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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शक्तिवान बनिए

शक्तिवान बनिए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15501
आईएसबीएन :00000

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जीवन में शक्ति की उपयोगिता को प्रकाशित करने हेतु

पहला सूत्र

मनचाही सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अध्यात्म विज्ञान को सीखिए।


हमारे देश में सार्वजनिक रूप से आध्यात्मिकता का लोप-सा हो गया है। यों कहने को तो छप्पन लाख पेशेवर ऋषि-महात्मा इस देश में रहते हैं और करीब-करीब उतने ही बिना पेशे वाले भगत और मिल सकते हैं, पर इनमें ऐसे लोग चिराग लेकर ढूंढने पड़ेंगे, जो योग का वास्तविक अर्थ समझे हों। घोर तामसिकता अपनी सखी-सहेलियों-अविद्या, विचारशून्यता, हरामखोरी, दाम्भिकता के साथ संगठित और सुसज्जित रूप से आध्यात्मिकता के साथ आ विराजी है। राक्षसी पूतना ने कृष्ण को मार डालने के लिए गोपियों का रूप बनाया था; आज तामसी दाम्भिकता मनुष्यत्व की हत्या करने के लिए बड़ेबड़े मनमोहक मायावी रूप बनाकर भारत भूमि में विचर रही है। पूतना का मायावी रूप भी ब्रजवासियों के मन में विश्वास पैदा न कर सका था, आज गृहत्यागी, वस्त्रहीन, जटाधारी मायावियों को देखकर भी लोगों की अंतरात्मा यह स्वीकार नहीं करती कि वह लोग स्वयं कुछ उन्नति कर रहे हैं या इनके संसर्ग में आने वाला कोई दूसरा भी उन्नति कर सकता है। दिल से दिल को राहत होती है। सच्चाई सहस्र छिद्रों में होती हुई प्रकट होती है। आज यदि लोग अध्यात्मवादी वायुमण्डल से बचने और बचाने का प्रयत्न करते हैं, शक्तिवान् बनिए तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।

आज आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे कंगले पड़े हैं, जिनमें पौरुष, योग्यता, उपार्जन शक्ति, विवेक, बल का बिल्कुल अभाव है। अपने योग्यता बल से कुछ भी कर सकने में असमर्थ होते हैं, यहाँ तक कि पेट भरने को भी मोहताज हैं। यह लोग जब अपने त्याग के गीत गाते हैं, तो हँसी रोके नहीं रुकती,क्योंकि इनमें आधे से अधिक लोग ऐसे हैं, जो जीवन में सफलता प्राप्त न कर सके, परिस्थितियों को इच्छानुकूल न बना सके, असमर्थ रहे, अपमानित हुए, नालायकी के कारण दुनिया से दुत्कारे गए, तब वे लोग हताश, उदास, दु:खी, चिड़चिड़े होकर संसार को भवसागर मानकर अपने लिए एक काल्पनिक स्वर्ग की रचना करते हैं और उसमें बेपेंदी की उड़ानें उड़कर किसी प्रकार अपना मन बहलाते हैं। क्या यह लोग त्यागी हैं? क्या यह संन्यासी हैं? क्या यह अध्यात्मवादी हैं? यदि अयोग्यता और अकर्मण्यता की प्रतिक्रिया शक्तिवान् बनिए का नाम ही अध्यात्मवाद है, तो हर एक व्यक्ति को दूर से ही उसे नमस्कार करना चाहिए।

बात असल में उससे बिल्कुल उलटी है। अध्यात्मवाद एक प्रकार का उत्कृष्ट पराक्रम है। सच्चा अध्यात्मवादी सबसे पहले अपनी शारीरिक और मानसिक योग्यताओं को अपने पौरुष द्वारा बढ़ाता है। और उन्हें इतना उन्नत कर लेता है, कि उनके बदले में संसार की बड़ी से बड़ी वस्तु खरीद सके। अष्ट सिद्धि, नव निधि उसके हाथ में आ जाती हैं अर्थात् इतना सूक्ष्म, बुद्धिमान् और क्रियाकुशल हो जाता है, कि अपनी बड़ी से बड़ी सांसारिक इच्छा को अल्प समय में पूरा कर सकता है।

