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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

इसीबीच में वह सुन्दरी राजकन्या स्त्रियों से घिरी हुई अन्तःपुर से वहाँ आयी। उसने अपने हाथ में सोने की एक सुन्दर माला ले रखी थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवर के मध्यभाग में लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी। उत्तम व्रत का पालन करनेवाली वह भूपकन्या माला हाथ में लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी। नारदमुनि का भगवान् विष्णु के समान शरीर और वानर-जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर प्रसन्न मन से दूसरी ओर चली गयी। स्वयंवर-सभा में अपने मनोवांछित वर को न देखकर वह भयभीत हो गयी। राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी। उसने किसी के गले में जयमाला नहीं डाली। इतने में ही राजा के समान वेश-भूषा धारण किये भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे। किन्हीं दूसरे लोगों ने उनको वहाँ नहीं देखा। केवल उस कन्या की ही दृष्टि उन पर पड़ी। भगवान् को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कण्ठ में वह माला पहना दी। राजा का रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये और अपने धाम में जा पहुँचे। इधर सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गये। नारदमुनि तो कामवेदना से आतुर हो रहे थे। इसलिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे। तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण काम-विह्वल नारदजी से उसी क्षण बोले-

रुद्रगणों ने कहा- हे नारद! हे मुने! तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो और सौन्दर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो। अपना वानर के समान घृणित मुँह तो देख लो।

सूतजी कहते हैं- महर्षियो! उन रुद्रगणों का यह वचन सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ। वे शिव की माया से मोहित थे। उन्होंने दर्पण में अपना मुँह देखा। वानर के समान अपना मुँह देख वे तुरंत ही क्रोध से जल उठे और माया से मोहित होने के कारण उन दोनों शिवगणों को वहाँ शाप देते हुए बोले-'अरे! तुम दोनों ने मुझ बाह्मण का उपहास किया है। अत: तुम ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ। ब्राह्मण की संतान होने पर भी तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे।' इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर वे दोनों ज्ञानिशिरोमणि शिवगण मुनि को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले। ब्राह्मणो! वे सदा सब घटनाओं को भगवान् शिव की ही इच्छा मानते थे। अत: उदासीनभाव से अपने स्थान को चले गये और भगवान् शिव की स्तुति करने लगे।

* * *

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