गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
हरिणी की वह बात सुनकर व्याधने कहा- आज मेरे कुटुम्ब के लोग भूखे हैं; अत: तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊंगा, उन्हें तृप्त करूँगा।
व्याध का वह दारुण वचन सुनकर तथा जिसे रोकना कठिन था, उस दुष्ट भील को बाण ताने देखकर मृगी सोचने लगी कि 'अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अच्छा कोई उपाय रचती हूँ।' ऐसा विचारकर उसने वहाँ इस प्रकार कहा।
मृगी बोली- भील! मेरे मांस से तुमको सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीर के लिये इससे अधिक महान् पुण्य का कार्य और क्या हो सकता है? उपकार करनेवाले प्राणी को इस लोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है उसका सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता।
उपकारकरस्यैव यत् पुण्य जायते त्विह।तत् पुण्य शक्यते नैव वकुं वर्षशतैरपि।।
परंतु इस समय मेरे सब बच्चे मेरे आश्रय में ही हैं। मैं उन्हें अपनी बहिन को अथवा स्वामी को सौंपकर लौट आऊँगी। वनेचर! तुम मेरी इस बात को मिथ्या न समझो। मैं फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगी, इसमें संशय नहीं है। सत्य से ही धरती टिकी हुई है सत्य से ही समुद्र अपनी मर्यादामें स्थित है और सत्य से ही निर्झरों से जल की धाराएँ गिरती रहती हैं। सत्य में ही सब कुछ स्थित है।
स्थिता सत्येन धरणी सत्येनैव च वारिधि:।सत्येन जलधाराश्च सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम्।।
सूतजी कहते हैं- मृगी के ऐसा कहने पर भी जब व्याध ने उसकी बात नहीं मानी, तब उसने अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत हो पुन: इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
मृगी बोली- व्याध! सुनो, मैं तुम्हारे सामने ऐसी शपथ खाती हूँ, जिससे घर जानेपर मैं अवश्य तुम्हारे पास लौट आऊँगी। ब्राह्मण यदि वेद बेचे और तीनों काल संध्या न करे तो उसे जो पाप लगता है, पति की आज्ञा का उल्लंघन करके स्वेच्छानुसार कार्य करनेवाली स्त्रियों को जिस पाप की प्राप्ति होती है किये हुए उपकार को न माननेवाले, भगवान् शंकर से विमुख रहनेवाले, दूसरों से द्रोह करनेवाले, धर्म को लाँघनेवाले तथा विश्वासघात और छल करनेवाले लोगों को जो पाप लगता है उसी पाप से मैं भी लिप्त हो जाऊँ, यदि लौटकर यहाँ न आऊँ।
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