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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15529
आईएसबीएन :0

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मरने का स्वरूप कैसा होता है....

मृत्यु का स्वरूप


जीवन का प्रवाह अनंत है। हम अगणित वर्षों से जीवित हैं, आगे अगणित वर्षों तक जीवित रहेंगे। भ्रमवश मनुष्य यह समझ बैठा है कि जिस दिन बच्चा माता के पेट में आता है या गर्भ से उत्पन्न होता है, उसी समय से जीवन आरंभ होता है और जब हृदय की गति बंद हो जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है। यह बहुत ही छोटा, अधूरा और अज्ञानमूलक विश्वास है। आधुनिक भौतिक विज्ञान यह कहता बताया जाता है कि जीव की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, शरीर ही जीव है। शरीर की मृत्यु के बाद हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहता, परंतु बेचारा भौतिक विज्ञान स्वयं अभी बाल्यावस्था में है। विद्युत की गति के संबंध में अब तक करीब तीन दर्जन सिद्धांतों का प्रतिपादन हो चुका है। हर सिद्धांत अपने से पहले मतों का खंडन करता है। बेशक उन्होंने बिजली चलाई। दरअसल में अब तक ठीक-ठीक यह नहीं जाना जा सका कि वह किस प्रकार चलती है? नित नई सम्मति बदलने वाले जड़ विज्ञान का भौतिक जगत में स्वागत हो सकता है, पर यदि उसे ही आध्यात्मिक विषय में प्रधानता मिली, तो सचमुच हमारी बड़ी दुर्गति होगी। एक वैज्ञानिक कहता है कि शरीर ही जीव है। दूसरा मृतात्मा आश्चर्यजनक करतबों को पूरी-पूरी तरह चुनौती देता है। और अपने पक्ष को प्रमाणित करके विरोधियों का मुख बंद कर देता है। तीसरे वैज्ञानिक के पास ऐसे अटूट प्रमाण मौजद हैं, जिनमें छोटे-छोटे अबोध बच्चों ने अपने पूर्वजन्मों के स्थानों को और संबंधियों को इस प्रकार पहचाना है कि उसमें पुनर्जन्म के विषय में किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश ही नहीं रहती। बालक जन्म लेते ही दूध पीने लगता है, यदि पूर्व स्मृति न होती तो वह बिना सिखाए किस प्रकार यह सब सीख जाता, बहुत-से बालकों में अत्यल्प अवस्था में ऐसे अद्भुत गुण देखे जाते हैं, जो प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान इस जन्म का नहीं, वरन पूर्वजन्म का है।

जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं हैं। जैसे कपड़ों को हम यथा समय बदलते रहते हैं, उसी प्रकार जीव को भी शरीर बदलने पड़ते हैं। तमाम जीवन भर एक कपड़ा पहना नहीं जा सकता, उसी प्रकार अनंत जीवन तक एक शरीर नहीं ठहर सकता। अतएव उसे बारबार बदलने की आवश्यकता पड़ती है। स्वभावतः तो कपड़ा पुराना जीर्ण-शीर्ण होने पर ही अलग किया जाता है, पर कभी-कभी जल जाने, किसी चीज में उलझकर फट जाने, चूहों के काट देने या अन्य कारणों से वह थोड़े ही दिनों में बदल देना पड़ता है। शरीर साधारणतः वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है, परंतु यदि बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाएँ, तो अल्पायु में भी शरीर त्यागना पड़ता है।

मृत्यु किस प्रकार होती है? इस संबंध में तत्त्वदर्शी योगियों का मत है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है, क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है, किंतु पुराने अभ्यास के कारण वह फिर उन नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है, यही पीड़ा का कारण है। रोग, आघात या अन्य जिस कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट उत्पन्न होता है। मरने से पूर्व प्राणी कष्ट पाता है, चाहे वह जवान से उसे प्रकट कर सके या न कर सके, लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिलकुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूच्र्छा आ जाती है और उस अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। जब मनुष्य मरने को होता है, तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अंतर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूलशरीर से बाहर निकल पड़ती हैं। पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्मशरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। जीवन में जो बातें भूलकर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं। वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जाग्रत एवं सजीव हो जाती हैं। इसलिए कुछ ही क्षण के अंदर अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देखा जाता है। इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है। उनमें से आधी भी घटनाओं के मानसिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत समय की आवश्यकता होती, पर इन क्षणों में वह बिलकुल ही स्वल्प समय में पूरी-पूरी तरह मानव-पटल पर घूम जाती हैं। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है, वह सार रूप में संस्कार बनकर मृतात्मा के साथ हो लेता है। कहते हैं कि यह घड़ी अत्यंत ही पीड़ा की होती है। एक साथ हजार बिच्छुओं के दंश का कष्ट होता है। कोई मनुष्य भूल से अपने पुत्र पर तलवार चला दे और वह अधकटी अवस्था में पड़ा छटपटा रहा हो, तो उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के हृदय में अपनी भूल के कारण प्रिय पुत्र के लिए ऐसा भयंकर कांड उपस्थित करने पर जो दारुण व्यथा उपजती है, ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय प्राण अनुभव करता है, क्योंकि बहुमूल्य जीवन का अकसर उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया जैसा कि करना चाहिए था। जीव जैसी बहुमूल्य वस्तु का दुरुपयोग करने पर उसे उस समय मर्मातक मानसिक वेदना होती है। पुत्र के कटने पर पिता को शारीरिक नहीं, मानसिक कष्ट होता है, उसी प्रकार मृत्यु के ठीक समय पर प्राणी की शारीरिक चेतनाएँ तो शून्य हो जाती हैं, पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि शारीरिक पीड़ा तो कुछ क्षण पूर्व ही, जबकि इंद्रियों की शक्ति अंतर्मुखी होने लगती है, तब ही बंद हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बंधन टूटने आरंभ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है, जब उसका डंठल असमर्थ हो जाता है, उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है, जब शारीरिक शिथिलता और अचेतना आ जाती है। ऊर्ध्व रंध्रो में से अकसर प्राण निकलता है। मुख, आँख, कान, नाक प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट वृत्ति के लोगों का प्राण मल-मूत्र मार्गों से निकलता देखा जाता है। योगी ब्रह्मरंध्र से प्राण त्याग करता है।

