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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

यमुना का प्रणाम, वनवासियों का प्रेम



पुनि सियँ राम लखन कर जोरी।
जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई।
रबितनुजा कइ करत बड़ाई।


फिर सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बड़ाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक आगे चले॥१॥

पथिक अनेक मिलहिं मग जाता।
कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता।
राज लखन सब अंग तुम्हारें।
देखि सोचु अति हृदय हमारे॥

रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अङ्गों में राजचिह्न देखकर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है॥२॥

मारग चलहु पयादेहि पाएँ।
ज्योतिषु झूठ हमारे भाएँ।
अगमु पंथु गिरि कानन भारी।
तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥


[ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी] तुम लोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ में आता है कि ज्योतिष-शास्त्र झूठा ही है। भारी जंगल और बड़े बड़े पहाड़ों का दुर्गम रास्ता है। तिस पर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है॥३॥

करि केहरि बन जाइ न जोई।
हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई।
फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥

हाथी और सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप जहाँ तक जायँगे वहाँ तक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेंगे।॥४॥

दो०- एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥११२॥


इस प्रकार वे यात्री प्रेमवश पुलकित शरीर हो और नेत्रों में [प्रेमाश्रुओं का] जल भरकर पूछते हैं। किन्तु कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी कोमल विनययुक्त वचन कहकर उन्हें लौटा देते हैं॥११२॥

जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं।
तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥
केहि सुकृती केहि घरी बसाए।
धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥


जो गाँव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसापूर्वक ईर्ष्या करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान ने किस शुभ घड़ी में इनको बसाया था, जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुन्दर हो रहे हैं॥१॥

जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं।
तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी।
तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥


जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजी के चरण चले जाते हैं, उनके समान इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं है। रास्ते के समीप बसने वाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं-स्वर्ग में रहने वाले देवता भी उनकी सराहना करते हैं—॥२॥

जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि।
सीता लखन सहित घनस्यामहि॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं।
तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥

जो नेत्र भरकर सीताजी और लक्ष्मणजी सहित घनश्याम श्रीरामजी के दर्शन करते हैं, जिन तालाबों और नदियों में श्रीरामजी स्नान कर लेते हैं, देवसरोवर और देवनदियाँ भी उनकी बड़ाई करती हैं॥३॥

जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई।
करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥
परसि राम पद पदुम परागा।
मानति भूमि भूरि निज भागा।

जिस वृक्ष के नीचे प्रभु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों की रज का स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती है॥४॥

दो०- छाँह करहिं घन बिबुधगन बरषहिं सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥११३॥

रास्ते में बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और सिहाते हैं। पर्वत, वन और पशु-पक्षियों को देखते हुए श्रीरामजी रास्ते में चले जा रहे हैं॥११३॥

सीता लखन सहित रघुराई।
गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी।
चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥

सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्रीरघुनाथजी जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने घर और काम काज को भूलकर तुरंत उन्हें देखने के लिये चल देते हैं॥१॥

राम लखन सिय रूप निहारी।
पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा।
सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥

श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी का रूप देखकर,नेत्रों का [परम] फल पाकर वे सुखी होते हैं। दोनों भाइयों को देखकर सब प्रेमानन्द में मन हो गये। उनके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गये॥२॥

बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी।
लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं।
लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥


उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्रों ने चिन्तामणि की ढेरी पा ली हो। वे एक-एक को पुकारकर सीख देते हैं कि इसी क्षण नेत्रोंका लाभ ले लो॥३॥

रामहि देखि एक अनुरागे।
चितवत चले जाहिं सँग लागे॥
एक नयन मग छबि उर आनी।
होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥


कोई श्रीरामचन्द्रजी को देखकर ऐसे अनुराग में भर गये हैं कि वे उन्हें देखते हुए उनके साथ लगे चले जा रहे हैं। कोई नेत्रमार्ग से उनकी छवि को हृदय में लाकर शरीर, मन और श्रेष्ठ वाणी से शिथिल हो जाते हैं (अर्थात् उनके शरीर, मन और वाणी का व्यवहार बंद हो जाता है)॥ ४॥

