आचार्य श्रीराम शर्मा >> जन्मदिवसोत्सव कैसे मनाएँ जन्मदिवसोत्सव कैसे मनाएँश्रीराम शर्मा आचार्य
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जन्मदिवस को कैसे मनायें, आचार्यजी के अनुसार
चार विशिष्ठ कर्मकाण्ड
जन्मोत्सव के कर्मकाण्ड में सामन्य गायवी हवन के अतिरिक्त
(१) पंच-तत्व पूजन,
(२) दीपदान,
(३) व्रत धारण,
(५) मृत्युञ्जय, हवन।
यह चार अतिरिक्त क्रिया की जाती हैं। इन्हें कराते समय उनका उद्देश्य उपस्थित लोगों को बताना चाहिए।
(१)पंच-तत्व पूजन - शरीर पंचतत्वों से बना है। इस संसार का प्रत्येक पदार्थ मिट्टी, जल, गर्मी, वायु, आकाश इन पाँच पदार्थों से बना है। इसलिए इस सृष्टि के आधारभूत यह पाँच ही दिव्य तत्व देवता हैं। उपकारी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मानवोचित धर्म-कर्तव्य है। कृतज्ञता की भावनाओं से अन्तःकरण ओत-प्रोत रखना भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग हैं। हम जड़ और चेतन सभी उपकारियों के प्रति कृतज्ञता भावना की अभिव्यक्ति के लिए पूजा-प्रक्रिया का अवलम्बन लेते हैं। पूजा से इन जड़-पदार्थों अदृश्य शक्तियों, स्वर्गीय आत्माओं का भले ही कोई लाभ न हो, पर हमारी कृतज्ञता का प्रसुप्त भाव जागृत होने से हमारी आन्तरिक उत्कृष्टता तो बढ़ती ही है। पंच--तत्वों का पूजन इनके विश्व के आधार-स्तम्भ होने की महत्ता के निमित्त किया जाता है।
इस पूजन का दूसरा उद्देश्य यह है कि इन पाँचों के सदुपयोग का ध्यान रखा जाय। शरीर जिन तत्वों से बना है, उनका यदि सही रीति-नीति से उपयोग करते रहा जाय तो कभी भी अस्वस्थ होने का अवसर न आवे। पृथ्वी से उत्पन्न अन्न का कितना, कब और कैसे उपयोग किया जाय इसका ध्यान रखें तो पेट खराब न हो, पेट की खराबी ही तो समस्त रोगों की जड़ है। यदि आहार की सात्विकता, मात्रा एवं व्यवस्था का ध्यान रखा जाय तो न अपच हो और न किसी रोग की सम्भावना बने। जल की स्वच्छता एवं उचित मात्रा को सेवन करने का, विधिवत स्नान का, वस्त्र, बर्तन, घर आदि की सफाई में जल के उचित प्रयोग का ध्यान रखा जाय तो समग्र स्वच्छता बनी रहे, शरीर, मन तथा वातावरण सभी कुछ स्वस्थ रहे। अग्नि की उपयोगिता, सूर्य ताप का शरीर, वस्त्र, घर आदि में पूरी तरह प्रयोग करने में है। भोजन में अग्नि का सदुपयोग भाप द्वारा पकाये जाने में है। शरीर में अग्नि ब्रह्मचर्य द्वारा सुरक्षित रहती एवं बढ़ती है। उपनिषदों में पञ्चाग्नि विद्या का आत्मोत्कर्ष में किस प्रकार उपयोग किया जाय उसका विस्तुत वर्णन है। अग्निपुराण में १३५ अग्नियों की चर्चा और उनका मानव-जीवन में किस तरह उपयोग हो सकता है उसका वर्णन है। यज्ञ स्वयं एक अग्नि-विज्ञान है। स्वच्छ वायु का सेवन, खुली जगहों में निवास, प्रात: टहलने जाना, प्राणायाम गन्दगी से वायु का दूषित न होने देना आदि वायु देवता की प्रतिष्ठा है। आकाश की पोल में ईश्वर, विचार, शब्द आदि अनेक पंच तत्व भरे पड़े हैं उनका मानसिक एवं भावना क्षेत्र में किस प्रकार क्या उपयोग किया जाय कि हमारी अन्त-चेतना उत्कृष्ट स्तर की ओर हो, यह जानना, समझना आकाश तत्व का उपयोग है। इस सदुपयोग के द्वारा हम अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को दिन-दिन बढ़ा सकते हैं। सुख-शान्ति और समृद्धि का पथ-प्रशस्त कर सकते हैं। पञ्च तत्वों को पूजन, हमारा ध्यान इस सबके सदुपयोग की ओर आकर्षित करता है।
