पर उतारते ही एसिटाइल कोलोन, कोलोन एस्टरेस जैसे महत्वपूर्ण न्यूरोकेमीकल्स की प्रारंभिक शोध का कार्य पूरा हो चुका था।
वस्तुत: जिन भी संभावनाओं पर मनीषा चिंतनरत रहती है, वे अचेतन के गर्भ में पहले ही जन्म ले चुकी होती हैं। कुछ अंतर्बोध के रूप में, तो कुछ स्वप्न, अंत:स्फुरणा के रूप में विकसित चेतना के धनी मनीषियों के मानस से फूट पड़ती है एवं आविष्कारों, पूर्वाभासों, भविष्यवाणियों का रूप ले लेती है।
अमेरिकी वैज्ञानिक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने तड़ित बिजली को चमकते देखकर सोचा कि इस वर्षा भरे तूफान में पतंग उड़ाकर देखा जाए। गीली डोर से उनने एक चाबी बाँधकर जमीन पर रख दी। उस लोहे की चाबी से जब उनने विद्युत स्फुलिंग चमकते देखे तो तड़ित बिजली चालक आष्विकार उनकी विकसित चेतना में उद्भूत हो चुका था। यह चमत्कार है उस अंतर्बोध का, मनीषा में जागे पूर्वाभास का, जिसने ऐसा कुछ संभव है, यह सोचकर किसी वैज्ञानिक को प्रयास-पुरुषार्थ को प्रेरणा दी।
इतिहास बताता है कि हर कल्पना, हर अप्रत्याशित घटनाक्रम को मूर्त रूप देने का कार्य दैवी चेतना ने मानवी प्रज्ञा के माध्यम से ही किया है। राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, चिंतक, प्रकृति के रहस्यों की खोज करने वाले तथ्यान्वेषी, लेखक, कवि, संगीतकारों को भी भावी कार्यों संबंधी प्रेरणा इसी आधार पर मिलती रही है। यहाँ तक कि असंभव को संभव कर दिखाने वाली प्रकृति प्रेरणा भी अचेतन में ही जन्मी व मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पनामा-स्वेज नहर, ताजमहल, हालेंड द्वारा समुद्र में डूबी धरती पर खेती आदि जैसे काम संपन्न होते चले गए, जिन्हें युगांतरकारी कहा जाता है। जिन्हें डाक व्यवस्था, नोट करेंसी का प्रचलन करने की सूझी अथवा समाज व्यवस्था हेतु प्रचलन परंपराएँ बनानी पड़ीं, उन्हें भी अंतर्प्रज्ञा ने बोध कराया होगा, परब्रम्ह की प्रेरणा उन्हें मिली होगी। पैगंबरों देवदूतों की बात करते हैं, तो आशय ऐसी ही विभूतियों से होता है, जिन्हें इलहाम होता रहा है। जिनकी विकसित चेतना भविष्य को पढ़ पाने में समर्थ रही है।
वही अंतःप्रेरणा, विकसित चेतना आज भविष्य पर दृष्टि डाले कुछ कहने पर उतारू है। आज संकटों से भरी वेला में दोनों ही प्रकार के भविष्य कथन हमारे सामने हैं। एक वे जिनमें आगामी वर्ष व इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध को खतरों-संकटों से घिरा बताया गया है, दूसरी वे जिनमें भविष्य के संबंध में उज्ज्वल संभावनाएँ प्रकट की गई हैं। इन्हीं का कहना है कि यदि मानवी प्रयास क्रम उलट दिए जाएँ, दिशा बदल ली जाए, गलती सुधार ली जाए, तो संभावित विपत्तियों के घटाटोप छंट सकते हैं। घटा कितनी ही काली एवं डरावनी क्यों न हो, तेज ऑधी उसे कहीं से कहीं पहुँचा देती है, उसकी भयावहता को निरस्त कर देती है। यही बात मानवी पुरुषार्थ के बारे में भी लागू होती है। वह चाहे तो हर भवितव्यता को बदल सकता है।
प्रस्तुत बेला जिससे विश्व मानवता गुजर रही है, परिवर्तन की है। युग परिवर्तन पूर्व में भी होता रहा है, जिसे सामूहिक विकसित चेतना नाम दिया जा सकता है। यही बिगड़ी स्थिति को देखते हुए सुनियोजित विधि व्यवस्था बनाने, प्राणवान प्रतिभाओं को इकट्ठा कर युग धर्म को निवाहने का सरंजाम पूरा करती है। अवतार इसी प्रवाह का नाम है। इन दिनों उसी महाकाल की प्रबल प्रेरणाएँ युग परिवर्तन के निमित्त नई परिस्थितियाँ विनिर्मित करती देखी जा सकती हैं। आवश्यकता इसी बात की है कि समय को पहचानकर, अपने प्रयास भी इसी निमित्त झोंक दिए जाएँ। श्रेय को पाने व अवतार प्रक्रिया का सहयोगी बनने का ठीक यही समय है।
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