दो०-- एक देखि बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रम गवनब अबहिं कि प्रात॥११४॥


कोई बड़की सुन्दर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षणभर यहाँ बैठकर थकावट मिटा लीजिये। फिर चाहे अभी चले जाइयेगा, चाहे सबेरे।। ११४॥

एक कलस भरि आनहिं पानी।
अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी।
राम कृपाल सुसील बिसेषी॥

कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं-नाथ! आचमन तो कर लीजिये। उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका अत्यन्त प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील श्रीरामचन्द्रजी ने-॥१॥

जानी श्रमित सीय मन माहीं।
घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा।
रूप अनूप नयन मनु लोभा।।

मन में सीताजी को थकी हुई जानकर घड़ी भर बड़ की छाया में विश्राम किया। स्त्री-पुरुष आनन्दित होकर शोभा देखते हैं। अनुपम रूप ने उनके नेत्र और मनों को लुभा लिया है॥ २॥

एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा।
रामचंद्र मुख चंद चकोरा॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा।
देखत कोटि मदन मनु मोहा॥


सब लोग टकटकी लगाये श्रीरामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को चकोर की तरह (तन्मय होकर) देखते हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं। श्रीरामजी का नवीन तमाल वृक्ष के रंगका (श्याम) शरीर अत्यन्त शोभा दे रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेवोंके मन मोहित हो जाते हैं॥३॥

दामिनि बरन लखन सुठि नीके।
नख सिख सुभग भावते जी के॥
मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा।
सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥


बिजली के-से रंग के लक्ष्मणजी बहुत ही भले मालूम होते हैं। वे नख से शिखा तक सुन्दर हैं, और मन को बहुत भाते हैं। दोनों मुनियों के (वल्कल आदि) वस्त्र पहने हैं और कमर में तरकस कसे हुए हैं। कमलके समान हाथोंमें धनुष-बाण शोभित हो रहे हैं॥४॥
 
दो०- जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥११५॥

उनके सिरों पर सुन्दर जटाओं के मुकुट हैं; वक्षःस्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरत् पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखों पर पसीने की बूंदों का समूह शोभित हो रहा है।।११५॥

बरनि न जाइ मनोहर जोरी।
सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥
राम लखन सिय सुंदरताई।
सब चितवहिं चित मन मति लाई॥

उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि शोभा बहुत अधिक है, और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी की सुन्दरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनोंको लगाकर देख रहे हैं॥१॥

थके नारि नर प्रेम पिआसे।
मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं।
पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥

प्रेम के प्यासे [वे गाँवों के] स्त्री-पुरुष [इनके सौन्दर्य-माधुर्य की छटा देखकर] ऐसे थकित रह गये जैसे दीपक को देखकर हिरनी और हिरन [निस्तब्ध रह जाते हैं] ! गाँवों की स्त्रियाँ सीताजी के पास जाती हैं; परन्तु अत्यन्त स्नेह के कारण पूछते सकुचाती हैं॥२॥

बार बार सब लागहिं पाएँ।
कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ।
राजकुमारि बिनय हम करहीं।
तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।

बार-बार सब उनके पाँव लगती और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं-हे राजकुमारी ! हम विनती करती (कुछ निवेदन करना चाहती) हैं, परन्तु स्त्री स्वभाव के कारण कुछ पूछते हुए डरती हैं॥३॥

स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी।
बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥
राजकुर दोउ सहज सलोने।
इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥

हे स्वामिनि ! हमारी ढिठाई क्षमा कीजियेगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मानियेगा। ये दोनों राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय (परम सुन्दर) हैं। मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण ने कान्ति इन्हीं से पायी है (अर्थात् मरकतमणि में और स्वर्ण में जो हरित और स्वर्णवर्ण की आभा है वह इनकी हरिताभनील और स्वर्णकान्ति के एक कण के बराबर भी नहीं है)॥४॥

