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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

काम ने कहा- देवराज! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? मैं आपको उत्तर नहीं दे रहा हूँ (आवश्यक निवेदन मात्र कर रहा हूँ)।  लोक में कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी - यह स्वयं देखनेकी वस्तु है? कहने की नहीं। जो संकट के समय बहुत बातें करता है, वह काम क्या करेगा? तथापि महाराज! प्रभो! मैं कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये।

मित्र! जो आपके इन्द्रपद को छीनने के लिये दारुण तपस्या कर रहा है, आपके उस शत्रु को मैं सर्वथा तपस्या से भ्रष्ट कर दूँगा। जो काम जिससे पूरा हो सके, बुद्धिमान् पुरुष उसे उसी काम में लगाये। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह सब आप मेरे जिम्मे कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं- कामदेव का यह कथन सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। वे कामिनियों को सुख देनेवाले काम को प्रणाम करके उससे इस प्रकार बोले।

इन्द्रने कहा- तात! मनोभव। मैंने अपने मन में जिस कार्य को पूर्ण करने का उद्देश्य रखा है उसे सिद्ध करने में केवल तुम्हीं समर्थ हो। दूसरे किसी से उस कार्य का होना सम्भव नहीं है। मित्रवर! मनोभव काम! जिसके लिये आज तुम्हारे सहयोग की अपेक्षा हुई है उसे ठीक-ठीक बता रहा हूँ; सुनो। तारक नाम से प्रसिद्ध जो महान् दैत्य है वह ब्रह्माजी का अद्भुत वर पाकर अजेय हो गया है और सभी को दुःख दे रहा है। वह सारे संसार को पीड़ा दे रहा है। उसके द्वारा बारंबार धर्म का नाश हुआ है। उससे सब देवता और समस्त ऋषि दुःखी हुए हैं। सम्पूर्ण देवताओं ने पहले उसके साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया था; परंतु उसके ऊपर सबके अस्त्र-शस्त्र निष्फल हो गये। जल के स्वामी वरुण का पाश टूट गया। श्रीहरि का सुदर्शनचक्र भी वहाँ सफल नहीं हुआ। श्रीविष्णु ने उसके कण्ठ पर चक्र चलाया, किंतु वह वहाँ कुण्ठित हो गया।

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