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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

सदाशिव ने कहा- नन्दिन्! मेरी बात सुनो। तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। तुमने भ्रम से यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया, व्यर्थ ही ब्राह्मण- कुल को शाप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का शाप छू ही नहीं सकता; अत: तुम्हें उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मन्त्राक्षरमय और सूक्तमय है। उसके प्रत्येक सूक्त में समस्त देहधारियों के आत्मा (परमात्मा) प्रतिष्ठित हैं। अत: उन मन्त्रों के ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं। इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। इस समय मुझे शाप नहीं मिला है इस बात को तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये। महामते! तुम सनकादि सिद्धों को भी तत्त्वज्ञान का उपदेश देनेवाले हो। अत: शान्त हो जाओ। मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ, यज्ञों के अंगभूत समस्त उपकरण भी मैं ही हूँ। यज्ञ की आत्मा मैं हूँ। यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूँ और यज्ञ से बहिष्कृत भी मैं ही। यह कौन, तुम कौन और ये कौन? वास्तव में सब मैं ही हूँ। तुम अपनी बुद्धि से इस बात का विचार करो। तुमने ब्राह्मणों को व्यर्थ ही शाप दिया है। महामते! नन्दिन्! तुम तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रपंच-रचना का बाध करके आत्मनिष्ठ ज्ञानी एवं क्रोध आदि से शून्य हो जाओ।

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