शरीर से जी निकल जाने के बाद वह एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है। घोर परिश्रम से थका हुआ आदमी जिस प्रकार कोमल शैय्या प्राप्त करते ही निद्रा में पड़ जाता है, उसी प्रकार मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी शांति मिलती है और आगे का काम करने के लिए शक्ति प्राप्त कर लेता है। मरते ही नींद नहीं आ जाती, वरन इसमें कुछ देर लगती है। प्रायः एक महीना तक लग जाता है। कारण यह है कि प्राणांत के बाद कुछ समय तक जीवन की वासनाएँ प्रौढ़ रहती हैं और वे धीरे-धीरे ही निर्बल पड़ती हैं। कड़ा परिश्रम करके आने पर हमारे शरीर का रक्त-संचार बहुत तीव्र होता रहता है और पलंग मिल जाने पर भी उतने समय तक जागते रहते हैं, जब तक फिर रक्त की गति धीमी न पड़ जाए। मृतात्मा स्थूलशरीर से अलग होने पर सूक्ष्मशरीर में प्रस्फुटित हो जाता है, यह सूक्ष्मशरीर ठीक स्थूलशरीर की ही बनावट का होता है। मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हलका हो गया है, वह हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता है और इच्छा मात्र से चाहे जहाँ आ-जा सकता है। स्थूलशरीर छोड़ने के बाद वह अपने मृत शरीर के आस-पास ही मँडराता रहता है। मृत शरीर के आस-पास प्रियजनों को रोता-बिलखता देखकर वह उनसे कुछ कहना चाहता है या वापस पुराने शरीर में लौटना चाहता है, पर उसमें वह कृत्कार्य नहीं होता।

एक प्रेतात्मा ने बताया है कि "मैं मरने के बाद बड़ी अजीव स्थिति में पड़ गया। स्थूलशरीर में और प्रियजनों में मोह होने के कारण मैं उसके संपर्क में आना चाहता था, पर लाचार था। मैं सबको देखता था, पर मुझे कोई नहीं देख सकता था, मैं सबकी वाणी सुनता था, पर मैं जो बडे जोर-जोर से कहता था, उसे कोई भी नहीं सुनता था। इन सब बातों से कुछ तो कष्ट होता था। कुछ अपने नवीन शरीर के बारे में खुशी भी थी कि मैं कितना हलका हो गया हूँ और कितनी तेजी से चारों ओर उड़ सकता हूँ। जीवित अवस्था में मैं मौत से डरा करता था, यहाँ मुझे डरने लायक कुछ भी बात मालूम नहीं हुई। सूक्ष्मशरीर में प्रस्फुटित होने के कारण पुराने शरीर से कुछ विशेष ममता न रही, क्योंकि नया शरीर पुराने की अपेक्षा हर दृष्टि से अच्छा था। मैं अपना अस्तित्व वैसा ही अनुभव करता था जैसा कि जीवित दशा में। कई बार मैंने अपने हाथ-पाँवों को हिलाया-डुलाया और अपने अंगप्रत्यंगों को देखा, पर मुझे ऐसा नहीं लगा मानो मर गया हूँ। तब मैंने समझा कि मृत्यु में कुछ डरने की बात नहीं है, वह शरीर-परिवर्तन की एक मामूली सुख-साध्य क्रिया है।''

