आचार्य श्रीराम शर्मा >> जन्मदिवसोत्सव कैसे मनाएँ जन्मदिवसोत्सव कैसे मनाएँश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
जन्मदिवस को कैसे मनायें, आचार्यजी के अनुसार
नये कार्यकर्त्ताओं का प्रशिक्षण
मन्त्रोच्चारण के कार्य में जहाँ जितने भी सुशिक्षित व्यक्ति उपस्थित हों, सभी को सम्मिलित करना चाहिए। विधि-विधान की इतनी पुस्तकें शाखा के पास रहनी चाहिए कि उन्हें सभी शिक्षित लोगों में वितरित किया जा सके। सब लोग एक स्वर से एक लय से साथ-साथ मन्त्रोच्चारण करें, तो उससे प्रभावशाली वातावरण बनता है और जिन लोगों ने भी उच्चारण किया, पुस्तक को समझा एवं विधि-विधान को होते देखा है, वे दो-चार आयोजनों में सम्मिलित होने के बाद उस क्रिया-कृत्य को करा सकने में स्वयं समर्थ हो सकते हैं। आगे चलकर कुछ दिन बाद जब सांस्कृतिक पुनरुत्थान की आवश्यकता अनुभव की जायगी और समाज को सुसंस्कृत बनाने के लिए संस्कारों का व्यापक प्रचलन होगा, तब सबसे अधिक प्रचलित जन्म-दिवसोत्सव ही होगा। अन्य संस्कार तो यदा-कदा ही होते हैं, पर जब हर घर में, हर व्यक्ति का, हर साल उत्सव मनाया जायगा तब उसके विधान कराने वालों की भी बड़ी संख्या में अवश्यकता होगी। इसकी अभावपूर्ति वे ही लोग करेगे जो आज मन्त्रोच्चारण में सहायक के रूप में पुस्तकें हाथ में पकड़ने से अपना प्रशिक्षण आरम्भ कर रहे है। उत्सव के साथ-साथ, नये प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता तैयार करने का क्रम भी साथ-साथ चलते रहना चाहिए। ऐसा न हो कि एक पण्डित ही सारा विधि-विधान कराता रहे और बाकी लोग बुत की तरह उसके मुँह को देखते रहें।
मन्त्रोच्चारण की भांति प्रवचन, उद्बोधन भी आवश्यक है। जन-जागरण के लिए जन्मोत्सवों के दिन जितने प्रभावशाली ढंग से कहा सुना जा सकता है उतना अन्य किसी अवसर पर नहीं। जीवन को सफल, सार्थक, समृद्ध-सुसंस्कृत, सुखी-समुन्नत कैसे बनाया जाय इस समस्या के अगणित पहलू है और उन सभी पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। अब तक लोग भजन, तीर्थयात्रा आदि में जीवन की सार्थकता मानते रहे हैं, पर यथार्थ बात इससे सर्वथा भिन्न है। भजन भी जीवन-साधना का एक महत्वपूर्ण अंग है, पर उसे समग्र-सर्वांगपूर्ण नहीं कहा जा सकता। गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार, दृष्टिकोण में आदर्शवादिता एवं दूरदर्शिता का समन्वय, उदारता, सहृदयता एव सेवा-भावना का अभ्यास, श्रमशीलता, नियमितता एवं व्यवस्था, न्सता, मधुरता एवं प्रसन्नता, धैर्य, साहस एवं सन्तुलन, आशा एवं उत्साह आदि अनेक विशेषताओं से समन्वित जीवन ही सार्थक एवं अनुकरणीय कहा जा सकता है। व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास को ही जीवन-साधना कहना चाहिए और उसी के फलस्वरूप मनुष्य भौतिक एवं आध्यात्मिक विभूतियों को प्राप्त कर सकने का अधिकारी बनता है। यह तथ्य हमें भली प्रकार समझना और समझाना चाहिए। जन-जागरण का यही लक्त है।
|