आचार्य श्रीराम शर्मा >> महाक्रांति का शंखनाद महाक्रांति का शंखनादश्रीराम शर्मा आचार्य
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Maha Kranti Ka Shankhnad - a Hindi book by Sriram Sharma Acharya
दो शब्द
यह युग परिवर्तन का अति महत्त्वपूर्ण समय है। जब कोई बड़ा परिवर्तन तीव्र गति से व्यापक क्षेत्र में किया जाता है, तो उसे 'क्रान्ति' कहते हैं। इतिहास में अब तक जो-जो क्रान्तियाँ हुई हैं, वे पृथ्वी के किसी एक भूखण्ड पर ही हुई हैं; किन्तु अब जो क्रान्ति होने जा रही है, उसका क्षेत्र पूरा विश्व है। वह विश्व मानव के जीवन के स्थूल-सूक्ष्म हर पक्ष को प्रभावित करने वाली है। इसीलिए इसे 'महाक्रान्ति' कहा गया है।
किसी भी व्यापक परिवर्तन के लिए पहले लोगों को सूचित, जाग्रत्, सहमत किया जाता है। इसे प्रचारात्मक चरण कहते हैं। अगला चरण रचनात्मक होता है, जिससे परिवर्तन चक्र को सही दिशा में चलाने के लिए प्रामाणिक, प्राणवान् अग्रदूतों का सृजन किया जाता है। सृजनात्मक प्रवाह में बाधा पहुँचाने वाले निहित स्वार्थरत तथा विघ्न संतोषियों से प्रत्यक्ष मुकाबला भी करना पड़ता है। यह अंतिम चरण संघर्षात्मक कहा जाता है। कोई भी क्रान्ति इन तीनों चरणों से ही पूरी होती है।
इस संग्रह में युगऋषि द्वारा व्यक्त किए गए ऐसे प्रेरक अंशों का संकलन किया गया है, जो अग्रदूतों को समग्र क्रान्ति के लिए संतुलित दृष्टि, प्रखर प्रेरणा और सुनिश्चित अनुशासन प्रदान कर सकते हैं।
- प्रकाशक
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अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से अगले दिनों खड़ा किया जाना चाहिए। उसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएँ। दुष्टता को रोकने के लिए, हटाने-मिटाने के लिए विरोध, असहयोग, सत्याग्रह, धरना, घेराव के वे सभी हथियार काम में लाये जाएँ, जो स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध अपनाये गये थे। इस महाभारत को 'करो या मरो' के स्तर तक पहुँचाया जाना चाहिए। इस महाभारत को व्यापक 'सांस्कृतिक क्रान्ति' भी कहा जा सकता है। भले ही वह चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति की तरह उद्धत, उच्छृंखल न हो। उसके पीछे शालीनता को सुरक्षित बनाये रखा जाए, पर होगा वह विद्रोह ही। मनुष्यता की गौरव-गरिमा को कलंकित करने वाली हर दुष्प्रवृत्ति को अस्वीकृत ही नहीं किया जाए, वरन् उसका इस संजीदगी के साथ उन्मूलन किया जाए, जिससे कि फिर उसके सिर उठाने की संभावना ही शेष न रहे।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-२०३)
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युग निर्माण योजना ने एक संघर्षात्मक मोर्चा खड़ा किया है। अभी प्रचार, प्रदर्शन, असहयोग, विरोध जैसे माध्यम ही संघर्ष प्रयोजनों के लिए अपनाये गये हैं, पर अगले दिनों धरना, सत्याग्रह, घेराव जैसे कठोर कदम भी उठाये जायेंगे। एक दिन वह भी आयेगा जब अवांछनीयता के विरुद्ध युग निर्माण योजना तीव्र संघर्ष खड़ा करेगी और 'करो या मरो' की उग्रता लेकर मैदान में आयेगी। अनीतिवादियों को अत्याचार बंद करने के लिए बाध्य करेगी। जैसे-जैसे लोग अनौचित्य की हानियों को समझते जायेंगे और उसे निरस्त करने की आवश्यकता अनुभव करते जायेंगे, वैसे-वैसे ही इस प्रकार के संघर्ष की पृष्ठभूमि बनती जायगी। उपयुक्त अवसर पर एक ऐसा धर्मयुद्ध खड़ा किया जाएगा, जिसके आगे असुरता का खड़े रह सकना संभव ही न हो सके।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-१८)
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युग निर्माण संगठन की आवश्यकता और गतिविधियों की तीव्रता आँधी और तूफान की तरह बढ़ रही है। प्रवाह और उफान तो कोई दिव्य शक्ति ला रही है, उसकी चिन्ता नहीं करनी है। चिन्ता इतनी भर करनी है कि विश्व इतिहास के इस सबसे महत्त्वपूर्ण अभियान को सँभालना, व्यवस्थितं और नियंत्रित करना जिस प्रकार संभव हो, उसका प्रबन्ध करना चाहिए। युग निर्माण अभियान की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है, सुयोग्य और प्रशिक्षित, अनुभवी और कुशल लोकनेताओं की; जो इस अभियान के महामत्त गजराज को सही दिशा में चलाने की भूमिका कुशलतापूर्वक निभा सकें। अन्यथा वह अव्यवस्थित और अनियंत्रित होकर अवांछनीय दिशा में फूट सकता है।
(हमारी युग निर्माण योजना-२, पेज-९७)
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बंकिम बाबू (बंकिमचंद चटर्जी) का प्रसिद्ध उपन्यास 'आनन्द मठ' अंग्रेजी सरकार ने जब्त किया था। उसमें एक क्रान्तिकारी योजना थी। कुछ संतों ने मिलकर क्रान्तिकारी आन्दोलन सँभाला। साधु के रूप में धर्म प्रचार भी करते थे, साथ ही देश में स्वतंत्रता की आग भी भड़काते थे। अपने इस उद्देश्य के लिए उन्हें भारी त्याग भी करने पड़े और कष्ट भी सहने पड़े, किन्तु उन्होंने अपने उद्देश्य में भारी सफलता प्राप्त की। 'आनन्द मठ' की योजना का बीज यदि किसी को विकसित रूप में देखना हो, तो उसे युग निर्माण योजना द्वारा धर्ममंच के माध्यम से नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की दिशा में किए गये असाधारण कार्यों को देखना चाहिए और इस आन्दोलन का मूल्यांकन करना चाहिए। वस्तुतः भारतीय जनता के लिए यही माध्यम उपयुक्त है।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पृष्ठ-४०)