दो०- स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥११६॥


श्याम और गौर वर्ण है, सुन्दर किशोर अवस्था है; दोनों ही परम सुन्दर और शोभाके धाम हैं। शरत् पूर्णिमा के चन्द्रमाके समान इनके मुख और शरद्-ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं।११६॥

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम

कोटि मनोज लजावनिहारे।
सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।
सुनि सनेहमय मंजुल बानी।
सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥

हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुन्दरतासे करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं ? उनकी ऐसी प्रेममयी सुन्दर वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं और मन ही-मन मुसकरायीं॥१॥

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी।
दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी।
बोली मधुर बचन पिकबयनी॥

उत्तम (गौर) वर्ण वाली सीताजी उनको देखकर [संकोचवश] पृथ्वी की ओर देखती हैं। वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं (अर्थात् न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दुःख होने का संकोच है और बताने में लज्जारूप संकोच)। हिरण के बच्चे के सदृश नेत्रवाली और कोकिल की-सी वाणी वाली सीताजी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं-॥२॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे।
नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी।
पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।

ये जो सहजस्वभाव, सुन्दर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजी ने [लज्जावश] अपने चन्द्रमुख को आँचल से ढककर और प्रियतम (श्रीरामजी) की ओर निहार कर भौंहें टेढ़ी करके,॥३॥

खंजन मंजु तिरीछे नयननि।
निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भई मुदित सब ग्रामबधूटी।
रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥

खंजन पक्षी के-से सुन्दर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये (श्रीरामचन्द्रजी) मेरे पति हैं। यह जानकर गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनन्दित हुईं मानो कंगालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों॥४॥

दो०- अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥११७॥

वे अत्यन्त प्रेम से सीताजीके पैरों पड़कर बहुत प्रकारसे आशिष देती हैं (शुभ कामना करती हैं) कि जब तक शेषजी के सिरपर पृथ्वी रहे, तब तक तुम सदा सुहागिनी बनी रहो,॥११७॥

पारबती सम पतिप्रिय होहू।
देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी।
जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥


और पार्वतीजी के समान अपने पतिकी प्यारी होओ। हे देवि! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाये रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें,॥१॥

दरसनु देब जानि निज दासी।
लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं।
जनु कुमुदिनी कौमुदी पोषीं।

और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीताजी ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा, और मधुर वचन कह-कहकर उनका भलीभाँति सन्तोष किया। मानो चाँदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो॥२॥

तबहिं लखन रघुबर रुख जानी।
पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥
सुनत नारि नर भए दुखारी।
पुलकित गात बिलोचन बारी॥

उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर लक्ष्मणजी ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री-पुरुष दु:खी हो गये। उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रों में [वियोगकी सम्भावनासे प्रेमका] जल भर आया॥३॥

मिटा मोदु मन भए मलीने।
बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा।
सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥

उनका आनन्द मिट गया और मन ऐसे उदास हो गये मानो विधाता दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो। कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया॥४॥

दो०- लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥११८॥

तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित श्रीरघुनाथजी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उनके मनोंको अपने साथ ही लगा लिया॥११८॥

फिरत नारि नर अति पछिताहीं।
दैअहिं दोषु देहिं मन माहीं॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं।
बिधि करतब उलटे सब अहहीं।

लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन-ही-मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर [बड़े ही] विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उलटे हैं॥१॥

निपट निरंकुस निठुर निसंकू।
जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥
रूख कलपतरु सागरु खारा।
तेहिं पठए बन राजकुमारा॥

वह विधाता बिलकुल निरंकुश (स्वतन्त्र), निर्दय और निडर है, जिसने चन्द्रमा को रोगी (घटने-बढ़नेवाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसीने इन राजकुमारों को वन में भेजा है॥२॥

