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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अध्याय २१-२५

शिवजीके पिप्पलाद-अवतार के प्रसंग में देवताओं की दधीचि मुनि से अस्थि-याचना, दधीचि का शरीर त्याग, वज्र-निर्माण तथा उसके द्वारा वृत्रासुर का वध, सुवर्चा का देवताओं को शाप, पिप्पलाद का जन्म और उनका विस्तृत वृत्तान्त

तदनन्तर महेशावतार तथा वृषेशावतार का चरित सुनाकर नन्दीश्वर ने कहा- महाबुद्धिमान् सनत्कुमारजी! अब तुम अत्यन्त आह्लादपूर्वक महेश्वर के 'पिप्पलाद' नामक परमोत्कृष्ट अवतार का वर्णन श्रवण करो। यह उत्तम आख्यान भक्ति की वृद्धि करनेवाला है। मुनीश्वर! एक समय दैत्यों ने वृत्रासुर की सहायता से इन्द्र आदि समस्त देवताओं को पराजित कर दिया। तब उन सभी देवताओं ने सहसा दधीचि के आश्रम में अपने-अपने अस्त्रों को फेंककर तत्काल ही हार मान ली। तत्पश्चात् मारे जाते हुए वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता तथा देवर्षि शीघ्र ही ब्रह्मलोक में जा पहुँचे और वहाँ (ब्रह्माजीसे) उन्होंने अपना वह दुखड़ा कह सुनाया। देवताओं का वह कथन सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा ने सारा रहस्य यथार्थरूप से प्रकट कर दिया कि 'यह सब त्वष्टा की करतूत है त्वष्टा ने ही तुमलोगों का वध करने के लिये तपस्याद्वारा इस महातेजस्वी वृत्रासुर को उत्पन्न किया है। यह दैत्य महान् आत्मबल से सम्पन्न तथा समस्त दैत्यों का अधिपति है। अत: अब ऐसा प्रयत्न करो जिससे इसका वध हो सके। बुद्धिमान् देवराज! मैं धर्म के कारण इस विषय में एक उपाय बतलाता हूँ, सुनो। जो दधीचि नामवाले महामुनि हैं, वे तपस्वी और जितेन्द्रिय हैं। उन्होंने पूर्वकाल में शिवजी की समाराधना करके वज्र-सरीखी अस्थियाँ हो जाने का वर प्राप्त किया है। अत: तुमलोग उनसे उनकी हड्डियों के लिये याचना करो। वे अवश्य दे देंगे। फिर उन अस्थियों से वज्रदण्ड का निर्माण करके तुम निश्चय ही उससे वृत्रासुर को मार डालना।'

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! ब्रह्मा का यह वचन सुनकर इन्द्र देवगुरु वृहस्पति तथा देवताओं को साथ ले तुरंत ही दधीचि ऋषि के उत्तम आश्रमपर आये। वहाँ इन्द्र ने सुवर्चा सहित दधीचि मुनि का दर्शन किया और आदरपूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया; फिर देवगुरु वृहस्पति तथा अन्य देवताओं ने भी नम्रतापूर्वक उन्हें सिर झुकाया। दधीचि मुनि विद्वानों में श्रेष्ठ तो थे ही, वे तुरंत ही उसके अभिप्राय को ताड़ गये। तब उन्होंने अपनी पत्नी सुवर्चा को अपने आश्रम से अन्यत्र भेज दिया। देवताओं सहित देवराज इन्द्र, जो स्वार्थ-साधन में बड़े दक्ष हैं अर्थशास्त्र का आश्रय लेकर मुनिवर से बोले।

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