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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

 

 अध्याय १४- १६ 

तारकासुर के सताये हुए देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन्हें पार्वती के साथ शिव के विवाह के लिये उद्योग करने का आदेश देना, ब्रह्माजी के समझाने से तारकासुर का स्वर्गको छोड़ना और देवताओं का वहाँ रहकर लक्ष्यसिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना

सूतजी कहते हैं- तदनन्तर नारद जी के पूछने पर पार्वती के विवाह के विस्तृत प्रसंग को उपस्थित करते हुए ब्रह्माजी ने तारकासुर की उत्पत्ति, उसके उग्र तप, मनोवांछित वर प्राप्ति तथा देवता और असुर - सबको जीतकर स्वयं इन्द्रपद पर प्रतिष्ठित हो जाने की कथा सुनायी।

तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा- तारकासुर तीनों लोकों को अपने वश में करके जब स्वयं इन्द्र हो गया, तब उसके समान दूसरा कोई शासक नहीं रह गया। वह जितेन्द्रिय असुर त्रिभुवन का एकमात्र स्वामी होकर अद्भुत ढंग से राज्य का संचालन करने लगा। उसने समस्त देवताओं को निकालकर उनकी जगह दैत्यों को स्थापित कर दिया और विद्याधर आदि देवयोनियों को स्वयं अपने कर्म में लगाया। मुने! तदनन्तर तारकासुर के सताये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अत्यन्त व्याकुल और अनाथ होकर मेरी शरण में आये। उन सबने मुझ प्रजापति को प्रणाम करके बड़ी भक्ति से मेरा स्तवन किया और अपने दारुण दुःख की बातें बताकर कहा- 'प्रभो! आप ही हमारी गति हैं। आप ही हमें कर्तव्य का उपदेश देनेवाले हैं और आप ही हमारे धाता एवं उद्धारक हैं। हम सब देवता तारकासुर नामक अग्नि में जलकर अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। जैसे संनिपात रोग में प्रबल औषधें भी निर्बल हो जाती हैं, उसी प्रकार उस असुरने हमारे सभी कूर उपायोंको बलहीन बना दिया है। भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र पर ही हमारी विजय की आशा अवलम्बित रहती है। परंतु वह भी उसके कण्ठ पर कुण्ठित हो गया। उसके गले में पड़कर ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उस असुर को फूल की माला पहनायी गयी हो।

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