लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

श्रीरामगुण और श्रीरामचरित की महिमा



दो०- सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥२२॥

जो सब प्रकारको (भोग और मोक्षको भी) कामनाओंसे रहित और श्रीरामभक्तिके रसमें लीन हैं, उन्होंने भी नामके सुन्दर प्रेमरूपी अमृतके सरोवरमें अपने मनको मछली बना रखा है (अर्थात् वे नामरूपी सुधाका निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं. क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते) ॥ २२ ॥

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।
किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।

निर्गुण और सगुण-ब्रह्मके दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह. अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मतिमें नाम इन दोनोंसे बड़ा है, जिसने अपने बलसे दोनोंको अपने वशमें कर रखा है ॥१॥

प्रौढि सुजन जनि जानहिं जन की।
कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की।
एकु दारुगत देखि एकू।
पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू।।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।
सत चेतन घन आनंद रासी।।

सजनगण इस बातको मुझ दासकी ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मनके विश्वास, प्रेम और रुचिकी बात कहता हूँ। [निर्गुण और सगुण] दोनों प्रकारके ब्रह्मका ज्ञान अग्निके समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्निके समान है जो काठके अंदर है, परन्तु दीखती नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्निके समान है जो प्रत्यक्ष दीखती है। [तत्त्वत: दोनों एक ही हैं; केवल प्रकट-अप्रकटके भेदसे भिन्न मालूम होती हैं। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं। इतना होनेपर भी] दोनों ही जानने में बड़े कठिन हैं, परन्तु नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं। इसीसे मैंने नामको [निर्गुण] ब्रह्मसे और [सगुण] रामसे बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है; सत्ता, चैतन्य और आनन्दकी घनराशि है।। २-३॥

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।

ऐसे विकाररहित प्रभुके हृदयमें रहते भी जगतके सब जीव दीन और दु:खी हैं। नामका निरूपण करके (नामके यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभावको जानकर) नामका जतन करनेसे (श्रद्धापूर्वक नामजपरूपी साधन करनेसे) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्नके जाननेसे उसका मूल्य ॥४॥

दो०- निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥२३॥

इस प्रकार निर्गुणसे नामका प्रभाव अत्यन्त बड़ा है। अब अपने विचारके अनुसार कहता हूँ कि नाम [सगुण] रामसे भी बड़ा है ॥ २३ ॥

राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा।।

श्रीरामचन्द्रजीने भक्तोंक हितके लिये मनुष्य-शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओंको सुखी किया; परन्तु भक्तगण प्रेमके साथ नामका जप करते हुए महजहीमें आनन्द और कल्याणके घर हो जाते हैं ॥१॥

राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
रिषि हित राम सुकेतुसुता की।
सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।
सहित दोष दुख दास दुरासा।
दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।।
भंजेउ राम आपु भव चापू।
भव भय भंजन नाम प्रतापू॥

श्रीरामजी ने एक तपस्वीकी स्त्री (अहल्या) को ही तारा, परन्तु नामने करोड़ों दुष्टोंकी बिगड़ी बुद्धिको सुधार दिया। श्रीरामजीने ऋषि विश्वामित्र के हित के लिये एक सुकेतु यक्षकी कन्या ताड़काकी सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की; परन्तु नाम अपने भक्तोंके दोष, दुःख और दुराशाओंका इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रिका। श्रीरामजीने तो स्वयं शिवजीके धनुषको तोड़ा, परन्तु नामका प्रताप ही संसारके सब भयोंका नाश करनेवाला है ॥२-३॥

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन।।
निसिचर निकर दले रघुनंदन।
नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।

प्रभु श्रीरामजीने [भयानक] दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्योंके मनोंको पवित्र कर दिया। श्रीरघुनाथजीने राक्षसोंके समूहको मारा, परन्तु नाम तो कलियुगके सारे पापोंकी जड़ उखाड़नेवाला है।। ४॥

दो०- सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।। २४॥

श्रीरघुनाथजीने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकोंको ही मुक्ति दी; परन्तु नामने अगनित दुष्टोंका उद्धार किया। नाम के गुणोंकी कथा वेदोंमें प्रसिद्ध है।। २४।।

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ।
राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे।
लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥

श्रीरामजीने सुग्रीव और विभीषण दोको ही अपने शरणमें रखा, यह सब कोई जानते हैं; परंतु नामने अनेक गरीबोंपर कृपा की है। नामका यह सुन्दर विरद लोक और वेदमें विशेषरूपसे प्रकाशित है ॥ १॥

