मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड) रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥३४८॥
इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वारपर आये। माताएँ आनन्दित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं ॥३४८॥
प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन मनि पट नाना जाती।
करहिं निछावरि अगनित भाँती॥
वे बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान् आनन्दको कौन कह सकता है! अनेकों प्रकारके आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकारकी अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही हैं ॥१॥
परमानंद मगन महतारी॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी ।
मुदित सफल जग जीवन लेखी॥
गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा ।
नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥
सखियाँ सीताजीके मुखको बार-बार देखकर अपने पुण्योंकी सराहना करती हुई गान कर रही हैं। देवता क्षण-क्षणमें फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं॥३॥
सारद उपमा सकल ढंढोरीं।
देत न बनहिं निपट लघु लागी ।
एकटक रही रूप अनुरागीं।
चारों मनोहर जोड़ियोंको देखकर सरस्वतीने सारी उपमाओंको खोज डाला; पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्रीरामजीके रूपमें अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गयीं ॥४॥
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चली लवाइ निकेत॥३४९॥
वेदकी विधि और कुलकी रीति करके अर्ध्य-पाँवड़े देती हुई बहुओंसमेत सब पुत्रोंको परछन करके माताएँ महलमें लिवा चलीं ॥ ३४९ ॥
जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुरि कुर बैठारे ।
सादर पाय पुनीत पखारे॥
स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेवने ही अपने हाथसे बनाये थे। उनपर माताओंने राजकुमारियों और राजकुमारोंको बैठाया और आदरके साथ उनके पवित्र चरण धोये ॥१॥
पूजे बर दुलहिनि मंगल निधि॥
बारहिं बार आरती करहीं ।
ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।
फिर वेदकी विधिके अनुसार मङ्गलोंके निधान दूलह और दुलहिनोंकी धूप, दीप और नैवेद्य आदिके द्वारा पूजा की। माताएँ बारंबार आरती कर रही हैं और वर-वधुओंके सिरोंपर सुन्दर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं ॥२॥
भरी प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं ।
अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं।
अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं; सभी माताएँ आनन्दसे भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगीने परम तत्त्वको प्राप्त कर लिया। सदाके रोगीने मानो अमृत पा लिया, ॥३॥
अंधहि लोचन लाभु सुहावा।
मूक बदन जनु सारद छाई ।
मानहुँ समर सूर जय पाई॥
जन्मका दरिद्री मानो पारस पा गया। अंधेको सुन्दर नेत्रोंका लाभ हुआ। गूंगेके मुखमें मानो सरस्वती आ विराजी और शूरवीरने मानो युद्ध में विजय पा ली॥४॥
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु॥३५० (क)॥
इन सुखोंसे भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनन्द माताएँ पा रही हैं। क्योंकि रघुकुलके चन्द्रमा श्रीरामजी विवाह करके भाइयोंसहित घर आये हैं ॥ ३५० (क)॥
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं ॥ ३५० (ख)॥
माताएँ लोकरीति करती हैं और दूलह-दुलहिने सकुचाते हैं। इस महान् आनन्द और विनोदको देखकर श्रीरामचन्द्रजी मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं ॥ ३५० (ख)॥
पूजीं सकल बासना जी की।
सबहि बंदि मागहिं बरदाना ।
भाइन्ह सहित राम कल्याना॥
मनकी सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरोंका भलीभाँति पूजन किया। सबकी वन्दना करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयों सहित श्रीरामजीका कल्याण हो॥१॥
मुदित मातु अंचल भरि लेहीं।
भूपति बोलि बराती लीन्हे ।
जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥
देवता छिपे हुए [अन्तरिक्षसे] आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनन्दित हो आँचल भरकर ले रही हैं। तदनन्तर राजाने बरातियोंको बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिये ॥२॥
मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर नर नारि सकल पहिराए ।
घर घर बाजन लगे बधाए॥
आज्ञा पाकर, श्रीरामजीको हृदयमें रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने-अपने घर गये। नगरके समस्त स्त्री-पुरुषोंको राजाने कपड़े और गहने पहनाये। घर-घर बधावे बजने लगे॥३॥
प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक सकल बजनिआ नाना ।
पूरन किए दान सनमाना।
याचक लोग जो-जो माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं। सम्पूर्ण सेवकों और बाजेवालोंको राजाने नाना प्रकारके दान और सम्मान से सन्तुष्ट किया।॥ ४॥
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥३५१॥
सब जोहार (वन्दन) करके आशिष देते हैं और गुणसमूहोंकी कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणोंसहित राजा दशरथजीने महलमें गमन किया॥३५१ ॥
लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर भीर देखि सब रानी ।
सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।
वसिष्ठजीने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेदकी विधिके अनुसार राजाने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणोंकी भीड़ देखकर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदरके साथ उठीं ॥१॥
पूजि भली बिधि भूप जेवाए।
आदर दान प्रेम परिपोषे ।
देत असीस चले मन तोषे॥
चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजाने भलीभाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर, दान और प्रेमसे पुष्ट हुए वे सन्तुष्ट मनसे आशीर्वाद देते हुए चले॥२॥
नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी ।
रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥
राजाने गाधि-पुत्र विश्वामित्रजीकी बहुत तरहसे पूजा की और कहा-हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजाने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियोंसहित उनकी चरणधूलिको ग्रहण किया ॥३॥
मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी ।
कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥
उन्हें महलके भीतर ठहरनेको उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात् जिसमें राजा और महलकी सारी रानियाँ स्वयं उनके इच्छानुसार उनके आरामकी ओर दृष्टि रख सकें), फिर राजाने गुरु वसिष्ठजीके चरणकमलोंकी पूजा और विनती की। उनके हृदयमें कम प्रीति न थी (अर्थात् बहुत प्रीति थी)॥४॥
पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥३५२॥
बहुओंसहित सब राजकुमार और सब रानियोंसमेत राजा बार-बार गुरुजीके चरणोंकी वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं ।। ३५२ ॥
सुत संपदा राखि सब आगें।
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा ।
आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥
राजाने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे पुत्रोंको और सारी सम्पत्तिको सामने रखकर [उन्हें स्वीकार करनेके लिये] विनती की। परन्तु मुनिराजने [पुरोहितके नाते] केवल अपना नेग मांग लिया और बहुत तरहसे आशीर्वाद दिया॥१॥
हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं।
चैल चारु भूषन पहिराईं।
फिर सीताजीसहित श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें रखकर गुरु वसिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थानको गये। राजाने सब ब्राह्मणोंकी स्त्रियोंको बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाये ॥२॥
रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी नेग जोग सब लेहीं ।
रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥
फिर सब सुआसिनियोंको (नगरभरकी सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदिको) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर [उसीके अनुसार] उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओंके शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छाके अनुसार देते हैं॥३॥
भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू ।
बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥
जिन मेहमानोंको प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजाने भलीभाँति सम्मान किया। देवगण श्रीरघुनाथजीका विवाह देखकर, उत्सवकी प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए-॥४॥
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदये समाइ॥३५३॥
नगाड़े बजाकर और [परम] सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकोंको चले। वे एक दूसरेसे श्रीरामजीका यश कहते जाते हैं । हृदयमें प्रेम समाता नहीं है ।। ३५३ ॥
रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे ।
सहित बहूटिन्ह कुर निहारे॥
सब प्रकारसे सबका प्रेमपूर्वक भलीभाँति आदर-सत्कार कर लेनेपर राजा दशरथजीके हृदयमें पूर्ण उत्साह (आनन्द) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारोंको देखा ॥१॥
को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं ।
बार बार हियँ हरषि दुलारी॥
राजा ने आनन्दसहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओंको प्रेमसहित गोदीमें बैठाकर, बार बार हृदयमें हर्षित होकर उन्होंने उनका दुलार (लाड़-चाव) किया॥२॥
सब के उर अनंद कियो बासू।
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू ।
सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥
यह समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदयमें आनन्दने निवास कर लिया। तब राजाने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन सुनकर सब किसीको हर्ष होता है ॥३॥
प्रीति रीति संपदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी ।
रानी सब प्रमुदित सुनि करनी॥
राजा जनकके गुण, शील, महत्त्व, प्रीतिकी रीति और सुहावनी सम्पत्तिका वर्णन राजाने भाटकी तरह बहुत प्रकारसे किया। जनकजीकी करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं ॥४॥
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति ॥३५४॥
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