गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
तब गृहपतिने कहा- मघवन्! मैं जानता हूँ, आप वज्रधारी इन्द्र हैं; परंतु वृत्रशत्रो! मैं आपसे वर याचना करना नहीं चाहता, मेरे वरदायक तो शंकरजी ही होंगे।
इन्द्र बोले- शिशो! शंकर मुझसे भिन्न थोड़े ही हैं। अरे! मैं देवराज हूँ, अत: तुम अपनी मूर्खता का परित्याग करके वर माँग लो, देर मत करो।
गृहपतिने कहा- पाकशासन! आप अहल्या का सतीत्व नष्ट करनेवाले दुराचारी पर्वतशत्रु ही हैं न। आप जाइये; क्योंकि मैं पशुपति के अतिरिक्त किसी अन्य देव के सामने स्पष्टरूप से प्रार्थना करना नहीं चाहता।
नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! गुहपति के उस वचन को सुनकर इन्द्र के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। वे अपने भयंकर वज्र को उठाकर उस बालक को डराने-धमकाने लगे। तब बिजली की ज्वालाओं से व्याप्त उस वज्र को देखकर बालक गृहपति को नारदजी के वाक्य स्मरण हो आये। फिर तो वे भय से व्याकुल होकर मूर्च्छित हो गये। तदनन्तर अज्ञानान्धकार को दूर भगानेवाले गौरीपति शम्भु वहाँ प्रकट हो गये और अपने हस्तस्पर्श से उसे जीवनदान देते हुए से बोले- 'वत्स! उठ, उठ। तेरा कल्याण हो।' तब रात्रि के समय मुँदे हुए कमल की तरह उसके नेत्रकमल खुल गये और उसने उठकर अपने सामने सैकड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान शम्भु को उपस्थित देखा। उनके ललाट में तीसरा नेत्र चमक रहा था, गले में नीला चिह्न था, ध्वजापर वृषभ का स्वरूप दीख रहा था, वामांग में गिरिजादेवी विराजमान थीं। मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित था। बड़ी-बड़ी जटाओं से उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी। वे अपने आयुध त्रिशूल और अजगव धनुष धारण किये हुए थे। कपूर के समान गौरवर्ण का शरीर अपनी प्रभा बिखेर रहा था, वे गजचर्म लपेटे हुए थे। उन्हें देखकर शास्त्रकथित लक्षणों तथा गुरु-वचनों से जब गृहपति ने समझ लिया कि ये महादेव ही हैं तब हर्ष के मारे उनके नेत्रों में आँसू छलक आये, गला रुँध गया और शरीर रोमांचित हो उठा। वे क्षणभरतक अपने-आपको भूलकर चित्रकूट एवं त्रिपुत्रक पर्वतकी भांति निश्चल खड़े रह गये। जब वे स्तवन करने, नमस्कार करने अथवा कुछ भी कहने में समर्थ न हो सके, तब शिवजी मुसकराकर बोले।
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