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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! पत्नी की बात सुनकर पवित्र व्रतपरायण ब्राह्मण विश्वानर क्षणभर के लिये समाधिस्थ हो गये और हृदय में यों विचार करने लगे- 'अहो! मेरी इस सूक्ष्मांगी पत्नी ने कैसा अत्यन्त दुर्लभ वर माँगा है। यह तो मेरे मनोरथ- पथ से बहुत दूर है। अच्छा, शिवजी तो सब कुछ करने में समर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो उन शम्भु ने ही इसके मुख में बैठकर वाणीरूप से ऐसी बात कही है अन्यथा दूसरा कौन ऐसा करने में समर्थ हो सकता है। तदनन्तर वे एकपत्नीव्रती मुनि विश्वानर पत्नी को आश्वासन देकर वाराणसी में गये और घोर तप के द्वारा भगवान् शिव के वीरेश लिंग की आराधना करने लगे। इस प्रकार उन्होंने एक वर्षपर्यन्त भक्तिपूर्वक उत्तम वीरेश लिंग की त्रिकाल अर्चना करते हुए अद्भुत तप किया। तेरहवाँ मास आने पर एक दिन वे द्विजवर प्रातःकाल त्रिपथगामिनी गंगा के जल में स्नान करके ज्यों ही वीरेश के निकट पहुँचे, त्यों ही उन तपोधन को उस लिंग के मध्य एक अष्टवर्षीय विभूतिभूषित बालक दिखायी दिया। उस नग्न शिशु के नेत्र कानों तक फैले हुए थे, होठोंपर गहरी लालिमा छायी हुई थी, मस्तकपर पीले रंग की सुन्दर जटा सुशोभित थी और मुखपर हँसी खेल रही थी। वह शैशवोचित अलंकार और चिताभस्म धारण किये हुए था तथा अपनी लीला से हँसता हुआ श्रुतिसूक्तों का पाठ कर रहा था। उस बालक को देखकर विश्वानर मुनि कृतार्थ हो गये और आनन्द के कारण उनका शरीर रोमांचित हो उठा तथा बारंबार 'नमस्कार है, नमस्कार है' यों उनका हृदयोद्‌गार फूट पड़ा। फिर वे अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्यों द्वारा बालरूपधारी परमानन्दस्वरूप शम्भु का स्तवन करते हुए बोले।

विश्वानरने कहा- भगवन्! आप ही एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म हैं, यह सारा जगत् आपका ही स्वरूप है? यहाँ अनेक कुछ भी नहीं है। यह बिलकुल सत्य है कि एकमात्र रुद्र के अतिरिक्त दूसरे किसी की सत्ता नहीं है इसलिये मैं आप महेश की शरण ग्रहण करता हूँ। शम्भो! आप ही सबके कर्ता-हर्ता हैं, तथा जैसे आत्मधर्म एक होते हुए भी अनेक रूप से दीखता है, उसी प्रकार आप भी एकरूप होकर नाना रूपों में व्याप्त हैं। फिर भी आप रूपरहित हैं। इसलिये आप ईश्वर के अतिरिक्त मैं किसी दूसरे की शरण नहीं ले सकता। जैसे रज्जु में सर्प, सीपी में चाँदी और मृगमरीचिका में जलप्रवाह का भान मिथ्या है उसी प्रकार, जिसे जान लेने पर यह विश्वप्रपंच मिथ्या भासित होता है उन महेश्वर की मैं शरण लेता हूँ। शम्भो! जल में जो शीतलता, अग्नि में दाहकता, सूर्य में गरमी, चन्द्रमा में आह्वादकारिता, पुष्प में गन्ध और दुग्ध में घी वर्तमान है वह आपका ही स्वरूप है अत: मैं आपके शरण हूँ। आप कानरहित होकर शब्द सुनते हैं; नासिकाविहीन होकर सूँघते हैं। पैर न होनेपर भी दूरतक चले जाते हैं, नेत्रहीन होकर सब कुछ देखते हैं और जिह्वारहित होकर भी समस्त रसों के ज्ञाता हैं। भला, आपको सम्यक्-रूप से कौन जान सकता है। इसलिये मैं आपकी शरण में जाता हूँ।

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