जौं पै इन्हहि दीन्ह बनबासू।
कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना।
रचे बादि बिधि बाहन नाना॥

जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाये। जब ये बिना जूते के (नंगे ही पैरों) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे॥३॥

ए महि परहिं डासि कुस पाता।
सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा।
धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥


जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुन्दर सेज (पलंग और बिछौने) किसलिये बनाता है? विधाता ने जब इनको बड़े-बड़े पेड़ों [के नीचे] का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया॥४॥

दो०- जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥११९॥


जो ये सुन्दर और अत्यन्त सुकुमार होकर मुनियोंके (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार (विधाता) ने भाँति-भाँतिके गहने और कपड़े वृथा ही बनाये॥११९॥

जौं ए कंद मूल फल खाहीं।
बादि सुधादि असन जग माहीं॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए।
आपु प्रगट भए बिधि न बनाए।


जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत्में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं-ये स्वभाव से ही सुन्दर हैं [इनका सौन्दर्य-माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है]। ये अपने-आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाये नहीं हैं॥१॥

जहँ लगि बेद कही बिधि करनी।
श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी।
कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥

हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आनेवाली विधाता की करनी को जहाँ तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहाँ तक चौदहों लोकों में ढूँढ देखो, ऐसे पुरुष और ऐसी स्त्रियाँ कहाँ हैं ? [कहीं भी नहीं हैं, इसीसे सिद्ध है कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग हैं और अपनी महिमा से ही आप निर्मित हुए हैं]॥२॥

इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा।
पटतर जोग बनावै लागा॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए।
तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥

इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री-पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, परन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आये (पूरे नहीं उतरे)। इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है॥३॥

एक कहहिं हम बहुत न जानहिं।
आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे।
जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥

कोई एक कहते हैं- हम बहुत नहीं जानते। हाँ, अपने को परम धन्य अवश्य मानते हैं [जो इनके दर्शन कर रहे हैं और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इनको देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे॥४॥
 
दो०- एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥१२०॥

इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर सब नेत्रों में [प्रेमाश्रुओं का] जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम (कठिन) मार्गमें कैसे चलेंगे। १२०॥

नारि सनेह बिकल बस होहीं।
चकई साँझ समय जनु सोहीं।
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी।
गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥

स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो सन्ध्या के समय चकवी [भावी वियोगकी पीड़ासे] सोह रही हों (दुःखी हो रही हों)। इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदयसे उत्तम वाणी कहती हैं-॥ १॥

परसत मृदुल चरन अरुनारे।
सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा।
कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥


इनके कोमल और लाल-लाल चरणों (तलवों) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?॥२॥

जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं।
ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥
जे नर नारि न अवसर आए।
तिन्ह सिय रामु न देखन पाए।


यदि ब्रह्मा से माँगे मिले तो हे सखि! [हम तो उनसे माँगकर] इन्हें अपनी आँखों में ही रखें! जो स्त्री-पुरुष इस अवसर पर नहीं आये, वे श्रीसीतारामजी को नहीं देख सके॥३॥

सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई।
अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई।
प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई।

उनके सौन्दर्यको सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई! अबतक वे कहाँतक गये होंगे? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्मका परम फल पाकर, विशेष आनन्दित होकर लौटते हैं॥४॥

दो०- अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं।
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥१२१॥

[गर्भवती, प्रसूता आदि] अबला स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े [दर्शन न पाने से] हाथ मलते और पछताते हैं। इस प्रकार जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ लोग प्रेम के वश में हो जाते हैं। १२१॥

गाव गावं अस होइ अनंदू।
देखि भानुकुल कैरव चंदू॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं।
ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥

सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी के प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमास्वरूप श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकर गाँव-गाँव में ऐसा ही आनन्द हो रहा है। जो लोग [वनवास दिये जाने का] कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राजा-रानी [दशरथ-कैकेयी] को दोष लगाते हैं॥१॥

