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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अध्याय  १७

महाकाल के माहात्म्य के प्रसंग में शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकर की कथा

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! भक्तों की रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिलिंग का माहात्म्य भक्तिभाव को बढ़ाने वाला है, उसे आदरपूर्वक सुनो। उज्जयिनी में चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, शिवभक्त और जितेन्द्रिय थे। शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजा पर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभमणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी। वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करने पर भी मनुष्यों को निश्चय ही मंगल प्रदान करती थी। भगवान् शिव के आश्रित रहनेवाले राजा चन्द्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्यनारायण की भांति उनकी शोभा होती थी। नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेन के कण्ठ में चिन्तामणि शोभा देती है यह सुनकर समस्त राजाओं के मन में उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी और वे क्षुब्ध रहने लगे। तदनन्तर वे सब राजा चतुरंगिणी सेना के साथ आकर युद्ध में चन्द्रसेन को जीतने के लिये उद्यत हो गये। वे सब परस्पर मिल गये थे और उसके साथ बहुत-से सैनिक थे। उन्होंने आपस में संकेत और सलाह करके आक्रमण किया और उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को सम्पूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चन्द्रसेन उन्हीं भगवान् महाकालेश्वर की शरण में गये और मन को संदेहरहित करके दृढ निश्चय के साथ उपवासपूर्वक दिन-रात अनन्यभाव से महाकाल की आराधना करने लगे।

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