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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''आपस में होती हुई उनकी बातें सुनते इतना वक्त गुजर गया।'' रोशनसिंह बोला- ''अब भी अगर उसका नाम पता नहीं लगेगा तो मैं क्या खाक ऐयार हूं? उसका ही नहीं, मुझे इन सभी के नाम पता लग गये हैं... उसका नाम अजय है और जिसके पीछे तुम निकले हो, ये विजय के पिता ठाकुर निर्भयसिंह हैं। इन सबके आपस में मुझे रिश्ते भी पता हैं।''

''बहुत बढ़िया!'' गोवर्धनसिंह उसके जवाब से खुश होता हुआ बोला- 'तो सुनो।'' इतना कहने के बाद उसने रोशनसिंह के कान में धीरे-धीरे कुछ कहा। रोशनसिंह इस तरह गरदन हिलाता रहा.. मानो वह सब बातें धीरे-धीरे समझ रहा हो। कुछ देर पश्चात् गोवर्धनसिंह ने उसके कान के पास से अपना मुंह हटाया और बोला- ''बस... अब? ज्यादा वक्त बरबाद मत करना... मैंने जैसा कहा है वैसा ही करो.. देखो, निर्भयसिंह निकला जा रहा है..' उसके पीछे जा रहा हूं।'' इतना कहने के बाद गोवर्धनसिंह उनमें से किसी की बात सुनने तक के लिये वहां नहीं रुका और ठाकुर साहब के पीछे चल दिया। जाते समय उसके कानों में गोमती की आवाज जरूर पड़ी, जो रोशनसिंह से यह पूछ रही थी कि उसके कान में क्या कहा था... रोशनसिंह उसे बता रहा है या नहीं, इस बात का ख्याल किये बिना गोवर्धनसिंह आगे बढ़ गया।

टैक्सी स्टैण्ड से निर्भयसिंह ने एक टैक्सी ली... गोवर्धनसिंह ने भी उनका अनुकरण किया।

ठाकुर साहब अपनी कोठी पर पहुंचे थे.. कदाचित् वे यात्रा की कोई खास तैयारी करना चाहते थे। उसी समय गोवर्धनसिंह के दिमाग में एक तरकीब आई और उसने एक कागज पर जल्दी-जल्दी लिखा। अगले कुछ क्षणोपरांत वह ठाकुर निर्भयसिंह की कोठी में दाखिल हो गया।

''आईजी साहब.. आईजी साहब!'' अन्दर पहुंचते ही अचानक वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। वह ऐसा अभिनय कर रहा था, मानो उसे ठाकुर निर्भयसिंह से बहुत ही जरूरी काम था। इसे उसका नसीब ही कहा जायेगा कि उस समय कोठी में ठाकुर निर्भयसिंह के अलावा कोई नहीं था। विजय की माताजी विजय की छोटी बहन कुसुम के साथ अपने मायके गई हुई थीं और घर का कोई भी आदमी इन दिनों कोठी पर नहीं था.... इसलिए सभी नौकर भी छुटटी पर थे। उस समय ठाकुर साहब बाथरूम में जाकर नहाने की सोच रहे थे, जब गोवर्धनसिंह की आवाज उनके कानों में पड़ी। वे फौरन बाहर निकलकर आये और एक गंवारू-से आदमी को इस तरह चीखता हुआ देखकर बोले- ''कौन है.. क्या बात है?''

''आई.जी. ..... मुझे आई.जी. साहब से मिलना है।'' गोवर्धनसिंह किसी घबराये-से आदमी का अभिनय करता हुआ उनके पास आया।

''हां बोलो.. हम ही आई.जी. हैं.. क्या काम है?'' ठाकुर साहब ने कहा।

'आप.. आप आई.जी. हैं!'' गोवर्धनसिंह ने कहा- ''मुझे बचाइये।'' कहता हुआ गोवर्धनसिंह एकदम उनके करीब पहुंच गया।

''क्या बात है ... तुम इतने घबराये हुए क्यों हो?'' ठाकुर साहब ने पूछा।

''मुझे.. मुझे बदमाशों का यह खत मिला है।'' कहते हुए गोवर्धनसिंह ने एक कागज निकालकर ठाकुर साहब को पकड़ा दिया। उन्होंने कागज खोला और पढ़ा, उसमें लिखा था- 'शंकरदयाल.. हम तुम्हें इस खत के साथ एक डिबिया भेज रहे हैं। तुम जानते हो कि हमने तुम्हारे इकलौते लड़के को उठा लिया है। इस खत के साथ जो डिबिया हम भेज रहे हैं.. वह तुम आई.जी. के घर पर जाकर उन्हें दे दो। अगर ऐसा नहीं किया तो हम तुम्हारे लड़के को मार डालेंगे। ध्यान रहे..... यह डिबिया आई.जी. के पास पहुंचनी ही चाहिए।''

''ये कागज तुम्हें किसने दिया?'' ठाकुर साहब ने उसे पढ़ने के बाद पूछा।

''उन्हीं बदमाशों ने।''

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