आचार्य श्रीराम शर्मा >> यह बोल रहा है महाकाल यह बोल रहा है महाकालश्रीराम शर्मा आचार्य
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पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के प्रवचनों से संकलित सद् विचारों का अनुपम संग्रह
Yeh Bol Raha Hai Mahakal - a Hindi book by Sriram Sharma Acharya
पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के प्रवचनों से संकलित सद् विचारों का अनुपम संग्रह, जिसके पठन एवं मनन से जीवन सुंदर-सुखी बनता है....
यह बोल रहा है महाकाल
आप अपना लक्ष्य स्थिर कीजिए। किस आदर्श के लिए अपना जीवन लगाना चाहते हैं, यह निश्चित कीजिए। तत्पश्चात् उसी की पूर्ति में मन, वचन और कर्म से लग जाइए। लक्ष्य के प्रति तन्मय रहना मनुष्य की इतनी बड़ी विशेषता, प्रतिष्ठा, सफलता और महानता है कि उसकी तुलना में अनेकों प्रकार के आकर्षक गुणों को तुच्छ ही कहा जाएगा।
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बड़प्पन की इच्छा सबको होती है, पर बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उसे कैसे प्राप्त किया जाए। जो जानते हैं, वे उस ज्ञान को आचरण में लाने का साहस नहीं करते। आमतौर से यह सोचा जाता है कि जिसका ठाट-बाट जितना बड़ा है, वह उसी अनुपात से बड़ा माना जाएगा। मोटर, बंगला, सोना, जायदाद, कारोबार, सत्ता, पद आदि के अनुसार किसी को बड़ा मानने का रिवाज चल पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि लोग मनुष्य के व्यक्तित्व को नहीं, उसकी दौलत को बड़ा मानते हैं-यही दृष्टिदोष है।
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प्रकृति चाहती है कि हर व्यक्ति सजग और सतर्क रहे, सावधानी बरते और घात-प्रतिघात से कैसे बचा जा सकता है, इस कला की जानकारी प्राप्त करे। हम दूसरों की सेवा-सहायता विवेकपूर्वक करें यह ठीक है, पर कोई मूर्ख अथवा कमजोर समझकर अपनी घात चलाये और ठग ले जाए, यह अनुचित है।
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भविष्य की आशंका से चिंतित और आतंकित कभी नहीं होना चाहिए। आज की अपेक्षा कल और भी अच्छी परिस्थितियों की आशा करना, यही वह सम्बल है जिसके आधार पर प्रगति के पथ पर मनुष्य सीधा चलता रह सकता है। जो निराश हो गया, जिसकी हिम्मत टूट गई, जिसकी आशा का दीपक बुझ गया, जिसे अपना भविष्य अंधकारमय दीखता रहता है, वह मृतक समान है।
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जो छोटे-छोटे सेवा कार्य हम कर सकते हैं वे नहीं करते, जो नन्हीं-नन्हीं भूलें हम रोज दोहराते हैं, उन्हें दूर नहीं करते, जो लघु सद्गुण हम अपना सकते हैं उन्हें नहीं अपनाते तो समझना चाहिए कि हम स्वयं के उत्कर्ष के प्रति उदासीन तथा मानवीय गरिमा के अर्जन के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।
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विरोध करना लोगों का आज स्वभाव बन गया है। यहाँ पर क्या अच्छे कार्य और क्या बुरे, विरोध सबका ही किया जाता है। बल्कि वास्तव में देखा जाय, तो पता चलेगा कि बुराई से अधिक भलाई को विरोध का सामना करना पड़ता है। इसका कारण यह नहीं है कि भलाई भी बुराई की तरह ही विरोध की पात्र है, बल्कि समाज की दुष्प्रवृत्तियाँ अपने अस्तित्व के प्रति खतरा देखकर भड़क उठती हैं और विरोध के रूप में सामने आ जाती हैं। चूंकि सत्प्रवृत्तियाँ विरोध भाव से शून्य होती हैं, इसलिए वे बुराई का विरोध करने से पूर्व सुधार का प्रयत्न करती हैं।
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भाग्यवादी ऐसे पंगु की तरह हैं, जो अपने पाँवों पर नहीं, दूसरों के कंधों पर चलते हैं। जब तक दूसरे बुद्धिमान् व्यक्ति उसे उठाये रहते हैं, तब तक तो वह किसी प्रकार चलता रहता है, दूसरों का आधार हटते ही वह गिरकर नष्ट हो जाता है। उन्नति करने के लिए, संघर्ष के लिए उसमें न पुरुषार्थ होता है, न समुचित उल्लास और न अध्यवसाय।
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बहुत लोग कर रहे हैं, इसलिए हमको भी करना चाहिए, इस प्रकार की विचारधारा उन्हीं लोगों की होती है, जिनके पास अपनी बुद्धि का सम्बल नहीं होता। पूरी दुनिया के एक ओर हो जाने पर भी असत्य एवं अहितकर के आगे सिर न झुकाना ही मनुष्यता का गौरव है। लोग बुरा न कहें, अंगुली न उठायें, इसलिए हमें गलत बात को भी कर डालना चाहिए, यह कोई तर्क नहीं है। विवेक का तकाजा यही है कि उचित को स्वीकार करने में संकोच न करें और अनुचित को अस्वीकार कर दें।