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मुद्दतों से देव परम्पराएँ अवरुद्ध हुई पड़ी हैं। अब हमें अपना सारा साहस समेट कर तृष्णा और वासना के कीचड़ से बाहर निकलना होगा, वाचालता और विडम्बना से नहीं, अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा। हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा। वाणी और लेखनी के माध्यम से लोगों को किसी बात की, अध्यात्मवाद की भी जानकारी भर कराई जा सकती है; इससे अधिक भाषणों का कोई उपयोग नहीं। दूसरों को यदि कुछ सिखाना हो, तो उसका एकमात्र तरीका अपना उदाहरण प्रस्तुत करना है। यही ठोस, वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है।
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन-८९)
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युग परिवर्तन के प्राचीन इतिहास के साथ एक महायुद्ध जुड़ा हुआ है। इस बार भी उसकी पुनरावृत्ति होगी, पर यह पूर्वकालिक शस्त्र युद्धों से भिन्न होगा। यह क्षेत्रीय नहीं, व्यापक होगा। इसमें विचारों के अस्त्र प्रयुक्त होंगे और घर-घर में इसका मोर्चा खुला रहेगा। भाई-भाई से, मित्र-मित्र से और स्वजन-स्वजन से लड़ेगा। अपनी दुर्बलताओं से हर किसी को स्वयं लड़ना पड़ेगा।
परिवार को सुधारने के लिए मंत्रणाएँ, प्रेम, आग्रह यहाँ तक कि भूख हड़ताल, मौन धारण, असहयोग आदि का सहारा लेकर, उन्हें सन्मार्ग अपनाने के लिए विवश करना होगा। समाज में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध असहयोग, विरोध, संघर्ष के तीनों उपाय काम में लाने पड़ेंगे और समयानुसार अहिंसा से लेकर हिंसा तक के आधार ग्रहण करने पड़ेंगे। इस प्रकार अनोखा महाभारत लड़ा जाएगा।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-१५०)
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काम कितना अधिक करने को पड़ा है। मंजिल कितनी लम्बी पार करनी है। विकृतियों की जड़ कितनी गहरी है। सृजन के कितने साधन जुटाने हैं, उसे देखते हैं, तो लगता है कि इस युग के हर भावनाशील और जीवित व्यक्ति को गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रामतीर्थ, गाँधी, दयानन्द की तरह भरी जवानी में ही कर्मक्षेत्र में कूद पड़ना चाहिए। बुढ़ापे की राह नहीं देखना चाहिए।
पर इतना साहस न हो, तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि पके फल की तरह पेड़ में चिपके रहने की धृष्टता न करें। जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुके हैं, वे घर-गृहस्थी की छोटी सीमा में ही आबद्ध न रहकर विशाल कर्मक्षेत्र में उतरें और जन-जागृति का शंख बजाएँ-युग परिवर्तन की कमान सँभालें।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-१७२)
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यह परिस्थिति हर विचारशील को यह सोचने के लिए विवश करती है कि आज की रीति-नीति को बदला जाना चाहिए। बदलाव के स्वरूपों और तरीकों में अंतर है, पर यह निष्कर्ष सर्वसम्मत है कि आदमी को नेक और उदार होना चाहिए तथा उसकी गतिविधियाँ ऐसी हो, जो एक-दूसरे से टकराने की नहीं, वरन् स्नेह-सहयोग की स्थिति पैदा करें-यही युग की पुकार है। यही महाकाल की आकाँक्षा है। पर दुनिया एक नशेबाज की तरह है, जिसे अपने पुराने ढर्रे के दोष विदित होते हुए भी उसे बदलने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होती है। परिवर्तन की बात सुनकर उसका जी घबराता है, डर लगता है। यदि इस रुचि को बदला न जाए, लकीर के फकीर बने रहने की रूढ़िगत परम्पराओं से चिपके रहने की आदतों को न सुधारा जाए, तो फिर तेजी से सर्वनाश के निकट जा पहुँचना ही एकमात्र परिणाम शेष रह जाएगा।
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन, पेज-७७)
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जाग्रत् आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है। उनकी अंतरात्मा उन्हें पग-पग पर बेचैन कर रही है, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जियेंगे, पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नर कीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे। ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे। लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे, उनके लिए स्वत: अनुकरणीय आदर्श बनकर खड़े होंगे। यह आंतरिक समुद्र मंथन इन दिनों हर जीवित और जाग्रत् आत्मा के अंदर इतनी तेजी से चल रहा है कि वे सोच नहीं पा रहे हैं कि आखिर यह हो क्या रहा है? वे पुराने ही हैं, पर भीतर कौन घुस पड़ा, जो उन्हें ऊँचा सोचने के लिए ही नहीं, ऊँचा करने के लिए भी विवश-बेचैन कर रहा है। निश्चित रूप से यह ईश्वरीय प्रेरणा का अवतरण है।
(हमारी युग निर्माण योजना-१)
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जहाँ ज्ञान को, विवेक को, तर्क को, औचित्य को सफलता नहीं मिलती, वहाँ दण्ड प्रहार की करारी चोटें थोड़े ही समय में सब कुछ ठीक कर देती हैं। मनुष्य की चिर-संचित दुर्बुद्धि और हठवादिता बदली जानी आवश्यक है। इसी प्रयोजन के लिए महाकाल को ताण्डव नृत्य का सरंजाम जुटाना पड़ रहा है।
अंत:प्रेरणा जिन्हें मिली है, वे अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व की उपेक्षा नहीं कर सकते। जीवनयापन के सामान्य क्रम में व्यवधान सहकर भी आपत्तिकालीन युगधर्म को निबाहने के लिए तत्पर होते हैं।
जिनके भीतर ईश्वरीय प्रकाश की किरणें विद्यमान हैं, वे युग परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण अवसर पर संकीर्ण स्वार्थों में हानि पड़ने की बात सोचकर अपना बचाव करने के लिए बहाने नहीं ढूंढ़ते। संकटकाल में अवकाश प्राप्त सैनिक ड्यूटी पर लौट आते हैं। ऐसे विशिष्ट अवसर जैसा कि ऐतिहासिक संध्या काल इन दिनों उपस्थित है, सहज व्यक्तियों के लिए अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने की चुनौती उपस्थित करते हैं।