राम भालु कपि कटकु बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नाम लेत भवसिंधु सुखाहीं।
करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥

श्रीरामजीने तो भालू और बन्दरोंकी सेना बटोरी और समुद्रपर पुल बाँधनेके लिये थोड़ा परिश्रम नहीं किया; परंतु नाम लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मनमें विचार कीजिये [कि दोनोंमें कौन बड़ा है] ॥२॥

राम सकुल रन रावन मारा।
सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी !
गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।
बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती।
फिरत सनेहैं मगन सुख अपनें।
नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें।

श्रीरामचन्द्रजीने कुटुम्बसहित रावणको युद्ध में मारा, तब सीतासहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया। राम राजा हुए. अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणीसे जिनके गुण गाते हैं। परंतु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नामके स्मरणमात्रसे बिना परिश्रम मोहकी प्रबल सेनाको जीतकर प्रेममें मग्न हुए अपने ही सुखमें विचरते हैं. नामके प्रसादसे उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती ॥३-४॥

दो०- ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि मह लिय महेस जियँ जानि॥२५॥

इस प्रकार नाम [निर्गुण] ब्रह्म और [सगुण] राम दोनोंसे बड़ा है। यह वरदान देनेवालों को भी वर देनेवाला है। श्रीशिवजीने अपने हृदयमें यह जानकर ही सौ करोड़ रामचरित्रमेंसे इस 'राम' नामको [साररूपसे चुनकर] ग्रहण किया है ॥२५॥

मासपारायण, पहला विश्राम

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥

नामहीके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल वेषवाले होनेपर भी मङ्गलकी राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगीगण नामके ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥१॥


नारद जानेउ नाम प्रतापू।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।
भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥

नारदजीने नामके प्रतापको जाना है। हरि सारे संसारको प्यारे हैं, [हरिको हर प्यारे हैं] और आप ( श्रीनारदजी) हरि और हर दोनोंको प्रिय हैं। नामके जपनेसे प्रभुने कृपा की, जिससे प्रह्लाद भक्तशिरोमणि हो गये ॥२॥

धुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।
पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥

ध्रुवजीने ग्लानिसे (विमाताके वचनोंसे दुःखी होकर सकामभावसे) हरिनामको जपा और उसके प्रतापसे अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमानजीने पवित्र नामका स्मरण करके श्रीरामजीको अपने वशमें कर रखा है।।३॥

दो०- राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥२७॥

रामनाम श्रीनृसिंह भगवान है. कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रादक समान हैं; यह रामनाम देवताओं के शत्रु (कलियुगरूपी दैत्य) को मारकर जप करनेवालोंकी रक्षा करेगा॥२७॥

भायँ कुभायें अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।
करउँ नाइ रघुनाथहि माथा।

अच्छे भाव (प्रेम) से, दुरे भाव (वैर) से, क्रोधसे या आलस्य से किसी तरहसे भी नाम जपनेसे दसों दिशाओंमें कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) रामनामका स्मरण करके और श्रीरघुनाथजीको मस्तक नवाकर मैं रामजीके गुणोंका वर्णन करता हूँ॥१॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।
जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।
निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।।

वे (श्रीरामजी) मेरी [बिगड़ी] सब तरहसे सुधार लेंगे: जिनकी कृपा कृपा करनेसे नहीं अघाती। राम-से उत्तम स्वामी और मुझ-सरीखा बुरा सेवक! इतनेपर भी उन दयानिधिने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥२॥

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती।
बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।
गनी गरीब ग्राम नर नागर।
पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

लोक और वेदमें भी अच्छे स्वामीको यही रोति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेमको पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गवार-नगरनिवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी ॥३॥

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी।
नृपहि सराहत सब नर नारी।
साधु सुजान सुसील नृपाला।
ईस अंस भव परम कृपाला॥

सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार राजाकी सराहना करते हैं। और साधु, बुद्धिमान्, सुशील, ईश्वरके अंशसे उत्पन्न कृपालु राजा--- ॥४॥

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी।
भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ।
जान सिरोमनि कोसलराऊ॥

सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चालको पहचानकर सुन्दर (मीठी) वाणीसे सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओंका है, कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥५॥