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जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है, समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य बुद्धि जम गई है-हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है, और जो निष्ठावान् हैं, उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं।
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यह निर्विवाद है कि दूसरों के सहयोग की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति प्रगतिशील, सुखी एवं समृद्ध होना तो दूर, ठीक तरह जिंदगी के दिन भी नहीं गुजार सकता। इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को इस बात की आवश्यकता अनुभव होती है कि वह अपने परिवार का, मित्रों का, साथीसहयोगियों का तथा सर्वसाधारण का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त करे और यह तभी संभव है, जब हम दूसरों के साथ अधिक सहृदयता एवं सद्भावना पूर्ण व्यवहार करने का अभ्यास करें।
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दुष्कर्म करना हो, तो उसे करने से पहले कितनी ही बार विचारो और उसे आज की अपेक्षा कल-परसों पर छोड़ो, किन्तु यदि कुछ शुभ करना हो, तो पहली ही भावना तरंग को कार्यान्वित होने दो। कल वाले काम को आज ही निपटाने का प्रयत्न करो। पाप तो रोज ही अपना जाल लेकर हमारी घात में फिरता रहता है, पर पुण्य का तो कभी-कभी उदय होता है।उसे निराश लौटा दिया तो न जाने फिर कब आवे।
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बुरे आदमी बुराई के सक्रिय, सजीव प्रचारक होते हैं। वे अपने आचरणों द्वारा बुराइयों की शिक्षा लोगों को देते हैं। उनकी कथनी और करनी एक होती है। जहाँ भी ऐसा सामंजस्य होगा उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। हममें से कुछ लोग धर्म प्रचार का कार्य करते हैं, पर वह सब कहने भर की बातें होती हैं। इन प्रचारकों की कथनीकरनी में अंतर रहता है। यह अंतर जहाँ भी रहेगा, वहाँ प्रभाव क्षणिक ही रहेगा।
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भगवान् भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करते हैं और सर्वोत्तम सद् भावना का एक मात्र प्रयत्न जनकल्याण के कार्यों में बढ़-चढ़कर योगदान करना ही है। अब बातों का युग बहुत पीछे रह गया है। कार्यों से ही किसी व्यक्ति के झूठे या सच्चे होने की परख की जाएगी।
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बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध आदि दैवी प्रकोपों को मानव जाति के सामूहिक पापों का परिणाम माना गया है। निर्दोष व्यक्ति भी गेहूं के साथ घुन की तरह पिसते हैं। वस्तुतः वे पूर्णतया निर्दोष भी नहीं होते।सामूहिक दोषों को हटाने का प्रयत्न न करना, उनकी ओर उपेक्षा दृष्टि रखना भी एक पाप है। इस दृष्टि से निर्दोष दीखने वाले व्यक्ति भी दोषी सिद्ध होते हैं और उन्हें सामूहिक दण्ड का भागी बनना पड़ता है।
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अनीतिपूर्वक सफलता पाकर लोकपरलोक, आत्म-संतोष, चरित्र, धर्म तथा कर्तव्य निष्ठा का पतन कर लेने की अपेक्षा नीति की रक्षा करते हुए असफलता को शिरोधार्य कर लेना कहीं ऊँची बात है। अनीति मूलक सफलता अंत में पतन तथा शोक-संताप का ही कारण बनती है। रावण, कंस, दुर्योधन जैसे लोगों ने अधर्मपूर्वक न जाने कितनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई, किन्तु अंत में उनका पतन ही हुआ और पाप के साथ लोक निन्दा के भागी बने। आज भी उनका नाम घृणापूर्वक ही लिया जाता है।
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यदि हमारे युवक-युवतियाँ अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के पहनावे, श्रृंगार, मेकअप, फैशन, पैण्ट, बुश्शर्ट, साड़ियों का अंधानुकरण करते रहे तो असंयमित वासना के द्वार खुले रहेंगे। गंदी फिल्में निरन्तर हमारे युवकों को मानसिक व्यभिचार की ओर खींच रही हैं। उनका मन निरन्तर अभिनेत्रियों के रूप, सौन्दर्य, फैशन और नाज-नखरों में भंवरे की तरह अटका रहता है। लाखों-करोड़ों न जाने कितने तरुण-तरुणियों पर इसका जहरीला असर हुआ है। फिर भी हम इसे मनोरंजन मानते हैं।