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन-८२,८३)
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इन दिनों महाकाल ने आग्रहपूर्वक प्राणवानों को सहयोग देने के लिए बुलाया है। वस्तुतः यह श्रेयाधिकारी बनने का सौभाग्य संदेश भर है।
भगवान् के काम, समय के उपक्रम एवं दिव्य शक्तियाँ अपनी अदृश्य क्षमता के आधार पर स्वयं ही संपन्न कर लेती हैं। रीछ-वानर रूठ-मटककर बैठ जाते, तो भी सीता वापसी और लंका की दुर्गति निश्चित थी। ऐसे अवसरों का सबसे बड़ा लाभ वे अग्रगामी उठाते हैं, जो संकीर्ण स्वार्थपरता को छोड़कर समय की माँग पूरी करने के लिए बिना समय आँवाये अग्रिम मोर्चे पर जा खड़े होते हैं। युगसंधि की प्रस्तुत प्रभात वेला को ठीक ऐसा ही मुहूर्त समझा जाना चाहिए, जिसमें साहसी, सदाशयी छोटे-छोटे कदम बढ़ाने पर भी अत्यधिक श्रेय संचित कर सकने वाले दूरदर्शियों में गिने जायेंगे।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-१८)
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जो हमें प्यार करता है, उसे हमारे मिशन से भी प्यार करना चाहिए। यदि केवल हमारे व्यक्तित्व के प्रति ही श्रद्धा है, शरीर से ही मोह है, उसी की प्रशस्तिपूजा की जाती है और मिशन की बात उठाकर ताक पर रख दी जाती है, तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा डुलाया जा रहा हो।
अपनी मनोदशा मिशन को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न और संतुष्ट होने की है। अब उसी में अपना सारा आनन्द-उल्लास केन्द्रीभूत हो गया है। सो जो कोई उस दिशा में आगे बढ़ता दिखता है, तो लगता है अपने कर्तव्य के लिए ही नहीं, हमारे लिए भी बहुत कुछ करने में संलग्न है। ऐसे लोगों के प्रति हमारी श्रद्धा, कृतज्ञता, ममता और सहानुभूति का अंत:प्रवाह अनायास ही प्रवाहित होने लगता है। वस्तुत: भावना और आदर्शों की प्रखरता से ही अपने को शान्ति और संतुष्टि मिलती है।
(अखण्ड ज्योति-१९६९, अगस्त-१०)
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गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य को आपसी खींचतान में अनावश्यक समय नष्ट नहीं करना चाहिए। जन्म-जन्मांतर से संग्रहीत उनकी उच्च आत्मिक स्थिति आज अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही है। महाकाल अपने संकेतों पर चलने के लिए बार-बार हमें पुकार रहा है। रीछ-वानरों की तरह हमें उनके पथ पर चलना ही चाहिए। आत्मा की पुकार अनसुनी करके वे लोभ-मोह के पुराने ढर्रे पर चलते रहे, तो आत्म-धिक्कार की इतनी विकट मार पड़ेगी, कि झंझट से बच निकलने और लोभ-मोह को न छोड़ने की चतुरता बहुत मँहगी पड़ेगी। अंतर्द्वन्द्व उन्हें किसी काम का न छोड़ेगा। मौज-मजा का आनन्द आत्म-प्रताड़ना न उठाने देगी और साहस की कमी से ईश्वरीय निर्देश पालन करते हुए जीवन को धन्य बनाने का अवसर भी हाथ से निकल जाएगा।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-७८)
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जहाँ बहुत लोग नेता बनें, जहाँ बहुतों की महत्त्वाकाँक्षा यश-लिप्सा हो, वह दल अथवा संगठन नष्ट होकर रहता है। युग शिल्पियों-गायत्री परिवार के परिजनों को समय रहते इस खतरे से बचना चाहिए। हममें से एक भी लोकेषणाग्रस्त बड़प्पन का महत्त्वाकाँक्षी न बनने पाये। जो युग शिल्पी-प्रज्ञा परिजन विश्व विनाश को रोकने चले हैं, यदि वे महत्त्वाकाँक्षा अपनाकर साथियों को पीछे धकेलेंगे, अपना चेहरा चमकाने के लिए प्रतिद्वन्द्विता खड़ी करेंगे, तो अपने पैरों कुल्हाड़ी मारेंगे और इस मिशन को बदनाम, नष्टभ्रष्ट करके रहेंगे, जिसकी नाव पर वे चढ़े हैं।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-पेज-३१)
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हमें समझना चाहिए कि भौतिक उद्देश्यों के लिए हमारा युग निर्माण अभियान नहीं चल रहा है। जनमानस का भावनात्मक नव निर्माण अपना उद्देश्य है। यह कार्य आत्म-निर्माण से ही आरम्भ हो सकता है। अपना स्तर ऊँचा होगा, तो ही हम दूसरों को ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकते हैं।
जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है। जो दीपक स्वयं बुझा पड़ा है, वह दूसरों को जला सकने में समर्थ नहीं हो सकता है। हम आत्मनिर्माण में प्रवृत्त होकर ही समाज निर्माण का लक्ष्य पूरा कर सकेंगे। युग निर्माण परिवार के प्रत्येक सदस्य को विश्वास करना चाहिए कि उसने दैवी प्रयोजनों के लिए जन्म लिया है। उसे लोभ-मोह के लिए नहीं सड़ना-मरना है।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-७५)
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हमारा युग निर्माण परिवार बढ़ेगा। उसमें अवांछनीय घटनाएँ भी होती रहेंगी। इतने बड़े समुदाय में एक भी अपूर्ण, अपवित्र व्यक्ति न तो पैदा होगा और न प्रवेश कर सकेगा, इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती, पर वह दृष्टि जीवन्त रहनी चाहिए कि श्रद्धा के साथ विवेक कायम रखा जाए। औचित्य का समर्थन करते हुए अनौचित्य की संभावना को नजरअंदाज न किया जाए। अति श्रद्धा और अति विश्वास भी इस जमाने में जोखिम भरा है। इसलिए नीति समर्थक और अनीति निरोधक दृष्टि सदा पैनी रखी जाए और सड़न पनपने से पहले ही उसकी रोकथाम कर दी जाए। अनाचार के विरुद्ध हमारा रोष और आक्रोश प्रचण्ड रहना चाहिए और मित्र तथा संबंधी होने पर भी उसके असहयोग एवं प्रतिरोध की नीति अपनानी चाहिए।
(अखण्ड ज्योति १९७६, नवंबर-६४)
