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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

इसी तरह मेरे मन से एक मनोहर पुरुष भी प्रकट हुआ, जो अत्यन्त अद्भुत था। उसके शरीर का मध्यभाग (कटिप्रदेश) पतला था। दाँतों की पंक्तियाँ बड़ी सुन्दर थीं। उसके अंगों से मतवाले हाथी की-सी गन्ध प्रकट होती थी। नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पाते थे। अंगों में केसर लगा था, जिसकी सुगन्ध नासिका को तृप्त कर रही थी। उस पुरुष को देखकर दक्ष आदि मेरे सभी पुत्र अत्यन्त उत्सुक हो उठे। उनके मन में विस्मय भर गया था। जगत् की सृष्टि करनेवाले मुझ जगदीश्वर ब्रह्मा की ओर देखकर उस पुरुष ने विनय से गर्दन झुका दी और मुझे प्रणाम करके कहा -

वह पुरुष बोला- ब्रह्मन्! मैं कौन-सा कार्य करूँगा? मेरे योग्य जो काम हो, उसमें मुझे लगाइये; क्योंकि विधाता! आज आप ही सबसे अधिक माननीय और योग्य पुरुष हैं। यह लोक आप से ही शोभित हो रहा है।

ब्रह्माजी ने कहा- भद्रपुरुष! तुम अपने इसी स्वरूप से तथा फूल के बने हुए पाँच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करते हुए सृष्टि के सनातन कार्य को चलाओ। इस चराचर त्रिभुवन में ये देवता आदि कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार करने में समर्थ नहीं होंगे। तुम छिपे रूप से प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके सदा स्वयं उनके सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य चालू रखो। समस्त प्राणियों का जो मन है वह तुम्हारे पुष्पमय बाण का सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जायगा और तुम निरन्तर उन्हें मदमत्त किये रहोगे। यह मैंने तुम्हारा कर्म बताया है जो सृष्टि का प्रवर्तक होगा और तुम्हारे ठीक-ठीक नाम क्या होंगे, इस बात को मेरे ये पुत्र बतायेंगे।

सुरश्रेष्ठ! ऐसा कहकर अपने पुत्रों के मुख की ओर दृष्टिपात करके मैं क्षणभर के लिये अपने कमलमय आसन पर चुपचाप बैठ गया।

* * *

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