रीझत राम सनेह निसोतें।
को जग मंद मलिनमति मोतें।

श्रीरामजी तो विशुद्ध प्रेमसे ही रीझते हैं, पर जगतमें मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिनबुद्धि और कौन होगा? ॥६॥

दो०-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।। २८ (क)॥

तथापि कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवकको प्रीति और रुचिको अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरोंको जहाज और बन्दर-भालुओंको बुद्धिमान मन्त्री बना लिया।। २८(क)।

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।। २८(ख)॥

सब लोग मुझे श्रीरामजीका सेवक कहते हैं और मैं भी [बिना लज्जा-संकोचके] कहलाता हूँ (कहनेवालोंका विरोध नहीं करता); कृपालु श्रीरामजी इस निन्दाको सहते हैं कि श्रीसीतानाथजी-जैसे स्वामीका तुलसीदास- सा सेवक है।। २८(ख)।

अति बडि मोरि ढिठाई खोरी।
सुनि अघ नरकहँ नाक सकोरी।।
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें।
सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।

यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पापको सुनकर नरकने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात् नरकमें भी मेरे लिये ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डरसे डर हो रहा है, किंतु भगवान श्रीरामचन्द्रजीने तो स्वप्नमें भी इसपर (मेरी इस ढिठाई और दोषपर) ध्यान नहीं दिया ॥१॥

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।
भगति मोरि मत्ति स्वामि सराही।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी।
रीझत राम जानि जन जी की।

वरं मेरे प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने तो इस बातको सुनकर, देखकर और अपने सुचित्तरूपी चक्षुसे निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धिकी [उलटे] सराहना की। क्योंकि कहनेमें चाहे बिगड़ जाय (अर्थात् मैं चाहे अपनेको भगवानका सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परंतु हृदयमें अच्छापन होना चाहिये। (हृदयमें तो अपनेको उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्रीरामचन्द्रजी भी दासके हृदयकी [अच्छी] स्थिति जानकर रीझ जाते हैं ॥२॥

रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की।
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली।
फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥

प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और उनके हृदय [की अच्छाई-नीकी] को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याधकी तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीवने चली॥३॥

सोइ करतूति बिभीषन केरी।
सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेटत सनमाने।
राजसभाँ रघुबीर बखाने।

वही करनी विभीषणकी थी, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीने स्वप्नमें भी उसका मनमें विचार नहीं किया। उलटे भरतजीसे मिलनेके समय श्रीरघुनाथजीने उनका सम्मान किया और राजसभामें भी उनके गुणोंका बखान किया ॥४॥

दो०-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥२९ (क)।

प्रभु ( श्रीरामचन्द्रजी) तो वृक्षके नीचे और बंदर डालीपर (अर्थात् कहाँ मर्यादापुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीरामजी और कहाँ पेड़ोंकी शाखाओंपर कूदनेवाले बंदर)। परन्तु ऐसे बंदरोंको भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं ॥२९(क)॥

राम निकाई रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥२९(ख)।

हे श्रीरामजी! आपकी अच्छाईसे सभीका भला है (अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभीका कल्याण करनेवाला है)। यदि यह बात सच है तो तुलसीदासका भी सदा कल्याण ही होगा॥ २९(ख)॥

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥२९ (ग)।

इस प्रकार अपने गुण-दोषोंको कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन करता हूँ जिसके सुननेसे कलियुगके पाप नष्ट हो जाते हैं।। २९(ग)।

जागबलिक जो कथा सुहाई।
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी।
सुनहुँ सकल सजन सुख मानी।

मुनि याज्ञवल्क्यजीने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीको सुनायी थी, उसी संवादको मैं बखानकर कहूँगा; सब सज्जन सुखका अनुभव करते हुए उसे सुनें ॥१॥

संभु कीन्ह यह चरित सहावा।
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा।
राम भगत अधिकारी चीन्हा॥

शिवजीने पहले इस सुहावने चरित्रको रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजीको सुनाया। वही चरित्र शिवजीने काकभुशुण्डिजीको रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।॥ २॥

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला।
सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥

उन काकभुशुण्डिजीसे फिर याज्ञवल्क्यजीने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजीको गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शीलवाले और समदर्शी हैं और श्रीहरिकी लीलाको जानते हैं॥३॥

जानहिं तीनि काल निज ग्याना।
करतल गत आमलक समाना।
औरउ जे हरिभगत सुजाना।
कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।

