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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

 अध्याय ११ 

भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिये आना, हिमवान् द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थानपर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! हिमवान् की पुत्री लोकपूजित शक्तिस्वरूपा पार्वती हिमालय के घर में रहकर बढ़ने लगीं। जब उनकी अवस्था आठ वर्ष की हो गयी, तब सती के विरह से कातर हुए शम्भु को उनके जन्म का समाचार मिला। नारद। उस अद्भुत बालिका पार्वती को हृदय में रखकर वे मन-ही-मन बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। इसी बीच में लौकिक गति का आश्रय ले शम्भु ने अपने मन को एकाग्र करने के लिये तप करने का विचार किया। नन्दी आदि कुछ शान्त पार्षदों को साथ ले वे हिमालय के उत्तम शिखरपर गंगावतार (गंगोत्री) नामक तीर्थ में चले आये, जहाँ पूर्वकाल में ब्रह्मधाम से च्युत होकर समस्त पापराशि का विनाश करने के लिये चली हुई परम पावनी गंगा पहले-पहल भूतल पर अवतीर्ण हुई थीं। जितेन्द्रिय हर ने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की। वे आलस्यरहित हो चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्द-स्वरूप, द्वैतहीन त्तथा आश्रयरहित अपने आत्मभूत परमात्मा का एकाग्रभाव से चिन्तन करने लगे। भगवान् हर के ध्यानपरायण होनेपर नन्दी-भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यान में तत्पर हो गये। उस समय कुछ ही प्रमथगण परमात्मा शम्भु की सेवा करते थे। वे सब-के-सब मौन रहते और एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कुछ द्वारपाल हो गये थे।

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