तीसरी प्रेरणा यह है कि शरीर पञ्च तत्वों का बना होने के कारणं जरा, मृत्यु से बँधा हुआ है। यह एक वाहन और माध्यम है। जड़ होने के कारण कम महत्व है। इसे एक उपकरण औजार मात्र माना जाय। शरीर की सुख-सुविधा, तृष्णा-वासना को इतना महत्व न दिया जाय कि आत्मा के स्वार्थ पिछड़ जायें। आत्मा की उन्नति के लिए पंच तत्वों से बना यह शरीर मिला है। इसलिए इसका सदुपयोग निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही किया जाय। न कि शारीरिक वासनाओं मैं आत्मिक उद्देश्यों को समाप्त करके भविष्य को अन्धकरमय बना लें। पंचतत्व पूजन के समय शरीर और संसार का यथार्थ स्वरूप और प्रयोजन समझने की भावना यदि जाग पड़े तो हमें नर से नारायण बनने में देर न लगे।
(२) जन्मोत्सव का दूसरा विशाल कर्मकाण्ड दीप-दान है। जितने वर्ष की आयु हो उतने दीपक एक सुसज्जित चौकी पर बनाकर सजाये जाते हैं। आटे से बने ऊपर बत्ती वाले मृत दीप एक थाली में इस तरह सजाकर रखे जा सकते हैं कि उनका 'ॐ' 'स्वस्तिक' अथवा कोई और सुन्दर रूप बन जाय। इन दीपकों के ग्रास-पास पुष्प, फल, धूपबत्तियाँ, गुलदस्ते या कोई दूसरी चीजें सुन्दरता बढ़ाने के लिए रखी जा सकती है। कलात्मक सुरुचि भीतर हो तो सुसज्जा के अनेक प्रकार बन सकते हैं। इन दीपकों का पूजन किया जाता है। विधान-पुस्तक में उसका मन्त्र है।
जीवन का प्रत्येक वर्ष दीपक के समान प्रकाशवान् रहे तभी उसकी सार्थकता है। दीपक स्वयं तिल-तिल करके जलता है और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करता है। इस रीति-नीति का प्रतीक होने के कारण ही दीपक को प्रत्येक मांगलिक कार्य में पूजा एवं प्रधानता मिलती हैं। हमारे जीवन की रीति-नीति भी ऐसी ही होनी चाहिए।
दीपक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। अज्ञान को अन्धकार व ज्ञान को प्रकाश की उपमा दी जाती है। जिस सीमा तक हमारा मस्तिष्क एवं हृदय अज्ञानग्रस्त है उतना ही हम अँधेरे में भटक रहे हैं। मस्तिष्क का अन्धकार दूर करने के लिए हमें शिक्षा और हृदय का अन्धकार दूर करने के लिए विधा-ऋतम्भरा ज्ञान को अधिकाधिक मात्रा में संग्रह करना चाहिए। आत्म-ज्ञान का वैसा दीपक हमें अन्तःकरण में जलाना चाहिए जैसा रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तारपूर्वक बताया गया हे। दीप-दान में ऐसी ही अनेक प्रेरणायें सन्निहित हैं।
(३) तीसरी विशेष क्रिया जन्मोत्सव का व्रत धारण है। व्रतों के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति ही किसी उच्च लक्ष की ओर दूर तक अग्रसर हो सकने में समर्थ होता है। जिनका निश्चय संकल्प ढीला है अभी सोचा, एक कदम बढ़ाया कि दूसरे ही दिन ढीलेपन ने आलस ने आ घेरा और वह कार्य छूट गया। ढीली-पोली मनोभूमि के लोगों की मनोभूमि ऐसे ही अनेक शुभ-संकल्प और सत्प्रयत्नों की मरघट बनी रहती है। यदि किसी समय के वे मलूवे नियमित रूप से कार्यान्वित होते रहे होते तो सम्भवतः आज अपना जीवन कुछ से कुछ हो गया होता। उच्च आकांक्षायें समय-समय पर सभी के मन में उठती हैं पर मनस्वी लोग वतशील होकर अपने निश्चय पर आरूढ़ रहते हैं आलस्य और प्रमाद से लड़कर उन्हें परास्त करते हैं और महान् सफलतायें पाते हैं। इसके विपरीत दुर्बल मन वाले आलस्य एवं अवसाद में ग्रस्त होकर अपना प्रयत्न छोड़ देते हैं। असफल और सफल व्यक्तियों की मनोभूमि में यह एक ही अन्तर होता है।
इस मानसिक दुर्बलता को व्रत-बन्ध द्वारा दूर किया जा सकता है। मनुष्य को शुभ अवसरों पर भावनात्मक वातावरण में देवताओं की उपस्थिति में, अग्नि की साक्षी में व्रत धारण करने चाहिए और उनका पालन करने के लिए प्राणों की भी बाजी लगानी चाहिए। व्रतशील लोगों के लिए यह चौपाई पथ-प्रदर्शक होगी-
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जाँय पर वचन न जाई।।