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कर्तव्य पालन को सब कुछ माने। असीम महत्त्वाकांक्षाओं के रंगीले महल न रखें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम में ही परिपूर्ण सफलता माने और उतने भर से संतुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें।उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं, दानी बनें। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटाएँ, पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपने समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठाएँ। सहायता करें, पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़ें और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वाकांक्षा सँजोयें।
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प्रगति, समृद्धि की पगडण्डी कोई नहीं, केवल एक ही राजमार्ग है कि अपने व्यक्तित्व को समग्र रूप से सुविकसित किया जाय। 'धूर्तता से सफलता' का भौड़ा खेल सदा से असफल होता रहा है और जब तक ईश्वर की विधि-व्यवस्था इस संसार में कायम है, तब तक यह क्रम बना रहेगा कि धूर्तता कुछ दिन का चमत्कार दिखाकर अंततः औंधे मुंह गिरे और अपनी दुष्टता का असहनीय दण्ड भुगते।
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जो सोचते बहुत हैं, पर करते कुछ नहीं ; वे एक प्रकार के पागल हैं। श्रेष्ठता पर यदि आस्था है तो उस आस्था को परिपक्व करने के लिए उस मार्ग पर चलना भी चाहिए। आज मानव जाति अपने भाग्य का निपटारा करने के केन्द्र बिन्दु पर खड़ी है, उसे विकास या विनाश में एक मार्ग चुनने का अविलम्ब फैसला करना है?
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इन दिनों मुख में राम बगल में छुरी’ जैसा व्यापक छल-प्रपंच बढ़ चला है। उसने आत्मयता के सारे संबंधों की जड़े खोखली कर दी हैं। अब परिवार के सदस्य भी एक दूसरे को आशंका और अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे हैं। श्रद्धा और विश्वास, उदारता और आत्मीयता के सह-संबंध अब एक काल्पनिक तथ्य बनते चले जा रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह ढर्रा बदला जा सकता है? उत्तर विश्वासपूर्वक हाँ में दिया जा सकता है। शर्त केवल इतनी भर है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग समय और परिस्थितियों को बदलने की अपनी जिम्मेदरी समझे और उनके लिए कटिबद्ध हो।
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हे पुरोहित जाग! राष्ट्र के बारे में जागरूक रह। हमारे अंतःकरण में बैठे हुए हे विवेक पुरोहित ! जागता रह, ताकि हमारा बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त न हो। हमारे देश और जति का नेतृत्व कर सकने की क्षमता रखने वाले हे सच्चे पुरोहितो! जागते रहो, ताकि हमारी राष्ट्रीय और सामाजिक शक्तियों का अनुचित आधार पर अपव्यय न हो।
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मतभेदों की दीवारें गिराये बिना एकता, आत्मीयता, समता, ममता जैसे आदर्शों की दिशा में बढ़ सकना संभव नहीं हो सकता। विचारों की एकता जितनी अधिक होगी, मेह, सद्भाव एवं सहकार का क्षेत्र उतना ही विस्तृत होगा। परस्पर खींचतान में नष्ट होने वाली शक्ति को यदि एकता में-एक दिशा में प्रयुक्त किया जा सके, तो उसका सत्परिणाम देखते ही बनेगा।
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दुष्टता का प्रतिरोध दुष्टता से ही हो, यह कोई जरूरी नहीं है। प्रेम और भलमनसाहत से भी यह हो सकता है। सत्य और प्रेम का शस्त्र हममें से हर कोई उन लोगों के विरुद्ध चला सकता है, जिन्हें कुमार्ग पर चलता हुआ देखा जाय। यह कार्य बिना रत्ती भर द्वेष मन में रखे पूर्ण सद्भावना के साथ किया जा सकता है। प्रेम की लड़ाई भी लड़ी जा सकती है और यदि अपना पक्ष सच्चाई और न्याय का है, तो बुराई को सुधारने में सफलता भी प्राप्त की जा सकती है।
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ईश्वर सर्वत्र है; इसका यह गलत अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि जहाँ जो कुछ भी हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। बुराइयाँ, बुरे काम, ईश्वर की इच्छा से कदापि नहीं होते। पाप कर्म तो मनुष्य अपनी स्वतंत्र कर्तृत्व शक्ति का दुरुपयोग करके करते हैं। इस दुरुपयोग का नाम ही शैतान है। शैतान की सत्ता को हटाकर ईश्वरीय सत्ता को प्रकाश में लाना, यह मनुष्य मात्र का धर्म है।
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दुनिया के कई लोग अपने आपको उन सौभाग्यशाली लोगों से अलग समझते हैं, जो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसा सोचना कितना हानिकारक है, इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे विचार मात्र व्यक्ति को कई ऊंचाइयों पर पहुंचने से रोक देते हैं। अपने आपको बौना समझने वाला व्यक्ति देवता कैसे बन सकता है?