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युग निर्माण परिवार के सदस्यों की दृष्टि अनौचित्य के प्रति अत्यन्त कड़ी रहनी चाहिए। जहाँ भी वह पनपे, सिर उठाये, वहीं उसके असहयोग एवं विरोध प्रदर्शन से लेकर दबाव देने तक की प्रतिक्रिया उठ खड़ी होनी चाहिए। अनौचित्य के प्रति हममें से प्रत्येक में प्रचण्ड रोष एवं आक्रोश भरा रहना चाहिए। इतनी जागरूकता के बिना दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं सकेंगी। छिपाने, समझौता कर लेने से सामयिक निन्दा से तो बचा जा सकता है, पर इससे सड़न का विष भीतर ही भीतर पनपता रहेगा और पूरे अंग को गलाकर नष्ट कर देगा।
(अखण्ड ज्योति-१९७६,नवम्बर-६४)
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स्मरण रखा जाए कि हम चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा का आन्दोलन करने चले हैं। यह लेखनी या वाणी से नहीं, उपदेशकों की व्यक्तिगत चरित्र निष्ठा से ही संभव होगा। उसमें कमी पड़ी तो बकझक, विडम्बना भले ही होती रहे, लक्ष्य की दिशा में एक कदम भी बढ़ सकना संभव न होगा। हममें से अग्रिम पंक्ति में जो भी खड़े हों, उन्हें अपने तथा अपने साथियों के संबंध में अत्यन्त पैनी दृष्टि रखनी चाहिए, कि आदर्शवादी चरित्र निष्ठा में कहीं कोई कमी तो नहीं आ रही है। यदि आ रही है, तो उसका तत्काल पूरे साहस के साथ उन्मूलन करना चाहिए । यही हमारी स्पष्ट नीति रहनी चाहिए।
(अखण्ड ज्योति-१९७६, नवम्बर ६५)
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आज भी अपने देश में धन की, विद्या की, प्रतिभा की कमी नहीं। कमी है केवल उदारता की, देश भक्ति की। हर व्यक्ति अपने को अमीर बनाने में, अधिकाधिक मौज-मजा करने में और अहंकार की तृप्ति में लगा है। अपनी सारी उपलब्धियों का लाभ अपने आप तक ही सीमित रखना चाहता है। यदि थोड़ी उदारता अंत:करणों में उतर गई होती और जो संपत्ति, विद्या, बुद्धि स्वार्थपरता की तृप्ति में लगी हुई है, वह यदि समाज निर्माण में लग गई होती, लोगों ने औसत भारतीय नागरिक की तरह गुजारे में संतोष किया होता और अपनी उपलब्धियों को लोकमंगल के लिए समर्पित किया होता; तो जो कुछ वैभव हमारे पास है, उतने से ही हमारा देश प्राचीनकाल के रामराज्य जैसी उन्नति से कहीं आगे निकल गया होता। पर उस संकीर्ण स्वार्थपरता को क्या कहा जाए? जो मनुष्य के गले में फाँसी बनी बैठी है और अहंता एवं विलासिता की तृप्ति से एक कदम आगे नहीं बढ़ने देती।
(युग निर्माण योजना-१, पृष्ठ-३२)
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जिन लोगों ने युग निर्माण के इस महाप्रयास में भाग लेने की तड़पन अनुभव की है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि यह कोई बहकावा या भावावेश नहीं है। सामयिक उत्तेजना भी इसका कारण नहीं है। यह आत्मा का निर्देश और ईश्वर का संकेत है। उसे उन्होंने एक असाधारण सौभाग्य के रूप में उपलब्ध किया है। ऐसे महान् अवसरों पर अग्रदूत बनने का अवसर हर किसी को नहीं मिलता। रामावतार में जो श्रेय अंगद, हनुमान् और नल-नील को मिला, उससे दूसरों को वंचित ही रहना पड़ा। युग परिवर्तन की अग्रिम पंक्ति में जिन्हें घसीटा या धकेला गया है, उन्हें अपने को आत्मा का-परमात्मा का प्रिय भक्त ही अनुभव करना चाहिए और शान्त चित्त से धैर्यपूर्वक उस पथ पर चलने की सुनिश्चित तैयारी करनी चाहिए। खींचतान में अनावश्यक समय नष्ट नहीं करना चाहिए।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पृष्ठ-७७)
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यदि परमार्थ प्रयोजनों में समय, श्रम, मनोयोग लगाने एवं सादगी का उपयोग करने में जी धड़कता है, साहस नहीं उठता और कंजूसी आड़े आती है, तो समझना चाहिए कि अपनी वाचालता और विडम्बना में ही प्रगति हुई है। आत्मिक स्तर तो गड्डे में ही पड़ा है। ऐसी हेय स्थिति में हममें से किसी को भी नहीं पड़ा रहना चाहिए। अपनी आधी सम्पदाएँ और विभूतियाँ शरीर निर्वाह और परिवार पालन के भौतिक पथ को और आधी आत्म-परिष्कार, संस्कार, लोकमंगल के लिए बाँट देनी चाहिए। यह बँटवारा न्यायानुकूल है। भौतिक पक्ष के ऊपर सारा जीवन रस टपका दिया जाए और आत्मिक पक्ष एक-एक बूंद के लिए प्यासा मरे, वह जीवन का अत्यन्त भयंकर दुर्भाग्य और अतीव दु:खात्मक दुर्घटना होगी।
(हमारी युग निर्माण योजना-१, पृष्ठ-८०)
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बुरे आदमी बुराई के सक्रिय और सजीव प्रचारक होते हैं। वे अपने आचरणों द्वारा बुराइयों की शिक्षा लोगों को देते हैं। उनकी कथनी और करनी एक होती है। जहाँ भी ऐसा सामंजस्य होगा, उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। हममें से कुछ लोग धर्म प्रचार का कार्य करते हैं, पर वह सब कहने भर की बातें होती हैं। इन प्रचारकों की कथनी और करनी में अंतर रहता है। यह अन्तर जहाँ भी रहेगा, वहाँ प्रभाव भी क्षणिक रहेगा। आज आवश्यकता है सच्चे धर्म प्रचारकों की, जिनकी कथनी और करनी में अंतर न रहे। वे अपने आदर्शों के प्रति सच्चे रहें।
(अखण्ड ज्योति-१९६२, जनवरी-१३)
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जिन लोगों ने हमारे अनुरोधों को मानते हुए उपासना एवं जीवन निर्माण की दृष्टि से बहुत कुछ किया है, उनसे यह आशा भी हमें करनी ही चाहिए कि राष्ट्रीय नव निर्माण के उतने ही महत्त्वपूर्ण कार्य में भी उनका योग हो। व्यक्तिवाद हमारे देश में हर व्यक्ति पर बुरी तरह छाया हुआ है। अपनी ही बात हम सब सोचते हैं। समूहगत भावनाएँ उठती ही नहीं। समाज सेवा के कार्य में जब तक उत्साह न उठेगा, तब तक उंस मन के बारे में यह नहीं कहा जा सकेगा कि उसके भीतर अध्यात्म का प्रकाश आ गया। स्वार्थी मनुष्य फिर चाहे वह स्वर्ग-मुक्ति के लिए दिन भर माला ही क्यों न जपता रहे, संकीर्ण मनोभूमि का ही माना जाएगा।