सत्य का सूर्य सदा के लिए अस्त नहीं हो सकता। उल्लू और चमगादड़ों को प्रसन्न करने वाली निशा का आखिर अंत होता ही है। अब वह युग निकट आ गया है, जब सच्चाई प्रकट होगी और उसके प्रकाश में सब लोग वास्तविकता का दर्शन कर सकेंगे। नवयुग की स्वर्णिम उषा कमल पुष्पों की तरह मुस्कराती हुई विकसित होती चली आ रही है। वह अध्यात्म तत्त्व को अब और अधिक विकृत न होने देगी, वरन् उसका शुद्ध रूप सर्वसाधारण के सामने प्रकट कर देगी। जिस भोजन के अभाव में क्षुधित भारत चिरकाल से तड़प-तड़प कर कण्ठप्राण हो रहा है, वह अमृत तत्त्व अब उसके सम्मुख शीघ्र ही रखा जाने वाला है। राष्ट्र और जातियाँ जिस स्रोत से शक्ति रूपी जल पीकर फलती-फूलती हैं, वह व्यावहारिक अध्यात्मवाद अपने विशुद्ध रूप में नवप्रकाश के साथ प्रकट होता हुआ चला आ रहा है। अदृश्य तत्त्वों को देखने वाली आत्माएँ देख रही हैं, कि भारत माता के मस्तक को, उसी पुराने स्वर्ण मुकुट से सजाया जायेगा और आध्यात्मिक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित भारतीय संतति, उसके विजय घोष से विश्व को गुंजित करेगी।

सत्य की खोज करने वाले व्यक्तियों को जानना चाहिए कि अध्यात्मवाद को जैसा कि आजकल तर्क और बुद्धि से विपरीत, निरर्थक कल्पना और दीनदरिद्री बनाने वाली आलस्यमय विडम्बना समझा जाता है, यथार्थ में वह वैसी वस्तु नहीं है। सिंह की खाल ओढ़कर गधा अपने को सिंह साबित करे, तो इसमें सिंह की प्रतिष्ठा नहीं घटती, इसका दोष या तो धोखेबाज गधे पर है या भ्रम में पड़ जाने वाले भोले लोगों पर। लाख वर्ष तक लाख गधे सिंह की खाल ओढ़े फिरें, फिर भी सिंह की महानता उसके गौरव को कम न होने देगी। अध्यात्मवादी अपनी अनन्त अद्भुत शक्तियों के कारण असली सिंह है। उसकी महत्ता में रत्ती भर भी अन्तर नहीं आता, भले ही लाखों ठग और मूर्ख उसको दुरुपयोग करके बदनाम करते रहें।

अध्यात्मवाद वह विद्या है, जिसको सर्वोपरि विद्या-ब्रह्म विद्या कहा गया है। भारतीय विश्वास है। कि ब्रह्म विद्या जाने बिना ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता। ऋषि उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरु के आश्रम में अनेक विद्याओं का चिरकाल तक अध्ययन करने के उपरान्त घर वापस लौटा, तो पिता ने उसकी परीक्षा ली और ब्रह्म विद्या की न्यूनता देखकर पुन: उसे गुरु गृह को वापस भेज दिया था; फिर भी कमी रही तो पिता ने स्वयं अपूर्णता को पूरा कराया। तात्पर्य यह कि उस समय ब्रह्म विद्या की महत्ता को सब लोग भलीभाँति जानते थे और समझते थे कि यदि यह ज्ञान न आया, तो मनुष्य ‘पढ़ा गधा' भले ही बना रहे पर सफल जीवन, समृद्ध-सम्पन्न न बन सकेगा।

जिस विचार पद्धति से मनुष्य अपने जीवन में प्रतिदिन आने वाली समस्याओं को आसानी से सुलझा सकता है, सही नतीजे पर पहुँच सकता है, ठीक मार्ग का अवलम्बन कर सकता है, उसे अध्यात्मवाद कहते हैं। व्यापार में अधिक लाभ, नौकरी में अधिक सुविधा और तरक्की, पत्नी-प्रेम, पुत्र-शिष्य और सेवकों का आज्ञापालन, मित्रों का शक्तिवान् बनिए भ्रातृभाव, गुरुजनों का आशीर्वाद, परिचितों में आदर, समाज में प्रतिष्ठा, निर्मल कीर्ति, अनेक हृदयों पर शासन, निरोग शरीर, सुन्दर स्वास्थ्य, प्रसन्नचित्त, हर घड़ी आनन्द, दु:ख-शोकों से छुटकारा, विद्वत्ता का सम्पादन, तीव्र बुद्धि, शत्रुओं पर विजय, वशीकरण का जादू, अकाट्य नेतृत्व, प्रभावशाली प्रतिभा, धनधान्य, इंद्रियों के सुखदायक भोग, वैभव-ऐश्वर्य, ऐशआराम, सुख-संतोष, परलोक में सद्गति यह सब बातें प्राप्त करने का सच्चा सीधा मार्ग अध्यात्मवाद है। इस पथ पर चलकर जो सफलता प्राप्त होती है, वह अधिक दिन ठहरने वाली, अधिक आनंद देने वाली और अधिक आसानी से प्राप्त होने वाली होती है। एक शब्द में यों कहा जा सकता है कि सारी इच्छा, आकांक्षाओं की पूर्ति का अद्वितीय साधन अध्यात्मवाद है। इस तत्त्व को जो जितनी अधिक मात्रा में जिस निमित्त संग्रह कर लेता है, वह उस विषय में उतना ही सफल हो जाता है। सच्ची सफलता की सारी भित्ति इसी महाविज्ञान के ऊपर खड़ी हुई है, फिर चाहे उसे अध्यात्मवाद नाम से पुकारिये अथवा इच्छा शक्ति, पौरुष, कुशलता आदि कोई और नाम रखिए।

