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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
आईएसबीएन :0

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

याज्ञवल्क्य-भरद्वाज-संवाद तथा प्रयाग-माहात्म्य



दो०- मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥४३(क)॥

अपनी बुद्धिक अनुसार इस सुन्दर जलके गुणोंको विचारकर, उसमें अपने मनको स्नान कराकर और श्रीभवानी-शङ्करको स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुन्दर कथा कहता है॥ ४३(क)।।

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग संबाद।।४३(ख)।

मैं अब श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारणकर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियोंके मिलनका सुन्दर संवाद वर्णन करता हूँ॥ ४३(ख)॥

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा।
तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना।
परमारथ पथ परम सुजाना॥

भरद्वाज मुनि प्रयागमें बसते हैं, उनका श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है। वे तपस्वी. निगृहीतचित्त. जितेन्द्रिय, दयाके निधान और परमार्थके मार्गमें बड़े ही चतुर हैं॥१॥

माघ मकरगत रबि जब होई।
तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं।
सादर मजहिं सकल त्रिबेनीं।

माघमें जब सूर्य मकर राशिपर जाते हैं तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥२॥

पूजहिं माधव पद जलजाता।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन।
परम रम्य मुनिबर मन भावन॥

श्रीवेणीमाधवजीके चरणकमलोंको पूजते हैं और अक्षयवटका स्पर्शकर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजीका आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियोंके मनको भानेवाला है॥३॥

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा।
जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा।
कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥

तीर्थराज प्रयागमें जो स्नान करने जाते हैं उन ऋषि-मुनियोंका समाज वहाँ (भरद्वाजके आश्रममें) जुटता है। प्रात:काल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवानके गुणोंकी कथाएँ कहते हैं ॥ ४॥

दो०- ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
कहहिं भगति भगवंत के संजुत ग्यान बिराग॥४४॥

ब्रह्मका निरूपण, धर्मका विधान और तत्त्वोंके विभागका वर्णन करते हैं तथा ज्ञानवैराग्य से युक्त भगवानकी भक्तिका कथन करते हैं॥४४॥

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं।
पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा।
मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा।

इसी प्रकार माघके महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने अपने आश्रमोंको चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनन्द होता है। मकरमें स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं॥१॥

एक बार भरि मकर नहाए।
सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए।
जागबलिक मुनि परम बिबेकी।
भरद्वाज राखे पद टेकी।

एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनिको चरण पकड़कर भरद्वाजजीने रख लिया ॥ २ ॥

सादर चरन सरोज पखारे।
अति पुनीत आसन बैठारे।
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी।
बोले अति पुनीत मृदु बानी॥

आदरपूर्वक उनके चरणकमल धोये और बड़े ही पवित्र आसनपर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि याज्ञवल्क्यजीके सुयशका वर्णन किया और फिर अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणीसे बोले--- ॥ ३ ॥

नाथ एक संसउ बड़ मोरें।
करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा।
जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा।।

हे नाथ! मेरे मनमें एक बड़ा सन्देह है; वेदोंका तत्त्व सब आपकी मुट्ठीमें है (अर्थात् आप ही वेदका तत्त्व जाननेवाले होनेके कारण मेरा सन्देह निवारण कर सकते हैं) पर उस सन्देह को कहते मुझे भय और लाज आती है [भय इसलिये कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिये कि इतनी आयु बीत गयी, अबतक ज्ञान न हुआ] और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है [क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ] ॥४॥

दो०- संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइन बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥४५॥

हे प्रभो! संतलोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरुके साथ छिपाव करनेसे हृदयमें निर्मल ज्ञान नहीं होता॥४५॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू।
हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा।
संत पुरान उपनिषद गावा॥

यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवकपर कृपा करके इस अज्ञानका नाश कीजिये। संतों, पुराणों और उपनिषदोंने रामनामके असीम प्रभावका गान किया है।॥ १॥

संतत जपत संभु अबिनासी।
सिव भगवान ग्यान गुन रासी।
आकर चारि जीव जग अहहीं।
कासीं मरत परम पद लहहीं।

कल्याणस्वरूप, ज्ञान और गुणोंकी राशि, अविनाशी भगवान शम्भु निरन्तर रामनामका जप करते रहते हैं। संसारमें चार जातिके जीव हैं. काशीमें मरनेसे सभी परमपदको प्राप्त करते हैं॥२॥

सोपि राम महिमा मुनिराया।
सिव उपदेसु करत करि दाया।
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही।
कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।

हे मुनिराज ! वह भी राम [नाम] को ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके [काशीमें मरनेवाले जीवको] रामनामका ही उपदेश करते हैं [इसीसे उनको परमपद मिलता है]। हे प्रभो ! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं ? हे कृपानिधान ! मुझे समझाकर कहिये ॥३॥

एक राम अवधेस कुमारा।
तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा।
भयउ रोषु रन रावनु मारा।

एक राम तो अवधनरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला ॥ ४॥

दो०- प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥४६॥

हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्यके धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचारकर कहिये॥ ४६॥

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।
कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई।
तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई।

हे नाथ! जिस प्रकारसे मेरा यह भारी भ्रम मिट जाय, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिये। इसपर याज्ञवल्क्यजी मुसकराकर बोले, श्रीरघुनाथजीकी प्रभुताको तुम जानते हो ॥१॥

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी।
चतुराई तुम्हारि मैं जानी।
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा।
कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥

तुम मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके भक्त हो। तुम्हारी चतुराईको मैं जान गया। तुम श्रीरामजीके रहस्यमय गुणोंको सुनना चाहते हो; इसीसे तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो॥२॥

तात सुनहु सादर मनु लाई।
कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला।
रामकथा कालिका कराला।।

हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो; मैं श्रीरामजीकी सुन्दर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्रीरामजीकी कथा [उसे नष्ट कर देनेवाली] भयंकर कालीजी हैं॥३।।

रामकथा ससि किरन समाना।
संत चकोर करहिं जेहि पाना।।
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी।
महादेव तब कहा बखानी।।

श्रीरामजीकी कथा चन्द्रमाकी किरणोंके समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजीने किया था, तब महादेवजीने विस्तारसे उसका उत्तर दिया था ॥४॥

दो०-- कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥

अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजीका संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतुसे हुआ, उसे है मुनि ! तु तुम्हारा विषाद मिट जायगा।। ४७॥

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