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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ८

ब्रह्मा और विष्णु को भगवान् शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन

ब्रह्माजी कहते हैं- मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे। हम दोनों के मन में एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें। भगवान् शंकर दीनों के प्रतिपालक, अहंकारियों का गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम दोनों पर दयालु हो गये। उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठ से, 'ओ३म्', 'ओ३म्' ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूप से सुनायी देता था। वह नाद प्लुत स्वर में अभिव्यक्त हुआ था। जोर से प्रकट होनेवाले उस शब्द के विषय में 'यह क्या है' ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओं के आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ संतुष्टचित्त से खड़े रहे। वे सर्वथा वैरभाव से रहित थे। उन्होनें लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया। उत्तर भाग में उकार का, मध्यभाग में मकार का और अन्त में 'ओम्' इस नाद का साक्षात् दर्शन एवं अनुभव किया। दक्षिण भाग में प्रकट हुए आदिवर्ण अकार को सूर्यमण्डल के समान तेजोमय देखकर जब उन्होंने उत्तरभाग में दृष्टिपात किया, तब वहाँ उकार वर्ण अग्नि के समान दीप्तिशाली दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ! इसी तरह उन्होंने मध्यभाग में मकार को चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान देखा। तदनन्तर जब उसके ऊपर दृष्टि डाली, तब शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल प्रभा से युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्व, अद्वितीय, शून्यमय, बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से रहित, बाह्यान्तरभेद से युक्त, जगत् के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्त से रहित, आनन्द के आदि कारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार किया।

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