(अखण्ड ज्योति-१९६४, नवम्बर-४९)
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हम युग निर्माण योजना की प्रचार और प्रसार की नगण्य जैसी प्रक्रियाएँ पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगों पर पड़ेगा। कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नव निर्माण के इस महाभारत में भागीदार बने बिना बच नहीं सकता। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें, तो उन्हें बहुत मँहगी पड़ेगी। लड़ाई के मैदान से भाग खड़े होने वाले भगोड़े सैनिकों की जो दुर्दशा होती है, अपनी भी उससे कम न होगी।
चिरकाल बाद युग परिवर्तन की पुनरावृत्ति हो रही है। परिजन एकान्त में बैठकर अपनी वस्तुस्थिति पर विचार करें। वे अन्न-कीट और भोग-कीटों की पंक्ति में बैठने के लिए नहीं जन्मे हैं। उनके पास जो आध्यात्मिक सम्पदा है, वह निष्प्रयोजन नहीं है। अब उसे अभीष्ट विनियोग में प्रयुक्त किये जाने का समय आ गया है, सो उसके लिए अग्रसर होना ही चाहिए।
आज धर्मनीति से लेकर राजनीति तक, कला से लेकर विज्ञान तक हर क्षेत्र में विडम्बनाओं और विभीषिकाओं को अपनाकर मनुष्य सत्यानाश के सर्वग्राही मार्ग पर सरपट दौड़ा जा रहा है। ऐसी दशा में सर्वत्र दु:ख-दारिद्य की, शोक-संताप की, क्लेशकलह की परिस्थितियाँ फैली पड़ी हैं। यह परिस्थितियाँ यथावत् देर तक नहीं चल सकतीं।
इच्छा और अनिच्छा से हमको बदलने के लिए विवश होना ही पड़ेगा। असंतुलन को संतुलन में बदलने के आश्वासन के अनुसार 'तदात्मानं सृजाम्यहम्' का वचन पूरा करने अवतरित होकर महाकाल आ ही रहे हैं। अब की बार उनका आगमन किसी व्यक्ति के रूप में नहीं, एक प्रखर आँधी और तूफान जैसी प्रक्रिया रूप में होगा-इसी का नाम है-युग परिवर्तन अभियान।
(हमारी युग निर्माण योजना-१)
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हम अकेले चलें। सूर्य और चंद्र की तरह अकेले चलने में हमें तनिक भी संकोच न हो। अपनी आस्थाओं को दूसरों के कहे-सुने अनुसार नहीं, वरन् स्वतंत्र चिंतन के आधार पर विकसित करें। अंधी भेड़ों की तरह झुण्ड का अनुगमन करने की मनोवृत्ति छोडें। सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्धारित करें। सही को अपनाने और गलत के छोड़ देने का साहस ही युग निर्माण परिवार के परिजनों की वह पूँजी है, जिसके आधार पर वे युग संधि की वेला में ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व का सही रीति से निर्वाह कर सकेंगे। ऐसी क्षमता पैदा करना हमारे लिए उचित भी है और आवश्यक भी।
(हमारी युग निर्माण योजना-१)
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योजनाएँ कितनी ही आकर्षक क्यों न हों, उनको आगे धकेलने वाले लोग जब आदर्शहीन, स्वार्थी और संकीर्ण दृष्टिकोण के हों, तो उनकी दृष्टि उस योजना से अधिकाधिक अपना लाभ लेने की होगी। इस विचित्रता में कोई योजना सफल नहीं हो सकती।
कोई भी महान् कार्य सदी आदर्शवादी आस्था लेकर चलने वाले लोग ही पूरा करते हैं। यदि इसी विशेषता का अभाव रहा, तो फिर योग्यता, शिक्षा तथा कौशल कितना ही बढ़ा-चढ़ा हो, वह व्यक्तिगत लाभ की ओर ही झुकेगा और वह समाज को हानि पहुँचाकर ही संभव हो सकता है। उसी आधार पर अपने मिशन का भी प्रतिपादन किया जाने लगा, तो एक अलग लेबिल भले ही लगा लें, अपनी गाड़ी भी उसी पटरी पर लुढ़कने लगेगी।
(प्रबुद्ध वर्ग धर्मतंत्र को सँभालें, पेज-२१)
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बेशक आदर्शों को छोड़ने के संबंध में कोई समझौता नहीं हो सकता। पाप के साथ पटरी नहीं बिठायी जा सकती है, पर इतना तो हो ही सकता है। कि जहाँ अपनी भूल हो, वहाँ दुराग्रह छोड़ दिया जाए। इतनी समझदारी तो बरतनी ही चाहिए कि दैवी दण्ड प्रक्रिया सिर पर आ टूटे, इसके पहले से स्वयं को नियंत्रित, अनुशासित बनाने का प्रयास तो किया हो जाए। चोर भी जब पकड़ा जाता है और अदालत के सामने लाया जाता है, तो सज्जनता और दीनता का इजहार करता है, ताकि कठोर दण्ड से थोड़ा बहुत बचाव संभव हो सके। समय से पूर्व सम्भल जाना बुद्धिमानी है।
अब तो जो हो चुका सो हो चुका, पर अब अविलम्ब हमें सुधरना और बदलना चाहिए। महाकाल समय पलट देने के लिए समुद्यत है। यह गंदा और फूहड़ जमाना निकम्मा और नाकारा सिद्ध हो चुका है।
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन, पेज-६९)
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युग निर्माण परिजनों को जेवर, जायदाद बनाने की नहीं, विश्व निर्माण की योजनाएँ बनानी चाहिए। ऐसा करने में ही युग सेनानी-युग निर्माताओं के अनुरूप शान रहेगी।
युग निर्माण आन्दोलन का लक्ष्य है—मनुष्य-मनुष्य के बीच दिखाई देने वाली असमानता का कहीं अस्तित्व न रहे। नर और नारी होने के कारण किसी को छोटा या बड़ा न समझा जाए और जाति-वंश के कारण किसी को ऊँच-नीच न ठहराया जाए।
धन का वितरण इस प्रकार का न हो, जिससे कोई अमीर बने और कोई गरीब रहे। हर व्यक्ति को प्रगति के लिए समान अवसर मिले। शान्ति के अनुसार हर किसी को काम करना पड़े और आवश्यकता के अनुरूप हर किसी को साधने उपलब्ध हों।
आदर्शों के उपदेशकों के लिए एक कड़ी परीक्षा यह है कि वह जिस स्तर पर लोगों को उठाना चाहता है, जैसा परिवर्तन औरों में कर दिखाना चाहता है, उसका नमूना अपने को बनाकर दिखाये । लोग वकृता सुनने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात में लेते हैं। कि जो कहा जा रहा है, उसे उपदेशक ने अपने निजी जीवन में किस हद तक अपनाया?