वे अपने ज्ञानसे तीनों कालांकी बातोंको हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवानकी लीलाओंका रहस्य जाननेवाले) हरिभक्त हैं, वे इस चरित्रको नाना प्रकारसे कहते, सुनते और समझते हैं।। ४।।

दो०-मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥३०(क)॥

फिर वही कथा मैंने वाराह-क्षेत्र में अपने गुरुजीसे सुनी; परन्तु उस समय मैं लड़कपनके कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥३०(क)।

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम के गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥३० (ख)।।

श्रीरामजीकी गृढ कथाके वक्ता (कहनेवाले) और श्रोता (सुननेवाले) दोनों जान के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुगके पापोंसे ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?।।३०(ख)॥

तदपि कही गुर बारहिं बारा।
समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई।
मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥

तो भी गुरुजीने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धिके अनुसार कुछ समझ में आयी। वही अब मेरेद्वारा भाषामें रची जायगी, जिससे मेरे मनको सन्तोष हो। १।।

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें।
तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।
निज संदेह मोह भ्रम हरनी।
करउँ कथा भव सरिता तरनी।।

जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेकका बल है, मैं हृदयमें हरिकी प्रेरणासे उसीके अनुसार कहूँगा। मैं अपने सन्देह, अज्ञान और भ्रमको हरनेवाली कथा रचता हूँ, जो संसाररूपी नदीके पार करनेके लिये नाव है ॥२॥

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष विभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी।
पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥

रामकथा पण्डितों को विश्राम देनेवाली, सब मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाली और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली है। रामकथा कलियुगरूपी साँपके लिये मोरनी है और विवेकरूपी अग्निके प्रकट करनेके लिये अरणि (मन्थन की जानेवाली लकड़ी) है, (अर्थात् इस कथासे ज्ञानकी प्राप्ति होती है) ॥३॥

रामकथा कलि कामद गाई।
सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि।
भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥

रामकथा कलियुगमें सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनोंके लिये सुन्दर सञ्जीवनी जड़ी है। पृथ्वीपर यही अमृतको नदी है, जन्म-मरणरूपी भयका नाश करनेवाली और भ्रमरूपी मेढकोंको खानेके लिये सर्पिणी है।॥४॥

असुर सेन सम नरक निकंदिनि।
साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी।
बिस्व भार भर अचल छमा सी॥

यह रामकथा असुरोंकी सेनाके समान नरकोंका नाश करनेवाली और साधुरूप देवताओंके कुलका हित करनेवाली पार्वती (दुर्गा) है। यह संत-समाजरूपी क्षीरसमुद्रके लिये लक्ष्मीजीके समान है और सम्पूर्ण विश्वका भार उठानेमें अचल पृथ्वीके समान है॥५॥

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी।
जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी।
तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥

यमदूतोंके मुखपर कालिख लगानेके लिये यह जगतमें यमुनाजीके समान है और जीवोंको मुक्ति देनेके लिये मानो काशी ही है। यह श्रीरामजीको पवित्र तुलसीके समान प्रिय है और तुलसीदासके लिये हुलसी (तुलसीदासजीकी माता) के समान हृदयसे हित करनेवाली है॥६॥

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी।
सकल सिद्धि सुख संपति रासी।
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी।
रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।

यह रामकथा शिवजीको नर्मदाजीके समान प्यारी है, यह सब सिद्धियोंकी तथा सुख-सम्पत्तिकी राशि है। सद्गुणरूपी देवताओंके उत्पन्न और पालन-पोषण करनेके लिये माता अदितिके समान है। श्रीरघुनाथजीकी भक्ति और प्रेमकी परम सीमा-सी है॥७॥

दो०- रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥३१॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मन्दाकिनी नदी है, सुन्दर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है, और सुन्दर स्नेह ही वन है, जिसमें श्रीसीतारामजी विहार करते हैं॥३१॥

रामचरित चिंतामनि चारू।
संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल गुनग्राम राम के।
दानि मुकुति धन धरम धाम के॥

श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र सुन्दर चिन्तामणि है और संतोंकी सुबुद्धिरूपी स्त्रीका सुन्दर शृङ्गार है। श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूह जगतका कल्याण करनेवाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधामके देनेवाले हैं॥१॥

सदगुर ग्यान बिराग जोग के।
बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के।
बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥

ज्ञान, वैराग्य और योगके लिये सद्गुरु हैं और संसाररूपी भयंकर रोगका नाश करनेके लिये देवताओंके वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्रीसीतारामजीके प्रेम के उत्पन्न करनेके लिये माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥२॥

