लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

पति के अपमान से दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष-यज्ञ-विध्वंस



पति परित्याग हृदयँ दुख भारी ।
कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी ।
भय संकोच प्रेम रस सानी॥


क्योंकि उनके हृदयमें पतिद्वारा त्यागी जानेका बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सतीजी भय, संकोच और प्रेमरसमें सनी हुई मनोहर वाणीसे बोली- ॥४॥

दो०- पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तो मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥

हे प्रभो ! मेरे पिताके घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम ! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ॥६१।।

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा ।
यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।
दच्छ सकल निज सुता बोलाई ।
हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं।


शिवजीने कहा-तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मनको भी पसंद आयी। पर उन्होंने न्यौता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्षने अपनी सब लड़कियोंको बुलाया है; किन्तु हमारे वैरके कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया॥१॥

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना ।
तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी ।
रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

एक बार ब्रह्मा की सभा में हमसे अप्रसन्न हो गये थे. उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी ! जो तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥२॥

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा ।
जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई।
तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥


यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरुके घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जानेसे कल्याण नहीं होता॥३॥

भाँति अनेक संभु समुझावा ।
भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ ।
नहिं भलि बात हमारे भाएँ।

शिवजीने बहुत प्रकारसे समझाया, पर होनहारवश सतीके हृदयमें बोध नहीं हुआ। फिर शिवजीने कहा कि यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी समझमें अच्छी बात न होगी ॥४॥

दो०- कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥


शिवजीने बहुत प्रकारसे कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकी, तब त्रिपुरारि महादेवजीने अपने मुख्य गणोंको साथ देकर उनको विदा कर दिया ॥६२॥

पिता भवन जब गईं भवानी ।
दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता ।
भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥


भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुंची, तब दक्षके डरके मारे किसीने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदरसे मिली। बहिनें बहुत मुसकराती हुई मिलीं ॥१॥

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता ।
सतिहि बिलोकि जरे सब गाता।।
सती जाइ देखेउ तब जागा ।
कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥


दक्षने तो उनकी कुछ कुशलतक नहीं पूछी, सतीजीको देखकर उलटे उनके सारे अङ्ग जल उठे। तब सतीने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजीका भाग दिखायी नहीं दिया ॥२॥

तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ ।
प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा ।
जस यह भयउ महा परितापा।


तब शिवजीने जो कहा था वह उनकी समझ में आया। स्वामीका अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला (पतिपरित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख इस समय (पति-अपमान के कारण) हुआ॥३॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना ।
सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा ।
बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा।


यद्यपि जगतमें अनेक प्रकारके दारुण दुःख हैं तथापि जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजीको बड़ा क्रोध हो आया। माताने उन्हें बहुत प्रकारसे समझ पा-बुझाया ॥४॥

दो०- सिव अपमानु न जाइ सहि हृदय न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोली बचन सक्रोध॥६३॥


परन्तु उनसे शिवजीका अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदयमें कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभाको हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोली- ॥६३॥

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा ।
कही सुनी जिन्ह संकर निंदा।
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ ।
भली भाँति पछिताब पिताहूँ।

हे सभासदो और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगोंने यहाँ शिवजीकी निन्दा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछतायेंगे॥१॥

संत संभु श्रीपति अपबादा ।
सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई।
श्रवन मूदि न त चलिअ पराई।


जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति विष्णुभगवानकी निन्दा सुनी जाय वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निन्दा करनेवाले) की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूंदकर वहाँसे भाग जाय॥२॥

जगदातमा महेसु पुरारी ।
जगत जनक सब के हितकारी।
पिता मंदमति निंदत तेही ।
दच्छ सुक्र संभव यह देही।

त्रिपुर दैत्यको मारनेवाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगतके आत्मा हैं, वे जगतपिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है: और मेरा यह शरीर दक्षहीके वीर्यसे उत्पन्न है ॥३॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू ।
उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा ।
भयउ सकल मख हाहाकारा॥


इसलिये चन्द्रमा को ललाटपर धारण करनेवाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूंगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥४॥

दो०- सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४॥

सतीका मरण सुनकर शिवजीके गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजीने उसकी रक्षा की॥६४॥

समाचार सब संकर पाए ।
बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा ।
सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥


ये सब समाचार शिवजीको मिले. तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्रको भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओंको यथोचित फल (दण्ड) दिया॥१॥

भै जगबिदित दच्छ गति सोई।
जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी ।
ताते मैं संछेप बखानी॥


दक्षकी जगतप्रसिद्ध वही गति हुई जो शिवद्रोहीकी हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिये मैंने संक्षेपमें वर्णन किया ॥२॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book