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आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15536
आईएसबीएन :0

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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन

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नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन


आज समाज को प्रतिभा सम्पन्नों की आवश्यकता है। अगले दिनों लोक नेतृत्व भी वही सम्हालेंगे। यह व्यक्तित्व आयें कहाँ से? यह एक बड़ा प्रश्न था। स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर चुके थे। भारतीय संस्कृति की प्रामाणिकता भी उन्होंने प्रतिष्ठित कर दी थी, पर वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में प्राय: उदास रहते थे।

एक दिन उनके गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द ने प्रश्न किया-स्वामी जी! आपके मन में कहीं कोई पीड़ा है?

स्वामी जी ने बताया - सब काम हो गया, पर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्वों का उत्पादन नहीं हो पाया - यही मेरे दुःख का कारण है। जीवन के अन्तिम समय में परम पू. गुरुदेव का भी यही संकल्प व्यक्त हुआ। एक लाख प्रतिभा सम्पन्न आत्माओं का उत्पादन और उनका युग परिवर्तन कार्य में निसोजन-सतयुग की वापसी की अनिवार्य शर्त थी। परम पू. गुरुदेव ने उनके लिए शान्तिकुञ्ज आरण्यक की स्थापना की और उन साधनाओं का मार्गदर्शन किया, जिससे व्यक्तित्व ढलेंगे। प्रस्तुत पुस्तिका जिन हाथों में पहुंचेगी, उन्हें अपने आपको खान से प्रयत्नपूर्वक निकाले गये, काले-कुरूप हीरे-जवाहरात समझना चाहिए जो इस नौ दिवसीय साधना-अनुष्ठान की मशीन में तराशे जाने के लिए तैयार हुए, तो एक से एक बढ्‌कर विवेकानन्द जैसे बनकर निकलेंगे।

परम पू. गुरुदेव ने समय-समय पर घोषित किया है कि निकल का विकास नवयुग की गंगोत्री के रूप मैं किया गया है। यहाँ से परिष्कृत प्रतिभाओं के निर्माण-निखार का कार्य व्यापक स्तर पर चलेगा। इस नव निर्माण प्रक्रिया में अध्यात्मिक साधना विज्ञान की विशेष भूमिका होगी। विश्वव्यापी समस्याओं के समाधान खोजने योग्य प्रखर विवेक एवं प्रचण्ड पुरुषार्थ, साधना प्रक्रिया द्वारा ही जागेगा। अवाच्छनीयता के निवारण और श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण कारक दैवी प्रवाह और साधना पुरुषार्थ का संयोग ही सफलता प्राप्त कर सकेगा। इन दिनों राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी हैँ कि जरा सी असावधानी से सर्वनाश जैसा दृश्य उपस्थित हो सकता है। बढ़ते हुए अहंकार तथा आयुधों के भंडार कभी भी भयानक युद्ध में मनुष्यता को झोंक सकते हैं वैज्ञानिक बढ़ते प्रदूषण की समस्या से चिंतित हैं। धरती के रक्षाकवच ओजोन को परत का क्षीण होना, तापक्रम में होती वृद्धि बिगड़ता पर्यावरण संतुलन-ये कभी भी प्रकृति के प्रकोपों का विस्फोट कर सकतै हैं। उस स्थिति में विज्ञान असहाय की तरह देखता भर रह जायेगा। समाजशासी बढ़ती जनसंख्या तथा अपराधवृत्ति के कारण चिन्तित हैं। अभी भी उसकी प्रतिक्रियाएँ सम्हलती नहीं दिखती, और बढ़ जायेगी, तब क्या होगा?

इन सब स्थितियों को देखकर विनाश ही निकट दिखाई देता है; किन्तु पूज्य गुरुदेव का कथन है कि सष्टा इस सुन्दर सृष्टि को नष्ट होने नहीं देना चाहता। मनुष्य की शक्ति के परे समस्या हो जाने के कारण वह सीधे ही हस्तक्षेप करेगा। मनुष्य को अविवेकपूर्ण रवैया अपनाने का दण्ड तो कुछ न कुछ मिलेगा ही, किन्तु कोई शक्ति मनुष्यता को उज्जल भविष्य की ओर खीचंकर ले जायेगी। ऐसे ही कथन दिव्य दृष्टि सम्पन्न भविष्य द्रष्टाओं के भी हैं। फ्रांस के नेस्ट्राडेमस, महात्मा सूरदास, प्रोफेसर कीरो, जीन डिक्सन आदि ने भी प्रकारान्तर से ऐसे ही संकेत दिए हैं।

युग सन्धिकाल में दिव्य बांटे जाते हैं युग अनुदान उदारतापूर्वक। अध्यात्म विज्ञान दिन चेतना से आदान-प्रदान का ही विज्ञान है। साधानाओं द्वारा अपने पुरुषार्थ से भी ऋद्धि-सिद्धियाँ, स्वर्ग, जीवन-मुक्ति जैसे लाभ कमाये जा सकते हैं। वशिष्ठ के पास कामधेनु-नन्दिनी होने तथा दिव्य अस्त्रों को ब्रह्मदण्ड से परास्त करने के चमत्कार सर्वविदित हैं। विश्वामित्र द्वारा नयी सृष्टि निर्माण की शक्ति अर्जित करना, अगस्ल द्वारा समुद्र सोखना,भारद्वाज द्वारा सारी अयोध्या का आतिथ्य करना-साधना की सिद्धियों के ही परिणाम थे।