समन पाप संताप सोक के।
प्रिय पालक परलोक लोक के।
सचिव सुभट भूपति बिचार के।
कुंभज लोभ उदधि अपार के॥

पाप, सन्ताप और शोकका नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोकके प्रिय पालन करनेवाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजाके शूरवीर मन्त्री और लोभरूपी अपार समुद्रके सोखनेके लिये अगस्त्य मुनि हैं ॥ ३ ॥

काम कोह कलिमल करिगन के।
केहरि सावक जन मन बन के।
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के।
कामद घन दारिद दवारि के॥

भक्तोंके मनरूपी वनमें बसनेवाले काम, क्रोध और कलियुगके पापरूपी हाथियों को मारनेके लिये सिंहके बच्चे हैं। शिवजीके पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रतारूपी दावानलके बुझानेके लिये कामना पूर्ण करनेवाले मेघ हैं।॥४॥

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के।
मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से।
सेवक सालि पाल जलधर से।

विषयरूपी साँपका जहर उतारनेके लिये मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाटपर लिखे हुए कठिनतासे मिटनेवाले बुरे लेखों (मन्द प्रारब्ध) को मिटा देनेवाले हैं। अज्ञानरूपी अन्धकारके हरण करनेके लिये सूर्यकिरणोंके समान और सेवकरूपी धानके पालन करने में मेघके समान हैं।। ५।।

अभिमत दानि देवतरु बर से।
सेवत सुलभ सुखद हरि हर से।।
सुकबि सरद नभ मन उडगन से।
रामभगत जन जीवन धन से।

मनोवाञ्छित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्षके समान हैं और सेवा करने में हरि-हरके समान सुलभ और सुख देनेवाले हैं। सुकविरूपी शरद्-ऋतुके मनरूपी आकाशको सुशोभित करनेके लिये तारागणके समान और श्रीरामजीके भक्तोंके तो जीवनधन ही हैं॥६॥

सकल सुकृत फल भूरि भोग से।
जग हित निरुपधि साधु लोग से।
सेवक मन मानस मराल से।
पावन गंग तरंग माल से।

सम्पूर्ण पुण्योंके फल महान् भोगोंके समान हैं। जगतका छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-संतोंके समान हैं। सेवकोंके मनरूपी मानसरोवरके लिये हंसके समान और पवित्र करने में गङ्गाजीकी तरंगमालाओंके समान हैं।॥ ७॥

दो०-- कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥३२(क)॥

श्रीरामजीके गुणोंके समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुगके कपट, दम्भ और पाखण्डके जलानेके लिये वैसे ही हैं जैसे ईंधनके लिये प्रचण्ड अग्नि।। ३२ (क)॥

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़लाहु॥३२(ख)॥

रामचरित्र पूर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंके समान सभीको सुख देनेवाले हैं, परन्तु सज्जनरूपी कुमुदिनी और चकोरके चित्तके लिये तो विशेष हितकारी और महान् लाभदायक हैं।। ३२ (ख)॥

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी।
जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई।
कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥

जिस प्रकार श्रीपार्वतीजीने श्रीशिवजीसे प्रश्न किया और जिस प्रकारसे श्रीशिवजीने विस्तारसे उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथाकी रचना करके गाकर कहूँगा ॥१॥

जेहिं यह कथा सुनी नेहिं होई।
जनि आचरजु करै सुनि सोई।
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी।
नहिं आचरजु करहिं अस जानी।
रामकथा कै मिति जग नाहीं ।
असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा।
रामायन सत कोटि अपारा॥

जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथाको सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसारमें रामकथा की कोई सीमा नहीं है (रामकथा अनन्त है)। उनके मनमें ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकारसे श्रीरामचन्द्रजीके अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं॥२-३॥

कलपभेद हरिचरित सुहाए।
भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।
करिअ न संसय अस उर आनी।
सुनिअ कथा सादर रति मानी॥

कल्पभेदके अनुसार श्रीहरिके सुन्दर चरित्रोंको मुनीश्वरोंने अनेकों प्रकार से गाया है। हृदयमें ऐसा विचारकर संदेह न कीजिये और आदरसहित प्रेमसे इस कथाको सुनिये॥४॥

दो०- राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह के बिमल बिचार॥३३॥

श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओंका विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथाको सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥३३॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book