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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अध्याय १९-२०

शिवजी के दुर्वासावतार तथा हनुमदवतार का वर्णन

नन्दीश्वरजी कहते हैं- महामुने! अब तुम शम्भु के एक दूसरे चरित को, जिसमें शंकरजी धर्म के लिये दुर्वासा होकर प्रकट हुए थे, प्रेमपूर्वक श्रवण करो। अनसूया के पति ब्रह्मवेत्ता तपस्वी अत्रि ने ब्रह्माजी के निर्देशानुसार पत्नीसहित ऋक्षकुल पर्वतपर जाकर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीनों उनके आश्रमपर गये। उन्होंने कहा कि 'हम तीनों संसारके ईश्वर हैं। हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिताका यश बढ़ानेवाले होंगे।' यों कहकर वे चले गये। ब्रह्माजी के अंशसे चन्द्रमा हुए, जो देवताओं के समुद्र में डाले जाने पर समुद्र से प्रकट हुए थे। विष्णुके अंशसे श्रेष्ठ संन्यास-पद्धति को प्रचलित करनेवाले 'दत्त' उत्पन्न हुए और रुद्र के अंशसे मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।

इन दुर्वासा ने महाराज अम्बरीष की परीक्षा की थी। जब सुदर्शनचक्र ने इनका पीछा किया, तब शिवजी के आदेश से अम्बरीष के द्वारा प्रार्थना करनेपर चक्र शान्त हुआ। इन्होंने भगवान् राम की परीक्षा की। काल ने मुनि का वेष धारण करके श्रीराम के साथ यह शर्त की थी कि 'मेरे साथ बात करते समय श्रीराम के पास कोई न आये; जो आयेगा उसका निर्वासन कर दिया जायगा।' दुर्वासाजी ने हठ करके लक्ष्मण को भेजा, तब श्रीराम ने तुरंत लक्ष्मण का त्याग कर दिया। इन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण की परीक्षा की और उनको श्रीरुक्मिणी सहित रथ में जोता। इस प्रकार दुर्वासा मुनि ने अनेक विचित्र चरित्र किये।

मुने! अब इसके बाद तुम हनुमान् जी का चरित्र श्रवण करो। हनुमद् रूप से शिवजी ने बड़ी उत्तम लीलाएँ की हैं। विप्रवर! इसी रूप से महेश्वर ने भगवान् राम का परम हित किया था। वह सारा चरित्र सब प्रकार के सुखों का दाता है उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो। एक समय की बात है जब अत्यन्त अद्भुत लीला करने वाले गुणशाली भगवान्‌ शम्भु को विष्णु के मोहिनीरूप का दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेव के बाणों से आहत हुए की तरह क्षुब्ध हो उठे। उस समय उन परमेश्वर ने रामकार्य की सिद्धि के लिये अपना वीर्यपात किया। सब सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्रपुटक में स्थापित कर लिया; क्योंकि शिवजी ने ही रामकार्य के लिये आदरपूर्वक उनके मन में प्रेरणा की थी।

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