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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

 अध्याय ४

उमादेवी का दिव्यरूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! देवताओं के इस प्रकार स्तुति करनेपर दुर्गम पीड़ा का नाश करनेवाली जगज्जननी देवी दुर्गा उनके रत्नमय रथपर बैठी हुई थीं। उस श्रेष्ठ रथ में घुँधुरू लगे हुए थे और मुलायम बिस्तर बिछे थे। उनके श्रीविग्रह का एक-एक अंग करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान और रमणीय था। ऐसे अवयवों से वे अत्यन्त उद्भासित हो रही थीं। सब ओर फैली हुई अपनी तेजोराशि के मध्यभाग में वे विराजमान थीं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर था और उनकी छवि की कहीं तुलना नहीं थी। सदाशिव के साथ विलास करनेवाली उन महामाया की किसी के साथ समानता नहीं थी। शिवलोक में निवास करनेवाली वे देवी त्रिविध चिन्मय गुणों से युक्त थीं। प्राकृत गुणों का अभाव होने से उन्हें निर्गुणा कहा जाता है। वे नित्यरूपा हैं। वे दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण चण्डी कहलाती हैं परंतु स्वरूप से शिवा (कल्याणमयी) हैं। सबकी सम्पूर्ण पीड़ाओं का नाश करने-वाली तथा सम्पूर्ण जगत् की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में महानिद्रा होकर सबको अपने अंक में सुला लेती हैं तथा वे समस्त स्वजनों (भक्तों) का संसार-सागर से उद्धार कर देती हैं। शिवादेवी की तेजोराशि के प्रभाव से देवता उन्हें अच्छी तरह देख न सके। तब उनके दर्शन की अभिलाषा से देवताओं ने फिर उनका स्तवन किया। तदनन्तर दर्शन की इच्छा रखनेवाले विष्णु आदि सब देवता उन जगदम्बा की कृपा पाकर वहाँ उनका सुस्पष्ट दर्शन कर सके।

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