अध्यात्मवाद पुरुषार्थी लोगों का धर्म है। तेजस्वी, उन्नतिशील, महत्त्वाकांक्षी और आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले ही उसे अपना सकते हैं। मुक्ति सबसे बड़ा पुरुषार्थ है, इसे वे लोग प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें अटूट धैर्य, निष्ठा, साहस और पराक्रम है। कायर और काहिल लोग अपने हर काम को कराने के लिए देवी-देवता, संत-महन्त, भाग्य, ईश्वर आदि की ओर ताकते हैं; अपना हुक्का भी ईश्वर से भराकर पीना चाहते हैं, ऐसे कर्महीनों के लिए उचित है कि किसी सनक में पड़े-पड़े-झोंके खाया करें और ख्याली पुलाव पकाया करें। सच्चे अध्यात्मवाद का दर्शन उन बेचारों को शायद ही हो सके।

आप ब्रह्म विद्या की शिक्षा ग्रहण कीजिए, जिससे सुलझा हुआ दृष्टिकोण प्राप्त कर सकें। इस ज्ञान दीपक को अपने मन-मंदिर में जला लीजिए, जिससे हर वस्तु को ठीक-ठीक रूप से देख सकें। इस ध्रुव तारे को पहचान लीजिए, जिससे दिशाओं का निश्चित ज्ञान रख सकें। इस राजपथ को पकड़ लीजिए, जिससे बिना इधर-उधर भटके अपने लक्ष्य स्थान तक पहुँच सकें। ब्रह्मविद्या नकद धर्म है। इसका फल प्राप्त करने के लिए परलोक की प्रतीक्षा में नहीं ठहरना.पड़ता, वरन् इस हाथ दे उस हाथ ले', की नीति के अनुसार प्रत्यक्ष फल मिलता है। जब, जितनी मात्रा में, जिस निमित्त इस तत्त्व का आप उपयोग करेंगे; तब उतनी ही मात्रा में उस कार्य में लाभ प्राप्त करेंगे, परन्तु स्मरण रखिए यह विद्या कुछ मंत्र याद कर लेने से, अमुक पुस्तक पाठ करने, माला जपने, तिलक लगाने, आसन जमाने, साँस खींचने तक ही सीमित नहीं है। कर्मकाण्ड इस विद्या की प्राप्ति में कुछ हद तक सहायक हो सकते हैं; वे साधन हैं साध्य नहीं। कई व्यक्ति इन कर्मकाण्डों को ही अंतिम सीढी समझ कर लगे रहते हैं और इच्छित वस्तु को नहीं पाते, तो उन पर से मन हटा लेते हैं।

आत्म साधना के पथ पर चलने की इच्छा करने वाले हर एक पथिक को, यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि अपने विश्वास, विचार और कार्यों को उन्हें एक सुदृढ़ साँचे में ढालना होगा। मनुष्य जैसी कुछ भली-बुरी बाह्य परिस्थितियों में पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है, वह उसकी मानसिक तैयारी का फल मात्र है। भीतर जैसे तत्त्वों का समावेश है, जैसे विश्वास, विचार, संस्कार जमा हैं, उन्हीं के कारण बाहरी जीवन की अच्छाई-बुराई का निर्माण होता है। अध्यात्मवाद का निश्चित सिद्धान्त है कि मनुष्य की उन्नति-अवनति में, सुख-दु:ख में कोई सत्ता हस्तक्षेप नहीं करती। वह स्वयं ही अपने भीतरी जगत् को जैसा बनाता है, उसी के अनुसार दूर-दूर से खिंचकर परिस्थितियाँ उसके चारों ओर इकट्ठी हो जाती हैं। चूँकि आप इच्छानुसार मनपसंद परिस्थितियों में रहना शक्तिवान् बनिए चाहते हैं, आप चाहते हैं कि दुनिया में वे पदार्थ और अवसर हमारे सामने रहा करें, जैसी कि इच्छा करते हैं। यह बात सचमुच उतनी कठिन नहीं है, जितनी कि समझी जाती है; यह बहुत ही आसान है कि आप मनचाही आनंददायक परिस्थितियों में रहें और कोई ऐसा विग्रह उपस्थित न हो, जो आपको बुरा लगे, जिसमें आपका आनंद नष्ट होता हो।