जब तक मृतशरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है, तब तक जीव बार-बार उसके आस-पास मँडराता रहता है। जला देने पर वह उसी समय उससे निराश होकर दूसरी ओर मन को लौटा लेता है, किंतु गाड़ देने पर वह उस प्रिय वस्तु का मोह करता है और बहुत दिनों तक उसके इधर-उधर फिरा करता है। अधिक अज्ञान और माया-मोह के बंधन में अधिक दृढ़ता से बँधे हुए मृतक प्रायः श्मशानों में बहुत दिन तक चक्कर काटते रहते हैं। शरीर की ममता बार-बार उधर खींचती है और वे अपने को सँभालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस-पास रुदन करते हैं। कई ऐसे होते हैं। जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों की बजाय प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं। बूढ़े मनुष्यों की वासनाएँ स्वभावत: ढीली पड़ जाती हैं, इसलिए वे मृत्यु के बाद बहुत जल्दी निद्राग्रस्त हो जाते हैं, किंतु वे तरुण जिनकी वासनाएँ प्रबल होती हैं, बहुत काल तक विलाप करते फिरते हैं, खासतौर से वे लोग जो अकाल मृत्यु, अपघात या आत्महत्या से मरे होते हैं। अचानक और उग्र वेदना के साथ मृत्यु होने के कारण स्थलशरीर के बहुत-से परमाणु सक्षमशरीर के साथ मिल जाते हैं, इसलिए मृत्यु के उपरांत उनका शरीर कुछ जीवित, कुछ मृतक, कुछ स्थूल, कुछ सूक्ष्म-सा रहता है। ऐसी आत्माएँ प्रेत रूप से प्रत्यक्ष-सी दिखाई देती हैं और अदृश्य भी हो जाती हैं। साधारण मृत्यु से मरे हुओं के लिए यह नहीं है कि वह तुरंत ही प्रकट हो जाएँ, उन्हें उसके लिए बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है और विशेष प्रकार का तप करना पड़ता है, किंतु अपघात से मरे हुए जीव सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान रहते हैं और उनकी विषम मानसिक स्थिति नींद भी नहीं लेने देती। वे बदला लेने की इच्छा से या इंद्रिय वासनाओं को तृप्त करने के लिए किसी पीपल के पुराने पेड़ की गुफा, खंडहर या जलाशय के आस-पास पड़े रहते हैं और जब अवसर देखते हैं, अपना अस्तित्व प्रकट करने या बदला लेने की इच्छा से प्रकट हो जाते हैं। इन्हीं प्रेतों को कई तांत्रिक शवसाधना करके या मरघट जगाकर अपने वश में कर लेते हैं और उनसे गुलाम की तरह काम लेते हैं। इस प्रकार बाँधे हुए प्रेत इस तांत्रिक से प्रसन्न नहीं रहते, वरन मन-ही-मन बड़ा क्रोध करते हैं। और यदि मौका मिल जाए, तो उन्हें मार भी डालते हैं। बंधन सभी को बुरा लगता है, प्रेत लोग छूटने में असमर्थ होने के कारण अपने मालिक का हुक्म बजाते हैं, पर सरकस के शेर की तरह उन्हें इससे दुःख रहता है। आबद्ध प्रेत प्रायः एक ही स्थान पर रहते हैं और बिना कारण जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन नहीं करते।

साधारण वासनाओं वाले प्रबुद्धचित्त और धार्मिक वृत्ति वाले मृतक अंत्येष्टि क्रिया के बाद फिर पुराने संबंधी से रिश्ता तोड़ देते हैं और मन को समझाकर उदासीनता धारण कर लेते हैं। उदासीनता आते ही उन्हें निद्रा आ जाती है और आराम करके नई शक्ति प्राप्त करने के लिए निद्राग्रस्त हो जाते हैं। यह नींद-तंद्रा कितने समय तक रहती है, इसका कुछ निश्चित नियम नहीं है। यह जीव की योग्यता के ऊपर निर्भर है। बालकों और मेहनत करने वालों को अधिक नींद चाहिए, किंतु बूढ़े और आरामतलब लोगों का काम थोड़ी देर सोने से ही चल जाता है। आमतौर से तीन वर्ष की निद्रा काफी होती है। इसमें से एक वर्ष तक बड़ी गहरी निद्रा आती है, जिससे कि पुरानी थकान मिट जाए और सूक्ष्म इंद्रियाँ संवेदनाओं का अनुभव करने के योग्य हो जाएँ। दूसरे वर्ष उसकी तंद्रा भंग होती है और पुरानी गलतियों के सुधार तथा आगामी योग्यता के संपादन का प्रयत्न करता है। तीसरे वर्ष नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है। यह अवधि एक मोटा हिसाब है। कई विशिष्ट व्यक्ति छह महीने में ही नवीन गर्भ में आ गए हैं, कई को पाँच वर्ष तक लगे हैं। प्रेतों की आयु अधिक-से-अधिक बारह वर्ष समझी जाती है। इस प्रकार दो जन्मों के बीच का अंतर अधिकसे-अधिक बारह वर्ष हो सकता है।

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