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तुम्हारे काम अच्छे हों तो तुम्हें अच्छा फल मिलेगा और तुम्हारी इच्छा, तुम्हारे विचार और तुम्हारे काम खराब हों तो तुम्हें खराब फल मिलेगा, क्योंकि अच्छा या बुरा फल ईश्वर अपनी इच्छा से हमको नहीं देता, बल्कि हमारी भावना के अनुसार देता है। इसलिए हमको अपनी भावना सुधारनी चाहिए और याद रखना चाहिए कि अपनी भावना सुधारना ही अपना भाग्य फेरने की कुञ्जी है।
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उद्योग करना, प्रयत्न जारी रखना, निरन्तर ऊँचे चढ़ना, आगे बढ़ना और ऊँची परिस्थितियाँ प्राप्त करने की चेष्टा करना मनुष्य का प्राकृतिक धर्म है। इसमें कोई भी सिद्धान्त या सूत्र आज तक बाधक नहीं हुआ, न आगे हो सकता है। ईश्वरीय नियम में मनुष्य के बनाये हुए सिद्धान्त रुकावट नहीं डाल सकते।
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संसार में कोई व्यक्ति बुरा नहीं है। सबमें श्रेष्ठताएँ भरी हुई हैं।आवश्यकता ऐसे व्यक्तियों की है, जो अच्छाई को लगातार प्रोत्साहन देकर बढ़ाता रहे। कैसे दुःख की बात है कि हम मनुष्य को उसकी त्रुटियों के लिए तो सजा देते हैं, पर उसकी अच्छाई के लिए प्रशंसा में कंजूसी करते हैं। आप विश्वास के साथ दूसरों को अच्छा कहें तो निश्चय ही वह श्रेष्ठ बनेगा। मन को अच्छाई पर जमाइए, सर्वत्र अच्छाई ही बढ़ेगी। आपके तथा दूसरे के मन में बैठे हुए देव जाग्रत और चैतन्य होंगे तो उनसे देवत्व बढ़ेगा।
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सिद्धान्तों को पालने के लिए हमने सामने वाले विरोधियों, शंकराचाय, महामण्डलेश्वरों और अपने नजदीक वाले मित्रों का मुकाबला किया है। सोने की जंजीरों से टक्कर मारी है। जीवन पर्यन्त अपने आपके लिए, समाज के लिए, सारे विश्व के लिए और महिलाओं के अधिकारों के लिए हम अकेले ही टक्कर मारते चले गये। अनीति से संघर्ष करने के लिए युग निर्माण काविचार क्रान्ति का सूत्रपात किया। वस्तुतः अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना प्रत्येक धर्मशील व्यक्ति का मानवोचित कर्त्तव्य है।
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मनुष्य जैसे विचार में रहता है, वैसा ही बन जाता है। अवगुणों को ढूंढने की दृष्टि रखने से स्वयं अवगुण का भाजन हो जाता है। इसीलिए इस दृष्टि दोष का निवारण कर हमें अपनी दृष्टि को गुणग्राहक बनाना आवश्यक है।अवगुण देखने हों तो अपने देखो, जिससे उन्हें छोड़ने की भावना जगे तथा आत्मा दोष रहित बने। औरों के तो गुण ही देखो, जिससे स्वयं गुणी बनो और गुणों के प्रति तुम्हारा आकर्षण बढ़े।
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उन लोगों को सचेत होकर अपना कर्म करना चाहिए, जो सोचते हैं कि भगवान् सब कर देंगे और स्वयं हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। जीवन में जो कुछ मिलना है, वह अपने पूर्व या वर्तमान कर्मों के फल के अनुसार यदि मेनुष्य का कुछ किया हुआ न हो, तो स्वयं विधाता भी उसकी सहायता नहीं कर सकता।
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