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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

ऋषियोंने कहा- गिरिराजनन्दिनि! देवर्षि नारद व्यर्थ ही अपने को पण्डित मानते हैं। उनके मन में कूरता भरी रहती है। आप समझदार होकर भी क्या उनके चरित्र को नहीं जानतीं। नारद छल-कपट की बातें करते हैं और दूसरों के चित्त को मोह में डालकर मथ डालते हैं। उनकी बातें सुनने से सर्वथा हानि ही होती है। ब्रह्मपुत्र दक्ष के पुत्रों को नारद ने जो छलपूर्ण उपदेश दिया, उसका फल यह हुआ कि वे सब-के-सब अपने पिता के घर लौटकर न आ सके। यही हाल उन्होंने दक्ष के दूसरे पुत्रों का भी किया। वे भी उनके चक्कर में आकर भिखारी बन गये। विद्याधर चित्रकेतु को इन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि उसका घर ही उजड़ गया। प्रह्लाद को अपना चेला बनाकर इन्होंने हिरण्यकशिपु से बड़े-बड़े दुःख दिलवाये। ये सदा दूसरों की बुद्धि में भेद पैदा किया करते हैं। नारदमुनि कानों को पसंद आनेवाली अपनी विद्या जिस-जिस को सुना देते हैं, वही अपना घर छोड़कर तत्काल भीख माँगने लगता है। उनका मन मलिन है। केवल शरीर ही सदा उज्ज्वल दिखायी देता है। हम उन्हें विशेष रूप से जानते हैं; क्योंकि उनके साथ रहते हैं। उनका उपदेश पाकर बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा सम्मानित होनेवाली तुम भी व्यर्थ ही भुलावे में आ गयीं और मूर्ख बनकर दुष्कर तपस्या करने लगीं।

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