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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


अध्याय २९-३०

नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव और उसकी महिमा

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! अब मैं परमात्मा शिव के नागेश नामक परम उत्तम ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाऊँगा। दारुका नाम से प्रसिद्ध कोई राक्षसी थी, जो पार्वती के वरदान से सदा घमंड में भरी रहती थी। अत्यन्त बलवान् राक्षस दारुक उसका पति था। उसने बहुत-से राक्षसों को साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषों का संहार मचा रखा था। वह लोगों के यज्ञ और धर्म का नाश करता फिरता था। पश्चिम समुद्र के तटपर उसका एक वन था, जो सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा रहता था। उस वन का विस्तार सब ओर से सोलह योजन था। दारुका अपने विलास के लिये जहाँ जाती थी, वहीं भूमि, वृक्ष तथा अन्य सब उपकरणों से युक्त वह वन भी चला जाता था। देवी पार्वतीने उस वन की देख-रेख का भार दारुका को सौंप दिया था। दारुका अपने पति के साथ इच्छानुसार उसमें विचरण करती थी। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुका के साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था। उससे पीड़ित हुई प्रजा ने महर्षि और्व की शरण में जाकर उनको अपना दुःख सुनाया। अब। शरणागतों की रक्षा के लिये राक्षसों को यह शाप दे दिया कि 'ये राक्षस यदि पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।' देवताओं ने जब यह बात सुनी, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षस घबराये। यदि वे लड़ाई में देवताओं को मारते तो मुनि के शाप से स्वयं मर जाते हैं और यदि नहीं मारते तो पराजित होकर भूखों मर जाते हैं। उस अवस्था में राक्षसी दारुका ने कहा कि 'भवानी के वरदानसे मैं इस सारे वन को जहाँ चाहूँ ले जा सकती हूँ!' यों कहकर वह समस्त वन को ज्यों-का-त्यों ले जाकर समुद्र में जा बसी। राक्षसलोग पृथ्वी पर न रहकर जल में निर्भय रहने लगे और वहाँ प्राणियों को पीड़ा देने लगे।

एक बार बहुत-सी नावें उधर आ निकलीं, जो मनुष्यों से भरी थीं। राक्षसों ने उनमें बैठे हुए सब लोगों को पकड़ लिया और बेड़ियों से बाँधकर कारागार में डाल दिया। वे उन्हें बारंबार धमकियाँ देने लगे। उनमें सुप्रिय नाम से प्रसिद्ध एक वैश्य था, जो उस दल का सरदार था। वह बड़ा सदाचारी, भस्म-रुद्राक्षधारी तथा भगवान् शिव का परम भक्त था। सुप्रिय शिव की पूजा किये बिना भोजन नहीं करता था। वह स्वयं तो शंकर का पूजन करता ही था, बहुत-से अपने साथियों को भी उसने शिव की पूजा सिखा दी थी। फिर सब लोग 'नमः शिवाय' मन्त्र का जप और शंकरजी का ध्यान करने लगे। सुप्रिय को भगवान् शिव का दर्शन भी होता था। दारुक राक्षस को जब इस बात का पता लगा, तब उसने आकर सुप्रिय को धमकाया। उसके साथी राक्षस सुप्रिय को मारने दौड़े। उन राक्षसों को आया देख सुप्रिय के नेत्र भय से कातर हो गये, वह बड़े प्रेम से शिव का चिन्तन और उनके नामों का जप करने लगा।

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