दुष्प्रवृत्तियों का त्याग व्रतशीलता का आरम्भिक चरण है। मांसाहार, तमार बेईमानी, जुआ, फैशनपरस्ती, आलस, गन्दगी, क्रोध, चटोरपन, कामुकता, शेखीखोरी, कटुभाषण, ईर्ष्या, द्वेष, कृतम्नता आदि बुराइयों में से जो अपने में विद्यमान हों उन्हें छोड़ना चाहिए। कितनी ही भयानक कुरीतियाँ हमारे समाज में ऐसी हैं जो अतीव हेय होते हुए भी धर्म के नाम पर प्रचलित हैं। किसी वंश में जन्मने के कारण किसी को नीच मानना, स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अनधिकारिणी समझना, विवाहों में उन्मादी की तरह पैसे की होली फूँकना, दहेज, मृत्युभोज, देवताओं के नाम पर पशु-बलि, भूत-पलीत, टोना-टोटका का अन्धविश्वास, शरीर को छेदना या गोदना, जेबरों का शौक, अश्लील गायन, भिक्षा-जीविका, थाली में जूठन छोड़ना, गाली-गलौज की असभ्यता, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, श्रम का तिरस्कार आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं। इन मान्यताओं के विरुद्ध विदोह करने की आवश्यकता है। इन्हें तो स्वयं हमें ही त्यागना चाहिए। इसी प्रकार अन्य अनेक बुराइयाँ हो सकती है। उनमें से जो अपने में हों उन्हें संकल्पपूर्वक त्यागने के लिए जन्मदिन का शुभ अवसर बहुत ही उत्तम है।
यदि इस प्रकार की बुराइयाँ न हों, उन्हें पहले ही छोड़ा जा चुका हो तो अपने में सत्यवृत्तियों के अभिवर्धन के व्रत इस अवसर पर ग्रहण करने चाहिए। रात को जल्दी सोना, प्रात: जल्दी उठना, व्यायाम, नियमित उपासना, स्वाध्याय, गुरुजनों का चरणस्पर्श पूर्वक अभिवादन, सादगी, मितव्ययता, प्रसन्न रहने की आदत, मधुर भाषण
दिनचर्या बनाकर समयक्षेप, निरालस्यता, परिवार निर्माण के लिए नियमित समय देना, लोक-सेवा के लिए समय दान आदि अनेक सत्कार्य ऐसे हो सकते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित किये जाने चाहिए। इस प्रकार की कम से कम एक-एक अच्छी आदत अपनाने का उस दिन संकल्प लेना चाहिए और कम से कम एक बुराई भी उस अवसर पर छोड़ देनी चाहिए। यह दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने और सतवृत्तियाँ अपनाने का क्रम यदि हर जन्म-दिन पर चलता रहे तो कुछ ही वर्षों में उसका परिणाम व्यक्तित्व में हुए कायाकल्प की तरह दृष्टिगोचर होने लगेगा और वह जन्मोत्सवों का क्रम जीवन में दैवी वरदान की तरह मंगलमय परिणाम प्रस्तुत कर सकेगा।
(४) चौथी किया मृत्युञ्जय हवन की है। कुछ आहुतियाँ मृत्युञ्जय मन्त्र से दी जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करें। शरीर से तो एक दिन सभी को मरना पड़ता है, पर जिनने जीवन को यशस्वी बना लिया, जीवन मुक्ति का लाभ ले लिया अथवा जीवन और मृत्यु को एक ही स्तर पर अनुभव कराने वाले आत्म-ज्ञान का अभ्यास कर लिया उन्हें मृत्युञ्जय की सिद्धि हो गई, ऐसा मानना चाहिए। हम दीर्घजीवन के लिए शक्ति भर प्रयत्न करें और एक-एक पल का सदुपयोग कर सार्थक बनायें, साथ ही मरने से डरना भी छोड़े। अनीति के आगे सिर झुकाकर चिरकाल तक जीने की अपेक्षा न्याय, धर्म और कर्तव्य के मार्ग पर चलते हुए आज ही मर जाना अच्छा। वह जिन्दगी क्या जो धुएँ की तरह घुटन भरी धुँदकती रहे। दीप्तिमान् प्रज्वलित होकर जलना अच्छा। जो मृत्यु को जीवन की सहचरी बना सकता है, वह मृत्युञ्जय है। हमें जीवित मृत होकर नहीं, मृत्युञ्जय होकर जीना चाहिए। इन आहुतियों को देते हुए जन्मदिन के अवसर पर इन्हीं भावनाओं से भावान्वित होने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
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