लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 3

देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054
आईएसबीएन :0000000

Like this Hindi book 0

चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

तीसरा बयान


हमारे प्रेरक पाठको, आप दूसरे भाग के अन्तिम बयानों में शेरसिंह नामक ऐयार की जबरदस्त ऐयारी का नमूना तो देख ही आए हैं। हमारा विचार है कि यह भी आप नहीं भूले होंगे कि गुरुवचनसिंह के कहने के अनुसार यही शेरसिंह इस जन्म का अलफांसे है। आज तक आप मेरी किताबों मै अलफांसे के वे ही करतब देखते आए हैं - जो उसने इस जन्म में, यानी जब वह अलफांसे था, में किए हैं। किन्तु आज जब अलफांसे के पूर्व जन्म का रहस्य खुल ही गया है तो उसके करतब पढ़कर जानिए कि पहले जन्म में आपका यही अलफांसे कितना दबंग ऐयार था। हम और हमारे पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि हम सन्तति का यह कथानक भी अपने अन्य उपन्यासों की भांति कल्पित लिख रहे हैं, किन्तु हम यहां पर लिख देना आवश्यक समझते है कि यह कथानक काल्पनिक अवश्य है, किन्तु असंभव नहीं है।

हमारे जिन पाठकों ने इतिहास का अध्ययन किया है, उन्होंने पढ़ा होगा कि युद्ध के पासे इसी तरह से रातों-रात उलट जाते थे। ऐसी स्थिति कोई एकदम जादू से नहीं बदल जाती थी, बल्कि यह सब कमाल ऐयारों का होता था, जैसे कि आप पीछे पढ़ आए हैं - शेरसिंह ने किस खूबसूरत ढंग से बिना किसी मार-काट के एक ही रात में किस तरह सुरेन्द्रसिंह की हार को जीत में और चन्द्रदत्त की जीत को हार में बदल दिया। पाठकों को भली प्रकार याद होगा कि हमने शेरसिंह और गोपालदास को एकदम भरतपुर की राजधानी के अन्दर से बाहर चन्द्रदत्त की सेना के बीच में दिखा दिया था। हमने आपसे वादा किया था कि हम तीसरे भाग में यह रहस्य अवश्य खोलेंगे कि शेरसिंह और गोपालदास राजधानी से बाहर कैसे आ गए? अब वक्त आ गया है पाठक जरा ध्यान से पढ़ें, वह रहस्य खुलने जा रहा है कि शेरसिंह और गोपालदास बाहर कैसे आए? हम देख रहे हैं कि नलकूराम बना हुआ शेरसिंह अभी-अभी राजा चन्द्रदत्त के डेरे से बाहर निकला है। इस बार भी उसे नलकूराम ही समझकर कोई नहीं रोकता। वह नलकूराम वाले डेरे में पहुंच जाता है। वहां सुखदेव का भेस बनाए गोपालदास बैठा है। उसके पहुंचते ही गोपालदास कहता है- ''कहो शेरसिंह, क्या रहा?''

''हम सफल हो गए।'' शेरसिंह उसके पास पहुंचकर बोला- ''चन्द्रदत्त को हम पर बिल्कुल भी शक नहीं हुआ और वह हमारे जाल में फंस गया है। कल सुबह हम पन्नालाल बनकर राजगढ़ से सूचना लाने का ढोंग रचाएंगे। लेकिन यह समय बातों में खोने का नहीं है गोपाल - हम इन दोनों (नलकूराम और सुखदेव ) को महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास ले जाते हैं और अपनी सफलता की सूचना देकर उनके बेचैन चित्त को आराम पहुंचाते हैं। उस समय तक तुम इसी भेस में आराम से यहां रहो। अगर हम दोनों राजधानी के अन्दर गए तो सम्भव है कि हमारे बाद इस डेरे में चन्द्रदत्त का कोई ऐयार आ जाए और वह हमारी सुरंग का भेद जान जाए। तुम सुरंग के पहरे पर यहीं रहो - हम इन दोनों को लेकर राजा सुरेन्द्रसिंह के पास जाते हैं। अब तुम्हें भी सुबह को हमारे दर्शन पन्नालाल के भेष में ही होंगे।'' इतना कहकर शेरसिंह डेरे के कोने की ओर बढ़ा तथा नलकू और सुखदेव की गठरियों को अपनी पीठ पर लादकर डेरे के एक तरफ की दरी हटा दी। उस स्थान पर कच्ची धरती की बजाए लकड़ी का एक तख्ता रखा था। तख्ता हटाने पर पता लगता था कि वहां एक सुरंग है। उस सुरंग की मिट्टी बता रही थी कि यह सुरंग अभी ताजा ही खोदी गई थी। सुरंग के अन्धेरे को शेरसिंह ने अपने बटुए से चकमक और मोमबत्ती निकालकर दूर किया। अब मोमबत्ती की रोशनी में हम भी भली प्रकार देख सकते हैं कि यह केवल इतनी ऊंची और चौड़ी है कि एक बार में केवल एक ही आदमी गुजर सकता है। शेरसिंह के उस सुरंग में उतरते ही गोपालदास ने सुरंग का मुंह लकड़ी के तख्ते से ढक दिया और ऊपर से दरी डाल दी --और नलकू और सुखदेव की गठरियों को सम्भाले शेरसिंह मोमबत्ती की रोशनी में बढ़ा चला जा रहा है।

कुछ देर बाद वह सुरंग के दूसरे कोने में पहुंच जाता है। यह सुरंग खुद शेरसिंह के मकान में जाकर खुलती है। लिखने की आवश्यकता नहीं है कि शेरसिंह का मकान राजधानी के अन्दर ही है। शेरसिंह के मकान के इस कमरे में सुरेन्द्रसिंह बैठे हुए उसी का इन्तजार कर रहे हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book