(अखंड ज्योति १९८९, अगस्त)
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आदर्शों का उद्घोष करते तो अनेकों हैं, पर उसका पालन करने का समय आने पर वे उद्घोषकर्त्ता ही मुखौटे बदल लेते हैं और हमारा अति महत्त्वपूर्ण आन्दोलन मात्र प्रोपेगण्डा का उपहासास्पद विषय बनकर रह जाता है, यह विडम्बना ही है। ऊँचे उद्देश्यों की प्राप्ति और पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्तित्व चाहिए, जो वाणी या लेखनी से उपदेश देने की प्रक्रिया अपनाकर कर्तव्य की इतिश्री न मान लें, वरन् ऐसे प्रतिभाशाली चाहिए, जो प्रयोग को अपने ऊपर करने के उपरान्त दूसरों को यह विश्वास दिला सकें कि उपदेष्टा की अपने प्रतिपादन पर कितनी गहरी निष्ठा है।
(अखण्ड ज्योति-१९८९, अगस्त)
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गैर जिम्मेदार, लापरवाह और अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने वाले अपना घोर अहित ही करते हैं। चोर और चालाक होते हुए भी तत्पर व्यक्ति लाभदायक रहता है, किन्तु ईमानदार और भला व्यक्ति होते हुए भी गैरजिम्मेदारी का व्यवहार करने वाला अधिक हानिकारक सिद्ध होता है। आत्मा के प्रति हमारी जिम्मेदारी है, ईश्वर के प्रति भी। उन्हीं के कारण हमारा अस्तित्व है। आवश्यक है कि हम आत्मा की आवाज सुनें और परमात्मा द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए मानव जीवन को सार्थक बनाएँ।
(वाङ्मय-६६, पृ० ६.३३)
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अपने भाग्य को स्वयं बन जाने की राह देखना भूल ही नहीं, मूर्खता भी है। यह संसार इतना व्यस्त है। कि लोगों को अपनी परवाह से ही फुरसत नहीं। यदि कोई थोड़ा-सा सहारा देकर आगे बढ़ा भी दें और उतनी योग्यता न हो, तो फिर पश्चात्ताप, अपमान और अवनति का ही मुख देखना पड़ता है। स्वयं मौलिक सूझबूझ और परिश्रम से बनाये हुए भाग्य में इस तरह की कोई आशंका नहीं रहती। जितनी योग्यता बढ़ती चले, सफलता की मंजिल उतनी प्राप्त करता चले। रास्ता सबके लिए खुला है, उस पर चलकर कितना पार कर सकता है, यह व्यक्ति की लगन, साहस और विश्वास पर निर्भर रहता है।
(अखंड ज्योति-१९६९, अप्रैल)
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मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। बहुत से ऐसे लोग पाये जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान् और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उसके अनुरूप नहीं होतीं। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन, तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार ऊपर से बड़े आदर्शवादी; किन्तु भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा रहे, तो ऐसे लोगों को भी चरित्रवान् नहीं माना जाएगा। वास्तव में चरित्रवान् वही होता है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है।
(अखंड ज्योति-१९६९, मई)
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गायत्री परिवार की छत्रछाया में वरिष्ठों का समुदाय एकत्रित हुआ है। उसकी जिम्मेदारी हजारों गुनी अधिक है। वह भी समय रहते चेतने में उपेक्षा दिखाए, तो समझना चाहिए कि आशा का टिमटिमाता दीपक भी बुझ गया। इस विषम वेला में वरिष्ठ परिजनों को यह फैसला कर ही लेना है कि सत्प्रवृत्तियों को अपने जीवन में धारण कर विचार क्रान्ति अभियान के लिए आदर्श बनना है या दुष्प्रवृत्तियों, छल-प्रपंच में ही फैंसे रहना है? आप समझदार लोग ही समय रहते चेतने में उपेक्षा दिखायेंगे, तो हमें बहुत कष्ट होगा।
(अखंड ज्योति-१९८४, अप्रैल)
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हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं, उनसे हम क्या कह सकते हैं। जागरूक लोगों से कहना चाहते हैं कि फिर ऐसा कोई समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। यह मानकर चलें कि इस समय भगवान् का काम करने के लिए आपकी नितान्त आवश्यकता है। सबसे बड़ा भाग्यशाली भी वही है, जिसे भगवान् के कार्य में हाथ बँटाने का अवसर मिल सके।
(अखण्ड ज्योति-१९८०)
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महापुरुषों का यह प्रधान सद्गुण है कि वे अपने जीवनोद्देश्य से कभी डिगते नहीं। उनके जीवन में उद्देश्य की एकता और तल्लीनता, लगन और तत्परता इस ऊँचे दर्जे तक पायी जाती है कि वह लोगों के अन्तस्तल को झकझोरे बिना मानती नहीं। आपकी महानता की कसौटी भी इसमें है कि अपने लक्ष्य के प्रति कितने आस्थावान् हैं? उसकी पूर्ति के लिए आप कितना त्याग और बलिदान करते हैं।
(जीवन की उत्कृष्टता-२५)
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याद रखिए कि स्वाभिमान ऊँचा रहता है, तो मनोबल भी बढ़ा हुआ होता है। हीन भावनाएँ रखेंगे और गलत काम करेंगे, तो आपका स्वाभिमान कौन ऊँचा रहने देगा? आप छोटे होने का विचार अपने मन से निकालकर दूर फेंकिए। आपके मन में अपार सामर्थ्य है। जो विज्ञान फैला पड़ा है, यह सब मन की शक्ति का चमत्कार है। उस शक्ति का अपमान न होने दीजिए।
अपने मनोबल को सदैव दृढ़ रखिए। मन हार जाता है, तो यह संसार भी दु:ख का आगार ही समझ में आता है। आपकी सफलता, आपकी जीत आपके मन की जीत है। इसे बलवान् रखना आपका धर्म है।
