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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

ब्राह्मणो! आपलोगों के प्रश्न के अनुसार मैं यथाबुद्धि प्रयत्नपूर्वक शिव-लीला का वर्णन करता हूँ आप आदरपूर्वक सुनें। जैसे आपलोग पूछ रहे हैं उसी प्रकार देवर्षि नारदजीने शिवरूपी भगवान् विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता से पूछा था। अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्माजी का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिशिरोमणि को हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान् शिव के यश का गान करने लगे।

एक समय की बात है मुनिशिरोमणि विप्रवर नारदजीने, जो ब्रह्माजी के पुत्र हैं, विनीतचित्त हो तपस्या में मन लगाया। हिमालय पर्वत में कोई एक गुफा थी, जो बड़ी शोभा से सम्पन्न दिखायी देती थी। उसके निकट देवनदी गंगा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं। वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था। दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करने के लिये उसी आश्रम में गये। उस गुफा को देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और सुदीर्घकाल तक वहाँ तपस्या करते रहे। उनका अन्तःकरण शुद्ध था। वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधि में स्थित हो गये। ब्राह्मणो! उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्म का साक्षात्कार कराने वाला 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) यह विज्ञान प्रकट होता है। मुनिवर नारदजी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे, उस समय यह समाचार पाकर देवराज इन्द्र काँप उठे। वे मानसिक संताप से विह्वल हो गये। ये नारदमुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं - मन-ही-मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिये प्रयत्न करने की इच्छा की। उस समय देवराजने अपने मन से कामदेव का स्मरण किया। स्मरण करते ही कामदेव आ गये। महेन्द्रने उन्हें नारदजी की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश दिया। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसन्त को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गये और अपना उपाय करने लगे।

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