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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

लक्ष्मण निषाद संवाद, श्रीराम सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमन्त्र का लौटना



सोवत प्रभुहि निहारि निषादू।
भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई।
बचन सप्रेम लखन सन कहई।


प्रभुको जमीनपर सोते देखकर प्रेमवश निषादराजके हृदयमें विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बहने लगा। वह प्रेमसहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा-॥३॥

भूपति भवन सुभायँ सुहावा।
सुरपति सदनु न पटतर पावा॥
मनिमय रचित चारु चौबारे।
जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥


महाराज दशरथजी का महल तो स्वभाव से ही सुन्दर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुन्दर मणियों के रचे चौबारे (छतके ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है;॥४॥
 
दो०- सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥९०॥


जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुन्दर भोगपदार्थों से पूर्ण और फूलोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं; जहाँ सुन्दर पलँग और मणियोंके दीपक हैं तथा सब प्रकारका पूरा आराम है;॥९०॥

बिबिध बसन उपधान तुराईं।
छीर फेन मृदु बिसद सुहाई॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं।
निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥

जहाँ [ओढ़ने-बिछानेके] अनेकों वस्त्र, तकिये और गद्दे हैं, जो दूधके फेनके समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुन्दर हैं; वहाँ (उन चौबारोंमें) श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे॥१॥

ते सिय रामु साथरों सोए।
श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥
मातु पिता परिजन पुरबासी।
सखा सुसील दास अरु दासी॥

वही श्रीसीता और श्रीरामजी आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोये हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। माता, पिता, कुटुम्बी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव के दास और दासियाँ ----॥२॥

जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं।
महि सोवत तेइ राम गोसाईं।
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ।
ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥


सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-सँभार करते थे, वही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत् में प्रसिद्ध है; जिनके ससुर इन्द्रके मित्र रघुराज दशरथजी हैं,॥३॥

रामचंदु पति सो बैदेही।
सोवत महि बिधि बाम न केही।
सिय रघुबीर कि कानन जोगू।
करम प्रधान सत्य कह लोगू॥


और पति श्रीरामचन्द्रजी हैं, वही जानकीजी आज जमीनपर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीताजी और श्रीरामचन्द्रजी क्या वनके योग्य हैं ? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है।॥ ४॥

दो०- कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥९१॥


कैकयराज की लड़की नीचबुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनन्दन श्रीरामजीको और जानकीजीको सुखके समय दुःख दिया॥९१॥

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी।
कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी।
राम सीय महि सयन निहारी॥


वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिये कुल्हाड़ी हो गयी। उस कुबुद्धिने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। श्रीराम-सीता को जमीनपर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ॥१॥

बोले लखन मधुर मृदु बानी।
ग्यान बिराग भगति रस सानी।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥


तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले-हे भाई! कोई किसीको सुख-दुःख का देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥२॥

जोग बियोग भोग भल मंदा।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू।
संपति बिपति करमु अरु कालू॥


संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन-ये सभी भ्रमके फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल जहाँतक जगत्के जंजाल हैं;॥३॥

धरनि धामु धनु पुर परिवारू।
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं।
मोह मूल परमारथु नाहीं॥


धरती, घर,धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँतक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मनके अंदर विचारनेमें आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥४॥

दो०- सपने होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥९२॥


जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाय, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपञ्च को हृदय से देखना चाहिये॥९२॥

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू।
काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥


ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिये और न किसीको व्यर्थ दोष ही देना चाहिये। सब लोग मोहरूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखायी देते हैं॥१॥

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी।
परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब सब बिषय बिलास बिरागा॥


इस जगतरूपी रात्रिमें योगीलोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपञ्च (मायिक जगत्) से छूटे हुए हैं। जगत्में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिये जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाय॥२॥

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥


विवेक होनेपर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजी के चरणोंमें प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥३॥

राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥


श्रीरामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आनेवाले), अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आनेवाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित), सब विकारों से रहित और भेदशून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं॥४॥

दो०- भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥९३॥

वही कृपालु श्रीरामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओंके हितके लिये मनुष्यशरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुननेसे जगत्के जंजाल मिट जाते हैं। ९३॥

मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम

सखा समुझि अस परिहरि मोहू।
सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा।
जागे जग मंगल सुखदारा॥


हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत् का मङ्गल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले श्रीरामजी जागे॥१॥

सकल सौच करि राम नहावा।
सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए।
देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥


शौच के सब कार्य करके [नित्य] पवित्र और सुजान श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित उस दूध से सिरपर जटाएँ बनायीं। यह देखकर सुमन्त्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥२॥

हृदयँ दाहु अति बदन मलीना।
कह कर जोरि बचन अति दीना॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा।
लै रथु जाहु राम के साथा॥

उनका हृदय अत्यन्त जलने लगा, मुँह मलिन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन वचन बोले-हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथजी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ॥३॥

बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई।
आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी।
संसय सकल सँकोच निबेरी।


वन दिखाकर, गङ्गास्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच को दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना॥४॥

दो०- नृप अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥९४॥

महाराज ने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूँ; मैं आपकी बलिहारी हूँ। इस प्रकार विनती करके वे श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने बालक की तरह रो दिया॥१४॥

तात कृपा करि कीजिअ सोई।
जातें अवध अनाथ न होई॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा।
तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥


[और कहा-] हे तात! कृपा करके वही कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो। श्रीरामजीने मन्त्रीको उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात! आपने तो धर्मके सभी सिद्धान्तोंको छान डाला है॥१॥

सिबि दधीच हरिचंद नरेसा।
सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना।
धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥

शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्रने धर्मके लिये करोड़ों (अनेकों) कष्ट सहे थे। बुद्धिमान् राजा रन्तिदेव और बलि बहुत-से संकट सहकर भी धर्मको पकड़े रहे (उन्होंने धर्मका परित्याग नहीं किया)।। २।।

धरमु न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा।
तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥

वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस [सत्यरूपी धर्म] का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जायगा॥३॥

संभावित कहुँ अपजस लाहू।
मरन कोटि सम दारुन दाहू॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ।
दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥

प्रतिष्ठित पुरुष के लिये अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण सन्ताप देनेवाली है। हे तात! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ! लौटकर उत्तर देनेमें भी पापका भागी होता हूँ॥४॥
 
दो०-पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥९५॥


आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर विनती करियेगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें। ९५॥

तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें।
बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें।
दुख न पाव पितु सोच हमारें।

आप भी पिताके समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूँ कि आपका भी सब प्रकारसे वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगोंके सोचमें दुःख न पावें॥१॥

सुनि रघुनाथ सचिव संबादू।
भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी।
प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥

श्रीरघुनाथ जी और सुमन्त्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया॥२॥

सकुचि राम निज सपथ देवाई।
लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू।
सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥

श्रीरामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमन्त्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह सन्देश न कहियेगा। सुमन्त्र ने फिर राजा का सन्देश कहा कि सीता वनके क्लेश न सह सकेंगी॥३॥

जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया।
सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना।
मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥

अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्रजीको वही उपाय करना चाहिये। नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे बिना जलके मछली नहीं जीती॥४॥

दो०- मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥९६॥


सीता के मायके (पिताके घर) और ससुराल में सब सुख हैं। जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब तक वे जब जहाँ जी चाहे, वहीं सुख से रहेंगी॥९६।।

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती।
आरति प्रीति न सो कहि जाती।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना।
सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥

राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेमसे) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने पिता का सन्देश सुनकर सीताजी को करोड़ों (अनेकों) प्रकार से सीख दी॥१॥

सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू।
फिरहु त सब कर मिटै खभारू।
सुनि पति बचन कहति बैदेही।
सुनहु प्रानपति परम सनेही॥


[उन्होंने कहा-] जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाय। पतिके वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं-हे प्राणपति ! हे परम स्नेही! सुनिये॥२॥

प्रभु करुनामय परम बिबेकी।
तनु तजि रहति छाँह किमि छेकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई।
कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥


हे प्रभो! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं। [कृपा करके विचार तो कीजिये] शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है ? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?॥३॥

पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई।
कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी।
उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥

इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मन्त्री से सुहावनी वाणी कहने लगी-आप मेरे पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है॥ ४॥

दो०- आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥९७॥


किन्तु हे तात! मैं आर्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूँ, आप बुरा न मानियेगा। आर्यपुत्र (स्वामी) के चरणकमलों के बिना जगत् में जहाँ तक नाते हैं सभी मेरे लिये व्यर्थ हैं।। ९७॥

पितु बैभव बिलास मैं डीठा।
नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें।
पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥

मैंने पिताजी के ऐश्वर्यकी छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं (अर्थात् बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं) ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भण्डार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता॥१॥

ससुर चक्कवइ कोसलराऊ।
भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगे होइ जेहि सुरपति लेई।
अरध सिंघासन आसनु देई॥

मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है; इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिये स्थान देता है,॥२॥

ससुर एतादृस अवध निवासू।
प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा।
मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥

ऐसे [ऐश्वर्य और प्रभावशाली] ससुर; [उनकी राजधानी] अयोध्या का निवास; प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ-ये कोई भी श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते॥ ३॥

अगम पंथ बनभूमि पहारा।
करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा।
मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥

दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ; कोल,भील, हिरन और पक्षी-प्राणपति (श्रीरघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले होंगे॥४॥

दो०- सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायें।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ। ९८॥

अत: सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजियेगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें; मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ॥९८॥

प्राननाथ प्रिय देवर साथा।
बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें।
मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥

वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और [बाणोंसे भरे] तरकश धारण किये मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं। इससे मुझे न रास्ते की थकावट है, न भ्रम है, और न मेरे मन में कोई दुःख ही है। आप मेरे लिये भूलकर भी सोच न करें॥१॥

सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी।
भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना।
कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥

सुमन्त्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गये जैसे साँप मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से सुनायी नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गये, कुछ कह नहीं सकते॥२॥

राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती।
तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे।
उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥

श्रीरामचन्द्रजीने उनका बहुत प्रकारसे समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई। साथ चलनेके लिये मन्त्रीने अनेकों यत्न किये (युक्तियाँ पेश की), पर रघुनन्दन श्रीरामजी [उन सब युक्तियोंका] यथोचित उत्तर देते गये॥३॥

मेटि जाइ नहिं राम रजाई।
कठिन करम गति कछु न बसाई॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई।
फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥


श्रीरामजी की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती। कर्म की गति कठिन है, उसपर कुछ भी वश नहीं चलता। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमन्त्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे॥४॥

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