(वाङ्मय-५७, पृ० २.५०)
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आप अपनी मानसिक दुर्बलताओं का बिना किसी पक्षपात के विशेषण किया कीजिए। देखिए क्या यह कामनाएँ और वासनाएँ अन्त तक आपका साथ देंगी। आप इस पर जितना अधिक विचार करेंगे, उतना ही वे तुच्छ प्रतीत होंगी और उनके प्रति आपके जी में घृणा उत्पन्न होगी। मानसिक दुर्बलताएँ रुकेंगी, तो आंतरिक शक्तियों का प्रस्फुरण तीव्र होगा। आपके अंदर ईश्वरीय अंश बढ़ेगा। आपका जीवन हास्ययुक्त, चहकता और दमकता हुआ रहेगा।
(वाङ्मय-८, पृ० ६.२५)
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सभी चाहते हैं कि मन में बुरे विचार कभी न आएँ। सदा शान्त और आनंदित रहें। इसके लिए हम प्रयत्न भी करते हैं; किन्तु संसार की गति भी कुछ ऐसी है कि मन को आघात पहुँचाने वाली घटनाएँ यहाँ घटती रहती हैं। उन घटनाओं को सहते हुए भी जो मन को वश में रखता है और उसे शुभ संकल्पों से रिक्त नहीं होने देता, ईश्वर की आज्ञाओं का सच्चे मन से वही पालन कर सकता है। वस्तुतः जो मन को चंचल, अस्थिर या विकारपूर्ण नहीं होने देते, वही सच्चे साहसी, वीर और गंभीर होते हैं।
(वाङ्मय-८, पृ० ६.२२)
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अध्यात्म का-मानवीय प्रगति का प्रथम सोपान है-साहस। साहस भी वह, जो उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के लिए प्रयुक्त किया जा सके। जो दुष्कर्मों के लिए, अनीति के लिए, आतंक के लिए प्रयुक्त किया जाता है, उसे तो दुस्साहस मात्र कहना चाहिए। सत्साहस वह है, जो अनौचित्य एवं अविवेक के सामने सिर झुकाने से इन्कार कर दे और बड़ी से बड़ी हानि होने का खतरा उठाकर भी सन्मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ बना रहे।
(वाङ्मय-६६, पृ० ४.७०)
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लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती है, पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। युग निर्माण जैसे महान् कार्य; मानसिक स्तर ऊँचा उठाने और चरित्र की दृष्टि से उत्कृष्ट बनने पर संभव है। अपने आचरण से ही प्रभावशाली शिक्षा दी। जा सकती है। गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने भर से काम चल सकता है, पर व्यक्ति निर्माण के लिए निखरे हुए व्यक्तित्वों की आवश्यकता पड़ेगी। हम बदलेंगे, तो युग जरूर बदलेगा।
(वाङ्मय-६६, पृ० ५.२०)
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आज देवत्व हारता और असुरत्व जीतता दिखता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि सात्त्विकता और सज्जनता को पर्याप्त मान लिया गया और बढ़ते हुए असुरत्व से आरम्भ में ही जूझने के लिए आवश्यक सतर्कता और संगठन की उपेक्षा की जाती रही है। यह भूल जब तक सुधारी न जायेगी देवत्व को पग-पग पर अपमानित होना पड़ेगा और पराजय का आये दिन मुँह देखना पड़ेगा। इस अवांछनीय स्थिति से उबरने का एक ही उपाय है कि सज्जनता अकेली न रहे, वरन् उसके साथ संगठन, सतर्कता और समर्थता को भी जोड़े रखा जाए।
(वाङ्मय-६६, पृ० ४.६३)
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आपके पास जो भी घटना आये, व्यक्ति या विचार आए प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइए और आवश्यकता पड़ेगी। हम बदलेंगे, तो युग जरूर बदलेगा।
(वाङ्मय-६६, पृ० ५.२०)
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आज देवत्व हारता और असुरत्व जीतता दिखता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि सात्त्विकता और सज्जनता को पर्याप्त मान लिया गया और बढ़ते हुए असुरत्व से आरम्भ में ही जूझने के लिए आवश्यक सतर्कता और संगठन की उपेक्षा की जाती रही है। यह भूल जब तक सुधारी न जायेगी देवत्व को पग-पग पर अपमानित होना पड़ेगा और पराजय का आये दिन मुँह देखना पड़ेगा। इस अवांछनीय स्थिति से उबरने का एक ही उपाय है कि सज्जनता अकेली न रहे, वरन् उसके साथ संगठन, सतर्कता और समर्थता को भी जोड़े रखा जाए।
(वाङ्मय-६६, पृ० ४.६३)
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आपके पास जो भी घटना आये, व्यक्ति या विचार आए प्रत्येक के ऊपर कसौटी लगाइए और देखिए कि इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित है। कौन नाराज होता है व कौन खुश होता है, यह देखना बंद कीजिए। अपने हितैषी की हर बात पर प्रसन्न होंगे, तो सही काम नहीं कर सकेंगे। हमको भगवान् को प्रसन्न करना है, ईमान को प्रसन्न करना है, तो लोगों की नाराजगी, प्रसन्नता की बाबत सोचना बंद करना पड़ेगा। हमको भगवान् की प्रसन्नता की जरूरत है, लोगों की नहीं।
(गुरुवर की धरोवर-२)
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कर्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंधविश्वास है। उसकी प्रतीक्षा करने वाले नासमझ इस दुनिया से पश्चात्ताप करते हुए विदा होते हैं। आने वाला कल एक ऐसा आकाश-कुसुम है, जो सुना तो गया, पर पाया कभी नहीं गया। यह दुर्भाग्य है कि आज हर व्यक्ति कल पर विश्वास किए हुए वर्तमान में सोता रहता है और जब उसका प्रतीक्षित कल कभी नहीं आता, तब उसके पास उस बीते कल के लिए रोने-पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता, जिसकी कि उसने वर्तमान में अवहेलना की थी।
