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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

जहाँ ध्यान लगाते हुए भगवान् शंकर ने कामदेव को दग्ध किया था, हिमालय का वह शिखर गंगावतरण के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं परम उत्तम श्रृंगितीर्थ में पार्वती ने तपस्या प्रारम्भ की। गौरी के तप करने से ही उसका  'गौरी-शिखर' नाम हो गया। मुने! शिवा ने अपने तप की परीक्षा के लिये वहाँ बहुत-से सुन्दर एवं पवित्र वृक्ष लगाये, जो फल देनेवाले थे। सुन्दरी पार्वती ने पहले भूमि-शुद्ध करके वहाँ एक वेदी का निर्माण किया। तदनन्तर ऐसी तपस्या आरम्भ की, जो मुनियों के लिये भी दुष्कर थी। वे मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों को शीघ्र ही काबू में करके उस वेदीपर उच्चकोटि की तपस्या करने लगीं। ग्रीष्म-ऋतु में अपने चारों ओर दिन-रात आग जलाये रखकर वे बीच में बैठतीं और निरन्तर पंचाक्षर-मन्त्र का जप करती रहती थीं। वर्षा-ऋतु में वेदीपर सुस्थिर आसन से बैठकर अथवा किसी पत्थर की चट्टानपर ही आसन लगाकर वे निरन्तर वर्षा की जलधारा से भीगती रहती थीं। शीतकाल में निराहार रहकर भगवान् शंकर के भजन में तत्पर हो वे सदा शीतल जल के भीतर खड़ी रहतीं तथा रातभर बरफ की चट्टानों पर बैठा करती थीं। इस प्रकार तप करती हुई पंचाक्षर-मन्त्र के जप में संलग्न हो शिवा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों के दाता शिव का ध्यान करती थीं। प्रतिदिन अवकाश मिलनेपर वे सखियों के साथ अपने लगाये हुए वृक्षों को प्रसन्नतापूर्वक सींचती और वहाँ पधारे हुए अतिथि का आतिथ्य-सत्कार भी करती थीं।

शुद्ध चित्तवाली पार्वती ने प्रचण्ड आँधी, कड़ाके की सर्दी, अनेक प्रकार की वर्षा तथा दुस्सह धूप का भी सेवन किया। उनके ऊपर वहाँ नाना प्रकार के दुःख आये, परंतु उन्होंने उन सबको कुछ नहीं गिना। मुने! वे केवल शिव में मन लगाकर वहाँ सुस्थिरभाव से खड़ी या बैठी रहती थीं। उनका पहला वर्ष फलाहार में बीता और दूसरा वर्ष उन्होंने केवल पत्ते चबाकर बिताया! इस तरह तपस्या करती हुई देवी पार्वती ने क्रमश: असंख्य वर्ष व्यतीत कर दिये। तदनन्तर हिमवान् की पुत्री शिवादेवी पत्ते खाना भी छोड़कर सर्वथा निराहार रहने लगीं, तो भी तपश्चर्या में उनका अनुराग बढ़ता ही गया। हिमाचलपुत्री शिवा ने भोजन के लिये पर्ण का भी परित्याग कर दिया। इसलिये देवताओं ने उनका नाम  'अपर्णा' रख दिया। इसके बाद पार्वती भगवान् शिव के स्मरणपूर्वक एक पैर से खड़ी हो पंचाक्षर-मन्त्र का जप करती हुई बड़ी भारी तपस्या करने लगीं। उनके अंग चीर और वल्कल से ढके थे। वे मस्तक पर जटाओं का समूह धारण किये रहती थीं। इस प्रकार शिव के चिन्तन में लगी हुई पार्वती ने अपनी तपस्या के द्वारा मुनियों को जीत लिया। उस तपोवन में महेश्वर के चिन्तनपूर्वक तपस्या करती हुई काली के तीन हजार वर्ष बीत गये।

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