कहहिं एक अति भल नरनाहू।
दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥
कहहिं परसपर लोग लोगाईं।
बातें सरल सनेह सुहाई॥

कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री-पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेहभरी सुन्दर बातें कह रहे हैं॥२॥

ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए।
धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ।
जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥

[कहते हैं-] वे माता-पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य है जहाँ से ये आये हैं। वह देश, पर्वत, वन और गाँव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहाँ-जहाँ ये जाते हैं॥ ३॥

सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही।
ए जेहि के सब भाँति सनेही॥
राम लखन पथि कथा सुहाई।
रही सकल मग कानन छाई।

ब्रह्माने उसीको रचकर सुख पाया है जिसके ये (श्रीरामचन्द्रजी) सब प्रकारसे स्नेही हैं। पथिकरूप श्रीराम-लक्ष्मणकी सुन्दर कथा सारे रास्ते और जंगलमें छा गयी है॥४॥

दो०- एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥१२२॥

रघुकुलरूपी कमल के खिलाने वाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मणजीसहित वनको देखते हुए चले जा रहे हैं॥१२२॥

आगें रामु लखनु बने पाछे।
तापस बेष बिराजत काछे।
उभय बीच सिय सोहति कैसें।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥

आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाये दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया!॥१॥

बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई।
जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही।
जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही।

फिर जैसी छबि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूँ--मानो वसन्त ऋतु और कामदेव के बीच में रति (कामदेव की स्त्री) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोज कर उपमा कहता हूँ कि मानो बुध (चन्द्रमाके पुत्र) और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी (चन्द्रमा की स्त्री) सोह रही हो।॥ २॥

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता।
धरति चरन मग चलति सभीता।
सीय राम पद अंक बराएँ।
लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ।

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके [जमीनपर अङ्कित होनेवाले दोनों] चरणचिह्नोंके बीच-बीचमें पैर रखती हुई सीताजी [कहीं भगवान्के चरण चिह्नों पर पैर न टिक जाय इस बात से] डरती हुई मार्ग में चल रही हैं, और लक्ष्मणजी [मर्यादा की रक्षा के लिये] सीताजी और श्रीरामचन्द्रजी दोनोंके चरणचिह्नोंको बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं॥ ३॥

राम लखन सिय प्रीति सुहाई।
बचन अगोचर किमि कहि जाई॥
खग मृग मगन देखि छबि होही।
लिए चोरि चित राम बटोहीं॥


श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुन्दर प्रीति वाणी का विषय नहीं है (अर्थात् अनिर्वचनीय है), अत: वह कैसे कही जा सकती है? पक्षी और पशु भी उस छविको देखकर (प्रेमानन्द में) मग्न हो जाते हैं। पथिकरूप श्रीरामचन्द्रजी ने उनके भी चित्त चुरा लिये हैं॥४॥

दो०- जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥१२३॥


प्यारे पथिक सीताजीसहित दोनों भाइयों को जिन-जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग (जन्म-मृत्युरूपी संसारमें भटकनेका भयानक मार्ग) बिना ही परिश्रम आनन्द के साथ तै कर लिया (अर्थात् वे आवागमनके चक्रसे सहज ही छूटकर मुक्त हो गये)॥ १२३॥

अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ।
बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥
राम धाम पथ पाइहि सोई।
जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥


आज भी जिसके हृदयमें स्वप्नमें भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्रीरामजीके परमधामके उस मार्गको पा जायगा जिस मार्गको कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं॥१॥

तब रघुबीर श्रमित सिय जानी।
देखि निकट बटु सीतल पानी॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई।
प्रात नहाड़ चले रघुराई॥


तब श्रीरामचन्द्रजी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गये। कन्द, मूल, फल खाकर [रातभर वहाँ रहकर] प्रातःकाल स्नान करके श्रीरघुनाथजी आगे चले॥२॥

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