(अखण्ड ज्योति-१९६६)
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युग निर्माण योजना का आरंभ परोपदेश से नहीं, वरन् अपने को बदलने-सुधारने से शुरू होगा। यदि हमारा मन बात मानने के लिए तैयार नहीं, तो दूसरा कौन सुनेगा? जीभ की नोंक से निकले हुए लच्छेदार प्रवचन दूसरों के कानों को प्रिय लग सकते हैं, सब उनकी प्रशंसा भी कर सकते हैं, पर प्रभाव तो आत्मा का आत्मा पर पड़ता है। आत्म-सुधार, आत्मनिर्माण और आत्म-विकास हमारा ध्येय हो।
(अखंड ज्योति-१९६२, अप्रैल)
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किसी विचारधारा का परिणाम तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह कार्य रूप में परिणत हो। मानसिक व्यसन के रूप में कुछ पढ़ते, सुनते और सोचते रहें, कार्य रूप में उसे परिणत न करें, तो उस विचारविलास मात्र से कुछ भी प्राप्ति संभव नहीं। आध्यात्मिक विचारधारा का लम्बा स्वाध्याय मन पर एक हल्की सी सतोगुणी छाप तो छोड़ता है, पर जब तक क्रिया में वे विचार न उतरें तब तक वह स्वाध्याय भी एक विनोद या व्यसन ही बना रहता है। जो कुछ लाभ मिलता है, उसकी तुलना ताश खेलने के मनोविनोद भर से की जा सकती है।
(अखंड ज्योति-१९६२, अप्रैल)
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विचार आपसे कहते हैं-हमें मन के जेलखाने में ही घोटकर मत मारिए। वरन् शरीर के कार्यों द्वारा जगत् में आने दीजिए। मनुष्य उत्तम लेखक, योग्य वक्ता, उच्च कलाविद् एवं वह जो भी चाहे सरलतापूर्वक बन सकता है, लेकिन एक शर्त है कि वह अपने शुभ संकल्पों को क्रियाशील कर दे। उन्हें दैनिक जीवन में कर दिखाएँ। जो कुछ सोचता, विचारता है, उसे परिश्रम द्वारा, प्रयत्न द्वारा, अपनी सामर्थ्य द्वारा साक्ष्य का रूप प्रदान करें। शुद्ध विचारों की उपयोगिता तभी प्रकट होगी, जब अंतरंग के चित्रों को शरीर के कार्यों द्वारा क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया जाएगा।
हमारा कार्य अब सारथी का होगा। दुष्प्रवृत्तियों से महाभारत का मोर्चा अब पूरी तरह हमारे कर्तव्यनिष्ठ बालक सँभालेंगे। विश्व के पाँच अरब लोगों के चिंतन, जीवन व्यवहार, दृष्टिकोण में परिवर्तन और मानवीय संवेदना की रक्षा के लिए और अधिक तत्पर होकर कार्य करेंगे। यह न समझें हम आपसे दूर हो जाएँगे। सूक्ष्म एवं कारण सत्ता में विलीन होकर आत्मीय कुटुम्बियों को अधिक प्यार बाँटेंगे।
(वाङ्मय-१, पृ० १०.३०)
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एक समय था जब अवांछनीय व्यक्तियों या तत्त्वों को हटाने के लिए प्रधानतया शस्त्र बल से ही काम लिया जाता था, तब विचार शक्ति की व्यापकता का क्षेत्र खुला न था। यातायात के साधन, शिक्षा, साहित्य, ध्वनि विस्तारक यंत्र, प्रेस आदि की सुविधाएँ उन दिनों न थीं और बहुसंख्य जनता को एक दिशा में सोचने, कुछ करने या संगठित करने के लिए उपयुक्त साधन भी न थे। इसलिए संसार में जब भी अनाचार, पाप, अनौचित्य फैलता था, तब उसके निवारण के लिए, उस अनौचित्य के केन्द्र बने हुए व्यक्तियों की शक्ति को युद्ध द्वारा शस्त्र बल से निरस्त किया जाता था। प्राचीनकाल में युग परिवर्तन की यही भूमिका रही है।
रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाथ, खर-दूषण, कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, हिरण्यकश्यप, महिषासुर, वृत्रासुर, सहस्रबाहु आदि अनीतिमूलक वातावरण उत्पन्न करने वाले व्यक्तियों की शक्ति निरस्त करने के लिए जिन्होंने सशस्त्र आयोजन किये, परास्त किया, उन महामानवों को युग परिवर्तन का श्रेय मिला। उन्हें अवतार, देवदूत आदि के सम्मानों से सम्मानित किया गया। भगवान् राम, भगवान् कृष्ण, भगवान् परशुराम, भगवान् नृसिंह आदि को इसी संदर्भ में सम्मानपूर्वक पूजा-सराहा जाता है।
पर आज जो पाप, अनाचार, दंभ, छल, असत्य, शोषण आदि दोषों का बाहुल्य होने से समाज में भारी अव्यवस्था उत्पन्न हो रही है, उसके लिए किन्हीं अमुक व्यक्तियों को दोषी ठहराने या उन्हें मार-काट देने से समस्या का हल नहीं हो सकता। अब विचार परिवर्तन ही एकमात्र वह आधार रह गया है, जिसके माध्यम से विभिन्न प्रकार के कष्टों का सृजन करने वाले दुर्गुणों को समाप्त करके न्याय तथा शांति की स्थापना की जा सकती है।
इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं रहे, वरन् उनका स्थान विचारों ने ले लिया है। चूंकि अब शक्ति जनता के हाथ में चली गई है। जनमानस का प्रवाह जिस दिशा में बहता है, उसी तरह की परिस्थितियाँ बन जाती हैं । इस जनप्रवाह को शस्त्रों से नहीं, विचारों से ही रोका जा सकता है। यह तनिक भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिए कि अब शस्त्र युद्ध का जमाना चला गया, आज तो विचार युद्ध का युग है, जो विचार प्रबल होंगे, वे ही अपने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेंगे।
(वाङ्मय-६५, पृ० १.३)
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