लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

शिव पुराण 3 - शतरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2080
आईएसबीएन :81-293-0099-0

Like this Hindi book 0

भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अर्जुन बोले- आप देवाधिदेव को नमस्कार है। कैलासवासिन्! आपको प्रणाम है। सदाशिव! आपको अभिवादन है। पंचमुख परमेश्वर! आपको मैं सिर झुकाता हूँ। आप जटाधारी तथा तीन नेत्रों से विभूषित है आपको बारंबार नमस्कार है। आप प्रसन्नरूपवाले तथा सहस्रों मुखों से युक्त है आपको प्रणाम है। नीलकण्ठ! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। मैं सद्योजात को अभिवादन करता हूँ। वामांक में गिरिजा को धारण करनेवाले वृषध्वज! आपको प्रणाम है। दस भुजाधारी आप परमात्मा को पुन:-पुन: अभिवादन है। आपके हाथों में डमरू और कपाल शोभा पाते हैं तथा आप मुण्डों की माला धारण करते है आपको नमस्कार है। आपका श्रीविग्रहशुद्ध स्फटिक तथा निर्मल कर्पूर के समान गौरवर्ण का है, हाथ में पिनाक सुशोभित है? तथा आप उत्तम त्रिशूल धारण किये हुए हैं; आपको प्रणाम है। गंगाधर! आप व्याघ्रचर्म का उत्तरीय तथा गजचर्म का वस्त्र लपेटनेवाले हैं, आपके अंगों में नाग लिपटे रहते हैं; आपको बारंबार अभिवादन है। सुन्दर लाल-लाल चरणोंवाले आपको नमस्कार है। नन्दी आदि गणों द्वारा सेवित आप गणनायक को प्रणाम है। जो गणेशस्वरूप है कार्तिकेय जिनके अनुगामी हैं, जो भक्तोंको भक्ति और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, उन आपको पुन:-पुन: नमस्कार है। आप निर्गुण, सगुण, रूपरहित, रूपवान्, कलायुक्त तथा निष्कल हैं; आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ। जिन्होंने मुझपर अनुग्रह करने के लिये किरातवेष धारण किया है जो वीरों के साथ युद्ध करने के प्रेमी तथा नाना प्रकार की लीलाएँ करनेवाले हैं उन महेश्वर को प्रणाम है। जगत्‌ में जो कुछ भी रूप दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब आपका ही तेज कहा जाता है। आप चिद्रूप हैं और अन्वयभेद से त्रिलोकी में रमण कर रहे हैं। जैसे धूलिकणों की, आकाश में उदय हुई तारकाओं की तथा बरसते हुए जल की बूँदों की गणना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार आपके गुणों की भी संख्या नहीं है। नाथ! आपके गणों की गणना करने में तो वेद भी समर्थ नहीं है मैं तो एक मन्दबुद्धि व्यक्ति हूँ; फिर मैं उनका वर्णन कैसे कर सकता हूँ। महेशान! आप जो कोई भी हों, आपको मेरा नमस्कार है। महेश्वर! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ; अत: आपको मुझपर कृपा करनी ही चाहिये।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- मुने! अर्जुन द्वारा किये गये इस स्तवन को सुनकर भगवान् शंकर का मन परम प्रसन्न हो गया। तब वे हँसते हुए पुन: अर्जुन से बोले।

शंकरजीने कहा- वत्स! अब अधिक कहने से क्या लाभ, तुम मेरी बात सुनो और अपना अभीष्ट वर माँग लो। इस समय तुम जो कुछ कहोगे, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

नन्दीश्वरजी कहते हैं- महर्षे! शंकरजी के यों कहने पर अर्जुन ने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो सदाशिव को प्रणाम किया और फिर प्रेमपूर्वक गद्‌गद वाणी में कहना आरम्भ किया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book