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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

सामने ही एक दालान था। दालान में एक काठ की चौकी और चौकी पर मृगछाला बिछी हुई थी। उस पर एक महात्मा विराजमान थे। नीचे धूनी लग रही थी और चौकी पर बैठे हुए महात्मा दरवाजे की ओर पीठ किए चिलम पी रहे थे। दरवाजा खुलने की आवाज से वह एकदम पलटे और उन दोनों की ओर देखकर बोले-''ओह.. देवसिंह.. आओ, हम तुम्हारा ही इन्तजार कर रहे थे।'' - ''क्या यही भूतेश्वरनाथ हैं?'' अग्निदत्त ने बहुत धीरे से अपने साथी से पूछा।

''नहीं।'' शिकारी, जो वास्तव में देवसिंह था, बोला- ''ये भूतेश्वरनाथ नहीं - कोई और ही हैं।''

'आओ.. आओ देवसिंह।'' इससे पहले कि अग्निदत्त कुछ और पूछते, महात्मा ने कहा-''मुझे तुमसे बहुत ही जरूरी और गुप्त बातें करनी हैं। आओ, डरो मत, हमारे पास आ जाओ।'' फिर अन्दर की ओर मुंह करके बोले- ''नन्नी... अरी ओ नन्नी!''

'हां बापू!'' अन्दर से आवाज के साथ एक कम उम्र की कमसिन-सी लड़की बाहर आई। उसने उन दोनों देखा और बोली- ''अरे.. देवसिंहजी.. आप आ गए! बापू आप ही की तो बाट जोह रहे थे.. ठहरिए!'' यह कह वह पुन: कोठरी में घुस गई। और इस बार जब लौटकर आई तो साथ में एक काला कम्बल भी लाई। उसे धूनी के पास ही बिछाकर वह बोली-''आइए.. इस पर बैठ जाइए।''

अग्निदत्त और देवसिंह विचित्र-सी उलझन के साथ कभी महात्मा को देखते तो कभी उस लड़की को, जिसका नाम महात्माजी ने नन्नी लिया था। उन दोनों के ही बदन पर गेरुए कपड़े थे। दोनों युवकों की नजरें मिलीं और वे कम्बल पर बैठ गए। बैठते समय उन्होंने देखा कि महात्माजी के लिबास में कई स्थान पर खून की बूंदें लगी हुई थीं। इससे उन्हें विश्वास हो गया कि यही महात्मा चीता बना हुआ था। उन दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। इस विषय पर कोई बात न छेड़कर देवसिंह ने कहा-''हमने आपको पहचाना नहीं महाराज.. आप कौन हैं? हमसे क्या चाहते हैं? आप हमसे क्या बात करना चाहते हैं? इस जंगल में आप क्यों रहते हैं और हमारा इन्तजार क्यों कर रहे हैं?''

''इन सब बातों को छोड़ो, देवसिंह।'' महात्माजी ने कहा- ''तुम्हारा इन्तजार बहुत ही जरूरी और भेद-भरी बातें करने के लिए कर रहा था मैं। तुम मुझे अपना दोस्त ही समझो और हमारी वातों पर विश्वास करना।''

''पहले तो आप कृपा करके बताएं कि क्या आप ही वह चीता बने थे जिसे हमने घायल किया?'' अग्निदत्त ने पूछा।

''नहीं.. मैं वो नहीं हूं।'' महात्माजी ने सीधा और सपाट उत्तर दिया।

'तो फिर आपके कपड़ों पर ये खून?'' देवसिंह ने प्रश्न किया--- ''इसका क्या सबब है?''

'इसका वह सबब नहीं है जो तुम समझते हो।'' महात्माजी ने कहा--- ''इसका तो कोई दूसरा ही सबब है। लेकिन तुम फिलहाल इस बेकार की बात में अपना दिमाग मत उलझाओ। इस समय केवल उस बात पर ध्यान दो.. जिसके लिए मैं यहां तुम्हारा इन्तजार कर रहा था।''

देवसिंह और अग्निदत्त की नजरें मिली.. अभी वे अपनी नजरों के माध्यम से कोई खास बात कर भी नहीं पाए थे कि महात्माजी ने नन्नी से कहा- ''नन्नी बेटी.. जरा मेरा वो थैला लाना जो अन्दर कोठरी में खूंटी पर लटक रहा है।''

नन्नी पुन: वहां से चली गई और इस बार जब वह वापस आई तो उसके हाथ में गेरुए रंग का एक बहुत बड़ा-सा थैला था। हाथ बढ़ाकर महात्माजी ने थैला ले लिया.. और बोले- ''नन्नी बेटी, मुझे देवसिंह से कुछ गुप्त बातें करनी हैं। तू अन्दर जाकर मेहमानों के लिए भांग छान।''

नन्नी उनका आदेश प्राप्त कर चली तो गई - किन्तु देवसिंह और अग्निदत्त ने यह महसूस किया कि वह अजीब-सी नजरों से घूरकर गई थी और जाने के ढंग से साफ जाहिर था कि वह जाना नहीं चाहती थी बल्कि वे भेद-भरी बातें वह भी सुनना चाहती थी। नन्नी के अन्दर चली जाने के बाद महात्माजी ने थैले से एक तस्वीर निकाली और देवसिंह तथा अग्निदत्त के सामने रखकर बोले- ''ध्यान से देखो इस तस्वीर को - क्या तुम इसे पहचानते हो?''

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