वह कल्पवृक्ष जो हर प्रकार की इच्छाओं को पूरा करता है, आपके निज के भीतर मौजूद है; उसके पास पहुँचने का जो मार्ग है उसे ही अध्यात्मवाद, ब्रह्मविद्या और योग साधना कहते हैं। गेहूं की फसल काटने के लिए गेहूँ का बीज बोना पड़ता है और उसे ठीक रीति से सींचना, निराना पड़ता है। मनचाही परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए ऐसे विचार, विश्वास और संस्कारों को मनोभूमि में बोना और सींचना पड़ता है, जो बीज की तरह उगते हैं और निश्चित रूप से अपनी ही जाति के पौधे उपजाते हुए फूलते-फलते शक्तिवान् बनिए हैं। इसी मानसिक कृषि का संस्कृत भाषा में ब्रह्म विद्या नाम से उल्लेख किया है। यह विद्या उस प्रत्येक व्यक्ति को सीखनी पड़ती है, जो प्रफुल्लित-आनंदमय जीवन जीने की इच्छा करता है। हमारे देश को तो विशेष रूप से इस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे इस देश के निवासी वर्तमान दुर्दशा से स्वयं छूट सकें और अपने देश को छुड़ा सकें। भारत संसार का पथ प्रदर्शक धर्मगुरु रहा है। हम भारतीय सच्ची आध्यात्मिकता के आधार पर अपनी दशा में चमत्कार पूर्ण परिवर्तन करके, संसार के सामने अपना गौरव प्रकट कर सकते हैं और प्राचीन महानता को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।

अध्यात्मवाद सबको एक लाठी से नहीं हाँकता, उसकी शिक्षाएँ अधिकारी भेद के अनुसार अलग-अलग प्रकार की हैं। ब्रह्माजी ने भोग लिप्त देवताओं को इंद्रिय दमन का, धनवान् वैश्यों को दान का और बलवान् असुरों को दया का उपदेश दिया था। जिसके पास जैसी मनोभूमि और जैसे-जैसे साधन हैं, उसके लिए उसी के अनुसार आध्यात्मिक साधना की व्यवस्था की गई है, इसलिए एक ही तत्त्व अनेक शाखा-प्रशाखाओं में बँटा हुआ दृष्टिगोचर होता है।

प्राचीन धर्म ग्रंथों में अपने-अपने समय के ‘विचार युग' के अनुसार आध्यात्मिकता को विभिन्न रूपों में प्रकट किया गया है। सत्य तो सदा एक ही है, पर वह अपने-अपने समय में पृथक् आकार-प्रकार के साथ दृष्टिगोचर होता है; जल तत्त्व अविच्छिन्न है, पर समयानुसार वह बादल, ओस, वर्षा, कुहरा आदि रूपों में दृष्टिगोचर होता है। हमारा प्रयत्न भी ऐसा ही है। हमारे पूज्यनीय पूर्व पुरुषों ने, युगों तक गंभीर मनन और अगाध अनुभव के आधार पर जिस अध्यात्म विज्ञान की रचना की है, उनसे लोगों की : सामयिक विचार पद्धति के अनुकूल बनाकर आधुनिक ढंग से रखने का हमने विनम्र प्रयत्न किया है। शाश्वत सत्य के अनादि तथ्यों को आधुनिक विचार पद्धति से ने की आवश्यकता अनुभव की गई, ताकि आज के युग में उन कठिन समझे जाने वाले विषयों को आसानी से हृदयंगम किया जा सके। यह पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी जा रही है। इस पर विचार करने के उपरान्त पाठक जान सकेंगे कि इस विद्या से छूत की बीमारी की तरह बचने की आवश्यकता नहीं है, वरन् युवक और बालकों को इसमें पारंगत होने की जरूरत है, ताकि वे जीवन को सुखी, समृद्ध और प्रतिष्ठित बना सकें।


इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।

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