उन दिनों जैसी कठोर दीर्घकालीन साधनाएँ आज सम्भव नहीं हैं, किन्तु युगऋषि ने अपने जीवन की प्रयोगशाला में, करने में सुगम और प्रभाव की दृष्टि से असाधारण साधनाएँ विकसित की हैं। उनका स्वयं का जीवन इसका प्रमाण रहा है। फिर इन दिनों साधनापुरुषार्थ के साथ दो और भी महत्वपूर्ण पक्ष जुड़े है-युगसन्धि के अवसर पर अधिक उदारतापूर्वक प्राप्त होने वाले दिव्य अनुदान तथा दूसरा है नवयुग की गंगोत्री शान्तिकुञ्ज के विशिष्ट प्राणवान वातावरण का योगदान। इनके कारण सही प्रकार किया हुआ थोड़ा सा साधना-पुरुषार्थ भी असामान्य लाभ प्रदान करता है।

उपयुक्त साधनाओं के साथ उपयुक्त वातावरण का भी महत्व सामान्य नहीं। प्राचीन ऋषियों से लेकर गुरुनानक, गुरुगोविन्द सिंह, ऋषि दयानन्द आदि सभी ने हिमालय के प्राणवान क्षेत्र में साधनाएँ करके ही प्रखर आत्मबल एवं शक्तियों क्य संचय किया था। गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को देवप्रयाग, भरत को ऋषिकेश, लक्ष्मण को लक्ष्मण झूला तथा शत्रुघ्न को मुनि को रेती में रहकर तप करने के निर्देश दिये थे। भगवान कृष्ण ने बदरीनाथ क्षेत्र में रहकर तप साधना की थी।

शान्तिकुञ्ज पवित्र सप्तऋषि क्षेत्र में स्थित है। इस स्थान पर विश्वामित्र जी ने नये सृजन के लिए प्रचण्ड तप किया था। पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी ने उसे अपने तप से जीवन्त करके नवयुग की गंगोत्री के स्तर पर ला दिया है। ऐसे जागते तीर्थ में की हुई साधना निश्चित रूप से अन्यत्र की गयी साधना की अपेक्षा अनेक गुनी प्रभावशाली होती है।

''साधना से सिद्धि'' का सूत्र सर्वविदित है। मनुष्य के अंतराल में दिव्य शक्तियों के भण्डार छिपे हुए हैं। मूलाधार से सहस्रार तक फैले इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना तथा चक्रों के तंत्र को जागत--झंकृत करने .में साधना विज्ञान ही सक्षम है! मस्तिष्क जादू की पिटारी है। उसका केवल ७ से १४ प्रतिशत भाग सक्रिय रहता है। उसके प्रसुप्त अंश को जगत करके, उसके माध्यम से ब्रह्माण्डीय शक्तियों से आदान-प्रदान संभव है। साधनाएँ दिव्यता धारण करने की पात्रता बढ़ाती हैं। युगर्सी धा के संदर्भ में मुक्तहस्त से बांटी जाने वाली दिव्य क्षमता को ग्रहणधारण एवं प्रयुक्त करने की क्षमता का विकास साधनाओं के सहारे ही किया जा सकता है। इस प्रकार अनायास ही असाधारण श्रेय-सौभाग्य के द्वार खुलने संभव हैं।

शान्तिकुंज के साधना सत्रों की उपयोगिता उक्त दृष्टियों से असामान्य है। यह पंक्तिया साधकों तक पहुँचाने का उद्देश्य यही है कि वे उपयुक्त मनोभूमि और अभ्यास लेकर पहुँच सकें। इससे साधना में प्रतिष्ठित होकर उनका भरपूर लाभ उठाना संभव हो सकेगा। युग ऋषि नेदुरूह साधनाओं को सुगम तथा प्रभावशाली बना दिया है, किन्तु उन्हें सही ढंग से, निर्धारित अनुशासनों सहित तो करना ही होगा। थोड़ी सी मनोयोग युक्त तत्परता बरतने से ही साधक दिव्य अनुदानों की उस दुर्लभ धारा से जुड़ सकते हैं जो कभी-कभी ऐसे विशिष्ट अवसरों पर ही खुलती है।

शान्तिकुंज बर्तन पकाने के ऑवे की तरह है, जहाँ श्रेष्ठ और प्रखर प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्त्व ढाले जाते हैं। ऑवे से बाहर छिटक जाने वाले बर्तन कच्चे रह जाते हैं। माँ के पेट में बैठे बालक को प्रकृति जीवन के सभी आवश्यक तत्व और उपादान बिना मोगे प्रदान करती है। शांतिकुञ्ज साधना अनुष्ठान के ९ दिन, १ माह की गर्भावस्था है। उस स्थिति को पार कर लेने पर जीवन का आनंद और संसार भर का प्यार और सहयोग मिलने के समान अभूतपूर्व लाभ करतलगत होते हैं। आशा की जानी चाहिए आप इस अनुष्ठान से लौटने पर अपने भीतर एक प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्त्व का जन्म हुआ अनुभव करेंगे। उसके बदले सारे संसार का सम्मान आपको मिले, तो इसे नितान्त सहज और स्वाभाविक मानें। आत्मिक लाभों का अनुभव तो गूंगे के गुड की तरह अनिर्वचनीय अनु भव करेंगे ही।

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    अनुक्रम

  1. नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
  2. निर्धारित साधनाओं के स्वरूप और क्रम
  3. आत्मबोध की साधना
  4. तीर्थ चेतना में अवगाहन
  5. जप और ध्यान
  6. प्रात: प्रणाम
  7. त्रिकाल संध्या के तीन ध्यान
  8. दैनिक यज्ञ
  9. आसन, मुद्रा, बन्ध
  10. विशिष्ट प्राणायाम
  11. तत्त्व बोध साधना
  12. गायत्री महामंत्र और उसका अर्थ
  13. गायत्री उपासना का विधि-विधान
  14. परम पू० गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा की जीवन यात्रा

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