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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
आईएसबीएन :0

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वन्दना



सो०-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥१४(घ)॥

मैं उन वाल्मीकि मुनिके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होनेपर भी खर (कठोर) से विपरीत बड़ी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होनेपर भी दूषण अर्थात् दोषसे रहित है।।१४(घ)॥

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥१४(ङ)॥

मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिये जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्नमें भी खेद (थकावट) नहीं होता ॥१४(ङ)॥

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥१४(च)॥

मैं ब्रह्माजीके चरण-रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँसे एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥१४ (च)॥
दो०-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥१४ (छ)॥

देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह-इन सबके चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथोंको पूरा करें ॥१४ (छ)॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥

फिर मैं सरस्वतीजी और देवनदी गङ्गाजीकी वन्दना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्रवाली हैं। एक (गङ्गाजी) स्नान करने और जल पीनेसे पापोंका हरती हैं और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती हैं ॥१॥

गुर पितु मातु महेस भवानी।
प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी।।
सेवक स्वामि सखा सिय पी के।
हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के।।

श्रीमहेश और पार्वतीको मैं प्रणाम करता है, जो मेरे गुरु और माता पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करनेवाले हैं, जो सीतापति श्रीरामचन्द्रजीके सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदासका सब प्रकारसे कपटरहित (सच्चा) हित करनेवाले हैं।॥ २॥

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।
साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।
अनमिल आखर अरथ न जापू।
प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥

जिन शिव-पार्वतीने कलियुगको देखकर, जगत के हित के लिये, शाबर मन्त्रसमूह की रचना की, जिन मन्त्रोंके अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्रीशिवजीके प्रतापसे जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है।।३।।

सो उमेस मोहि पर अनुकूला।
करिहिं कथा मुद मंगल मूला।
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ।
बरनउँ रामचरित चित चाऊ।।

वे उमापति शिवजी मुझपर प्रसन्न होकर [श्रीरामजीकी] इस कथाको आनन्द और मङ्गलकी मृल (उत्पन्न करनेवाली) बनायेंगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनोंका स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चावभरे चित्तसे श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ।॥४॥

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती।
ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता।
कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी।
कलि मल रहित सुमंगल भागी॥

मेरी कविता श्रीशिवजीकी कृपासे ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणोंके सहित चन्द्रमाके साथ रात्रि शोभित होती है। जो इस कथाको प्रेमसहित एवं सावधानीके साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगे, वे कलियुगके पापोंसे रहित और सुन्दर कल्याणके भागी होकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके प्रेमी बन जायँगे ॥५-६।।

दो०- सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥१५॥

यदि मुझपर श्रीशिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैंने इस भाषा, कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो ॥१५॥

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