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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

सती बोलीं- प्रभो! मैंने सुना है कि मेरे पिताजी के यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है। उसमें बहुत बड़ा उत्सव होगा। उसमें सब देवर्षि एकत्र हो रहे हैं। देवदेवेश्वर! पिताजी के उस महान् यज्ञ में चलने की रुचि आपको क्यों नहीं हो रही है? इस विषय में जो बात हो, वह सब बताइये। महादेव! सुहृदों का यह धर्म है कि वे सुहृदों के साथ मिलें-जुलें। यह मिलन उनके महान् प्रेम को बढ़ानेवाला होता है। अत: प्रभो! मेरे स्वामी! आप मेरी प्रार्थना मानकर सर्वथा प्रयत्न करके मेरे साथ पिताजी की यज्ञशाला में आज ही चलिये। सती की यह बात सुनकर भगवान् महेश्वरदेव, जिनका हृदय दक्ष के वाग्वाणों से घायल हो चुका था, मधुर वाणी में बोले-  'देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं। जो प्रमुख देवता और ऋषि अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य हैं वे ही सब तुम्हारे पिता के यज्ञमें गये हैं। जो लोग बिना बुलाये दूसरे के घर जाते हैं वे वहाँ अनादर पाते हैं जो मृत्यु से भी बढ़कर कष्टदायक है। अतः प्रिये! तुमको और मुझको तो विशेषरूप से दक्ष के यज्ञ में नहीं जाना चाहिये  ( क्योंकि वहाँ हमें बुलाया नहीं गया है )। यह मैंने सच्ची बात कही है।'

महात्मा महेश्वर के ऐसा कहने पर सती रोषपूर्वक बोलीं- शम्भो! आप सबके ईश्वर हैं। जिनके जाने से यज्ञ सफल होता है उन्हीं आपको मेरे दुष्ट पिता ने इस समय आमन्त्रित नहीं किया है। प्रभो! उस दुरात्मा का अभिप्राय क्या है वह सब मैं जानना चाहती हूँ। साथ ही वहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवर्षियों के मनोभाव का भी मैं पता लगाना चाहती हूँ। अत: प्रभो! मैं आज ही पिता के यज्ञ में जाती हूँ। नाथ! महेश्वर! आप मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दें।

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